नई दिल्लीः
घर में इतनी घनघोर गरीबी थी कि उजाले के लिए लालटेन ख़रीदने के भी पैसे नहीं थे। ढिबरी की रोशनी में एमए तक पढाई करनी पड़ी। ख़ैर...परीक्षा का नतीजा हर बार दुख हर लेता था। उस दौर में प्रथम श्रेणी से एमए पास हुए तो सोचे कि किसी डिग्री कॉलेज में पढ़ाने को मिल जाए तो रोज़ी रोटी का भी जुगाड़ हो जाएगा और हमेशा पढ़ने-लिखने से नाता भी बना रहेगा। मगर उनके मुस्तकबिल में तो नेता बनना लिखा था। बस फिर क्या था कि कदम जाने-अन्जाने उसी राह पर चल पड़े। हम बात कर रहे जाने-माने स्तंभकार व भाजपा नेता हृदयनारायण दीक्षित की। यूँ तो वह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनके विद्वतापूर्ण लेख अक्सर अख़बारों के संपादकीय पेज पर प्रकाशित होते रहते हैं। उन्हें निर्विरोध उत्तर प्रदेश का विधानसभा अध्यक्ष चुना गया है। भगवंतनगर सीट से विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद यूपी भवन दिल्ली में दीक्षित ने इंडिया संवाद से बातचीत की थी। इस दौरान उन्होंने अपने लेखन व सियासत पर लंबी बातचीत की थी। हमने बरबस ही पूछा-आप लिखने -पढने वाले आदमी ठहरे, कहाँ सियासत से नाता जुड़ गया। हँसने लगे। अपनी ग़ुरबत में कटी ज़िंदगी और राजनीति में उतरने का रोचक क़िस्सा बताया। आप भी सुनिए...
पहले चुनाव का अनुभव
1984 का वक़्त। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद यूपी विधानसभा चुनाव हो रहे थे। कांग्रेस के पाले में ज़बरदस्त सहानुभूति की लहर उमड़ी थी। हमारे कुछ दोस्तों ने मज़ाक़ मज़ाक़ में कहा-पंडितजी पुरवा(उन्नाव) सीट से चुनाव लड़ो-मज़ा आएगा। दबाव पर मैं तैयार हो गया। भला सोचिए। जो बिना लालटेन के पढाई कर डाला हो उसके घर में साइकिल कहाँ होगी। ख़ैर दोस्तों के दबाव में पर्चा भरा। फिर पैदल चुनाव प्रचार में जुट गया। कुछ लोगों को तरस आया। उन्होंने चंदे से साइकिल ख़रीदने की सलाह दी। उस वक़्त 170 रुपये में साइकिल मिलती थी। हमने साथियों के साथ 170 लोगों से एक-एक रुपये चंदा लिया। फिर 170 रुपये में साइकिल ख़रीदी तो प्रचार अभियान में गति आई। बोलचाल से प्रभावित हुए तमाम युवाओं और छात्रजीवन के साथियों का कारवाँ जुड़ता गया। हमने छात्रजीवन में छुआछूत मिटाओ मुहिम शुरू की थी। उस अनुभव का बहुत लाभ मिला। हम दलितबस्तियों में जाकर सबसे मिलते थे। विरोधी सवर्ण प्रत्याशी उनकी बस्ती में झाँकने तक नहीं जाते थे। भोजन का वक़्त होने पर उन्हीं के घर खाना खाते थे। नतीजा था कि पुरवा विधानसभा के सभी दलित हमारे समर्थक हो गए। खुलकर प्रचार करने लगे। मुझे ख़ुद के जीतने का भरोसा नहीं था। क्योंकि मैं चुनाव लड़ने का केवल सबक़ व अनुभव हासिल करना चाहता था। मगर जब मतगणना चालू हुई। पहला राउंड पूरा हुआ। तब अप्रत्याशित रूप से मैं दो हज़ार से बढ़त बना चुका था। सब कुछ सपने जैसा रहा। जीत भी गया तो हाथ में सर्टिफ़िकेट आने पर भी भरोसा नहीं हो रहा था। विधायक बनने से पहले मैं उन्नाव में भाजपा का ज़िलाध्यक्ष था। मगर एक प्रदेश पदाधिकारी से मतभेद के कारण पार्टी छोड़ दी थी मगर संघ से नाता बचपन से रहा। जब निर्दल विधायक बना तो एक दिन कलराज मिश्रा और लालजी टंडन घर गए। बोले पंडितजी नाराज़ होकर निर्दलीय ही रहोगे कि अब घरवापसी भी करोगे। आपका स्थान भाजपा में है। फिर कुछ दिन बाद भाजपा में शामिल हुआ। दो-तीन मौक़ों पर हारा तो पार्टी एमएलसी बनाकर असेंबली भेजती रही। मगर पहले चुनाव की वो साइकिल आज भी नहीं भूलती।