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चाह नहीं प्रभु महलों की तुम सैर कराओ। चाह नहीं प्रभु पुष्प रथ पर तुम चढ़ाओ। चाह प्रभु सिर्फ इतनी मेरी कफन तिरंगा दे जाओ।   मैं तो लघुकण इस धरती का दुर्लभ जीवन पाया है। कर्ज बहुत बड़ा धरा का

महामारी को त्रस्त करो तुम मनोबल के शस्त्र से। रहो सुरक्षित घर में अपने डटे रहो फिर साहस से। प्रलय के बादल छंट जाएंगे नया सवेरा आयेगा। जीवन सबका सुखमय होगा कण कण मंगल गायेगा।   नई ऊर्जा नया प्

संकट मोचन राम कण-कण के भगवान। कब आओगे धरती पर करने तुम कल्याण। पाहिमाम् पाहिमाम् पाहिमाम् पाहि।   त्राहि-त्राहि मची धरती पर महामारी का प्रकोप बड़ा है। हर मानव परेशान सा दुविधाओं में फंसा पड़

हर तरफ विवादों की गली है                                      रिश्तों में दीमक लगने लगी है बिखरते रिश्ते उड़ता धुआं जलने की महक आने लगी है।   धीरज से रहना आता नहीं है अपनों का साथ भाता नहीं है

मर्दानी थी झांसी रानी खूब लड़ी थी झांसी में। अंग्रेजों से लेकर लोहा धूम मचायी झांसी में।   एक अकेली होकर भी वे सवा लाख बराबर थी। नाम सुनते ही रानी का अंग्रेजों में ठनती थी।   मनुबाई था नाम र

प्रथम नाद फिर आए शब्द छिपा रव में रहस्यमयी अर्थ। आरोह-अवरोह राग है इनमें सात स्वरों का साथ है इनमें।   भावनाओं से ओत-प्रोत हैं ऊर्जा का अद्भुत स्रोत हैं। मंत्रों की महान महिमा है गायन शैली की

हौले-हौले लौट रहा जीवन अपनी पटरी पर। विकास की कली खिलेगी तमस के सीने पर।   भय जीवन का धर्म नहीं कर्म से जीवन बंधा। सुरक्षा का लेकर सहारा हर हाथ आगे को बढ़ा।   धीरे-धीरे सूरज लौटा हर-घर की च

करो मत बेरहमी इन सूखे पत्तों पर ये भी कभी हरे थे खेत- खलिहान घर-द्वार को संभाले मजबूती से खड़े थे।   इठलाते थे ऊंचे दरख्त पर हवा के झोकों के संग मुस्कुराते थे। युवकीय ऊर्जा से परिपूर्ण बैठकर

सम्मानों की पोटली में हड़कंप मचा है हर कोई आज इसको आजमाने चला है।   इसकी आड़ में पनप रहे हैं धंधे बेरोजगारों को रोजगार मिल रहा है। खुली हैं दुकानें सरेआम मुंह सिल चुके हैं दरवाजों से झांक र

वतन की ऊर्जा हिये में हर्षाये हरेक प्रकोष्ठ में धरा के समाये। रंग-रूप रीति-नीति धर्म-कर्म संग जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।   सांसों में थामे कस्बाई हवा को उड़ चले सातों समंदर के पार। कु

(1) धरती का अमोल रत्न हूँ मैं जल-कल और हल हूँ। चलता जीवन मेरे सहारे हरेक जीव का मैं बल हूँ।   एक बूंद को तरसती दुनिया ग्रीष्म से तड़पती दुनिया।               पक्षियों ने तोड़ा प्यास से दम     

ये बात उस जमाने की है जब नहीं था बेतार का तार। पर जुड़े थे मन के तार मन से मन के लिए मन को मिल जाता था संदेश। तार जुड़ते थे आत्मीयता के हिलोरों से हृदय हरिया जाता था।   ये बात उस जमाने की है

तुम चले हो मिटाने नारी का वजूद। कहाँ तक मिटा पाओगे कहाँ-कहाँ नहीं है उसका वजूद।   दरवाजों की चरमराहट में खिड़कियों की खड़खड़ाहट में बरतनों के ठनकने में चूड़ियों के खनकने में। कहाँ तक मिटा पाओ

(1) हरी भरी घास में फूलों के अंग में धरती के संग में उड़ती पतंग में   ये कौन...रंग भरा रहा ये कौन प्रेम...कर रहा ये कौन...........? ये कौन कलाकार है ये कौन कर्मकार है।   (2) नीले आकाश में

(1) प्रेम की क्यारी नारी स्नेह भरी अद्भुत फुलवारी। मां सीता सम देती परीक्षा जनक की जानकी दुलारी।   संघर्षों में पली बड़ी गुलाब की कोमल कली। हार न उसने मानी कभी सदैव ऊर्जावान रही।   वाणी के

वसंत लेकर आया शोर वन वन नाच रहे हैं मोर। नीरव स्वच्छ आकाश में होड़ लगी है चारों ओर।   पीली साड़ी पहने सरसों देखो खड़ी खेत में। अलसाये से अलक उसके चमकीली सी धूप में।   नहा रहा बाल गोपाल सौंध

परहित धरती का कण-कण प्राणोत्सर्ग को तैयार। केवल मानव ही करता स्वयं अपनी काया से प्यार।   लघु प्राणी तृण को देखो पैरों से कुचला जाता है। ऊर्जावान हमें बनाकर स्वयं प्रसन्न हो जाता है।   सूर्य

लगी भीड़ गद्दारों की मेरे भारत देश में। छिपा यहाँ हर कोई न जाने किस भेष में।   खाते हैं जिस थाली में छेद उसी में करते हैं। भोजन गिरता थाली से नीचे फिर उस पर लपकते हैं।   रखे ताक पर शिक्षा को

पंखुड़ी गुलाब की झूल रही डाल से। जुड़ने को मचल रही अपने परिवार से।   ढुलका दिया हवा ने पत्तों के आसपास। श्वास उसकी चल रही मजबूत थी उसकी पकड़।   नाज़ुक कोमल सी पंखुड़ी ऊर्जित थीं उसकी शिराएं

उड़ती पवन पंछियों संग उस पार सरहद के चली। न रोके कोई न टोके कोई गुनगुनाती चली मुस्कुराती चली। उस पार सरहद के चली।   नदिया से मिलकर सागर पे लेटी बालू के कण कुछ लेती चली। इत्र उड़ाएं पंख फैलाए

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