यह बात लगभग जाहिर ही है कि कई मामलों में 'गैर सरकारी संगठन' देश विरोधी कार्यों तक में लिप्त पाये गए हैं तो कई ऐसे भी एनजीओ हैं जो नाम के तो एनजीओ हैं लेकिन उनका ऑपेरशन किसी 'प्राइवेट लिमिटेड' कंपनी से भी गया गुजरा है. मैं खुद कई ऐसी एनजीओ मालिकों को जानता हूँ जो देश-विदेश से दान तो मानवता की भलाई वाले कार्यों के लिए लेते हैं, किन्तु अंततः वह अपनी भलाई और मलाई का जुगाड़ उस एनजीओ के पैसों से बखूबी करते हैं. चूंकि इसमें काफी मोटी मछलियां रही हैं तो क्या मजाल कि उन पर कानून हाथ डाल दे! वैसे भी उनके कागज-पत्रों को ठीक ढंग से सहेजना किसी कृपापात्र-सीए के लिए भला कौन सी बड़ी बात है? इस क्रम में, एनजीओ (NGO Registration in India) की बढती मनमानी को देखते हुए केंद्र सरकार ने उन पर लगाम लगाने की मुहिम शुरू की, जिसका कई जगहों पर देश में तो विरोध हुआ ही विदेशी भी खूब दबाव बनाते रहे. ग्रीनपीस फाउंडेशन का मामला हम जानते ही हैं, तो ताजा उदहारण है गुजरात की सामाजिक कार्यकर्ता कही जाने वालीं तीस्ता सीतलवाड़ के एनजीओ ‘सबरंग ट्रस्ट’ का! इस एनजीओ ‘सबरंग ट्रस्ट’ के संचालक तीस्ता और उनके पति जावेद आनंद हैं. तीस्ता सीतलवाड़ के इस एनजीओ पर एफसीआरए के 6 नियमों के उलंघन्न का आरोप है, जिसमें विदेश से आने वाले पैसे को एनजीओ के मुख्य उद्देश्य से नहीं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर खर्च किया जा रहा है. जाहिर तौर पर यह एक नैतिक कुकृत्य तो है ही साथ ही साथ कानूनी रूप से भी सही नहीं है. इसीलिए गृह मंत्रालय के द्वारा इस एनजीओ का एफसीआरए लाइसेंस रद्द किया गया है. इसके बाद यह एनजीओ विदेश से दी गई कोई भी धनराशि प्राप्त नही कर सकता है. जाहिर तौर पर यह बिलकुल उचित है. आखिर, देश में सेवा करने के लिए विदेशी पूँजी की आवश्यकता 'सबरंग' जैसे इन गैर-सरकारी संगठनों को किसलिए पड़ती है, यह बात समझ से पुरी तरह बाहर है.
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सिर्फ 'सबरंग' ही नहीं, बल्कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद 13,700 से अधिक भारतीय और विदेशी एनजीओ के एफसीआरए लाइसेंस को रद्द किया गया है. आप समझ सकते हैं कि इतनी बड़ी मात्रा में यह सारे संगठन कौन सी मानवता की भलाई कर रहे होंगे! बेशक तीस्ता शीतलवाड़ और उनके पति लाख सफाई दें कि एनजीओ की धनराशि एनजीओ के मद में ही की गयी है, लेकिन जिस प्रकार की लग्जरी लाइफस्टाइल इन जैसे लोगों की होती है तो उससे साफ़ समझ आ जाता है कि इन लोगों के लिए 'भलाई और मलाई' में कोई ख़ास फर्क नहीं है. गृह मंत्रालय के अनुसार 'सबरंग ट्रस्ट’ को प्रशासनिक खर्चों के लिए मिले विदेशी धन का 55 से 65 फीसदी खर्च कर दिया गया है, जबकि एफसीआरए के नियमानुसार यदि किसी एनजीओ का प्रसाशनिक खर्च विदेशी धन (Funds from foreign in Indian NGO) नहीं विदेशी पैसों का इस्तेमाल होटल में खाने, बाहर से घर पर खाना मंगाने, प्रीमियम दुकानों से केक और मिठाई खरीदने के साथ-साथ और भी कई व्यक्तिगत समान खरीदने में हुआ है, जो आला दर्जे की अनैतिकता है. बताते चलें कि सबरंग ट्रस्ट का पंजीकरण समाजिक और शिक्षा के लिए हुआ है, लेकिन इसकी हकीकत तो कुछ और ही सामने आयी है. इतना सब होने के बावजूद एनजीओ को निजी सुनवाई का मौका दिया गया, जिसके बाद एनजीओ ने जवाब और दस्तावेज उपलब्ध कराए गए, जिसमे स्पष्टीकरण की कमी थी तो जो कारण उपलब्ध कराये गए वह संतोषजनक नहीं थे.
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जाहिर है सरकार ने अपनी ओर से नरमी बरती लेकिन जब गैर सरकारी संगठन ही अपनी मर्यादा भूलने लगें तो कोई क्या करे! यह भी दुर्भाग्य ही है कि 'सबरंग' के संचालक अपने आप को सही साबित करने की जगह गृह मंत्रालय को ही चुनौती दे रहे हैं. इसके कर्ताधर्ताओं ने इतना सब होने के बावजूद सरकार को गलत और अपने आप को सही ठहराया है तो उनकी मानसिकता स्वतः ही उजागर हो जाती है. फिर भी इस एनजीओ के लिए तमाम आदालतें हैं और वह उनमें अपनी अर्जी दाखिल कर सकती है, किन्तु इससे जुड़े लोग ऐसी मूर्खता शायद ही करें क्योंकि पहले ही वह दोषी साबित हो चुके हैं. गौरतलब है कि 2002 के गुजरात दंगों के मामलों में सक्रिय रहीं तीस्ता मोदी सरकार (Gujarat riots and their controversies) की कटु आलोचक भी हैं. शायद इसलिए सरकार ने उन्हें अपने बचाव का भरपूर मौका भी दिया ताकि कोई उस पर पक्षपात का आरोप चस्पा न कर सके, किन्तु राजनीति करने वालों को सच-झूठ से कम मतलब होता है भला! अब जबकि तीस्ता के एनजीओ सबरंग ट्रस्ट के एफसीआरए पंजीकरण रद्द हो गया है तब उनको लग रहा है कि केंद्र सरकार के बदलने से उनके साथ ऐसा हुआ है. तो क्या देश के लगभग 13000 एनजीओ मोदी विरोधी ही हैं और क्या सरकार मूर्ख है कि वह बिना ठोस दस्तावेजों के 'सबरंग' को घेरे में ले रही है? साफ़ है कि इस मामले में तीस्ता 'उल्टा चोर कोतवाल को डांटे' वाली राह पर चल रही हैं. आखिर किस यह पता नहीं है कि लगभग 90 फीसदी एनजीओ टैक्स नहीं भरते हैं तो आय और चंदे का विवरण शेयर करने में भी उन्हें खासी तकलीफ होती है. तीस्ता की तरह हज़ारों हजार लोग एनजीओ चलाने की आड़ में चंदे के पैसों से ऐश की जिन्दगी जी रहे हैं. साफ़ है कि सरकार को इस प्रकार की मनमानियों पर लगाम लगाना ही था और केंद्र सरकार इसलिए भी साधुवाद की पात्र है, क्योंकि उसने पूरी तैयारी के साथ यह कार्य किया. उम्मीद की जानी चाहिए कि देश में अब जितने भी एनजीओ हैं, वह सब 'सबरंग' प्रकरण से सीख लेंगे, अन्यथा उनको भी समाज के सामने वैसे ही उजागर किया जाना चाहिए, जिस प्रकार आज तीस्ता शीतलवाड़ हुई हैं.