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सिमरन रब्बी मनोवृत्ति है

30 अक्टूबर 2021

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🌷🌹"सिमरन रब्बी मनोवृत्ति है"🌹🌷

श्रीरामचरितमानस में कवि शिरोमणि तुलसीदास जी ने सिमरन की महत्ता का सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया है:
कलयुग केवल नाम आधारा।
सिमर-सिमर नर उतरहिं पारा।
अतः भक्ति का एक बेहद महत्वपूर्ण अंग है सिमरन। इसके बारे में गुरु-पीर-पैगंबरों ने जिक्र किया है कि:
श्वास-श्वास सिमरो गोबिन्द, मन अंतर की उतरे चिंद।
हर श्वास में सिमरन करना है, रब्बी अहसास की मनोवृत्ति ही असली सिमरन है।
हर आध्यात्मिक ग्रंथ में इस बात का जिक्र है कि असल में सिमरन है क्या और क्या नहीं है? सिमरन से जुड़ी कुछ बातें हैं रटन आदि करना जैसे तोते या कबूतरों का वो उदाहरण कि शिकारी आएगा, दाना(चुग्गा) डालेगा, जाल बिछाएगा लेकिन हम नहीं फंसेंगे और लालचवश चुग्गे के चक्कर में सारे ही फंस जाते हैं। रटना यानिकि बार-बार किसी शब्द का उच्चारण करना है, क्या इसे सिमरन कह सकते है? इन्हीं बातों को लेकर ग्रंथों में यह कहना पड़ा कि:
श्वास श्वास हरि को भजें, वृथा श्वास न खोये।
क्या जाने इस श्वास का, आवन होये न होये।
माला तो कर में फिरे , जीभ फिरे मुख माहीं।
मनवा तो दह दिस फिरे, ये तो सिमरन नाहीं।
कहने का अर्थ है कि मन कहीं और है, जुबान कुछ और बोल रही है, यह तो कदाचित सिमरन नहीं है। "सिमरन महज़ रटन नहीं बल्कि रब के साथ इकमिकता वाली मनोस्थिति है।" इन्हीं भावों को लेकर सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने आशीर्वाद वचनों में फ़रमाया कि जो भक्त है, वह हर समय इस निरंकार के एहसास में अपने जीवन की यात्रा को तय करता है, तो उसका हर श्वास ही सिमरन हो जाता है। सिमरन - केवल ज़ुबान से नहीं, बल्कि मन से

सत्गुरु बाबाजी ने जिक्र किया है कि कई बार हम जुबान से सिमरन करते हैं लेकिन मन कहीं और होता है। सच्चे पातशाह ने एक भिखारी की मिसाल देते हुए कहा कि सड़क के किनारे बैठा भिखारी बड़े जोरों से कोई नाम ले रहा है। राम-राम, अल्लाह-अल्लाह बोल रहा है तो सुनने वाला यह समझ लेता है कि शायद यह सिमरन कर रहा है। लेकिन उस भिखारी की मानसिक अवस्था को अगर देखा जाए तो वो यह देख रहा होता है कि किसका ध्यान मेरी तरफ हो रहा है, कौन-कौन मेरी तरफ आ रहा है, अपनी जेब में हाथ डाल रहा है कि नहीं, मेरे कासे में कुछ डाल रहा है कि नहीं। तो जुबान से तो वह नाम ले रहा है, लेकिन मन कहीं और है तो बाबाजी ने कहा कि - ये तो कदापि सिमरन नहीं है। सिमरन तो मन से होता है।


सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज ने फिर एक दूसरी मिसाल देते हुए कहा कि कई बार मन से तो सिमरन हो रहा होता है लेकिन जुबान वह नाम नहीं ले पा रही होती है। उसके लिए फिर बाबाजी ने एक मिसाल दूध पी रहे बच्चे की दी कि एक बच्चा है, उसको भूख लगी है, वह दूध-दूध कह रहा है, और जब उसे गिलास भरके दूध दे दिया जाता है तो वह दूध पी रहा होता है, दूध गले में है, अब वह दूध-दूध नहीं कह पा रहा है, लेकिन वह दूध को ग्रहण कर रहा है। अगर कोई यह कहे, कि यह तो दूध का नाम नहीं ले रहा तो वह बात नहीं है, क्योंकि वह तो दूध को ग्रहण कर रहा है। कहने का भाव है कि भले ही जुबान हरि नाम का उच्चारण नहीं कर रही है लेकिन मन का नाता इस निरंकार के साथ जुड़ा हुआ है, असल में तो यही  सिमरन है। इसके विपरीत, एक सिमरन है जुबान से, जिसमें मन कहीं और है, अतः ये सिमरन नहीं है। जबकि दूसरा सिमरन मन से है जिसमें जुबान नाम नहीं ले पा रही है, पर फिर भी सिमरन हो रहा है।
सिमरन की सुधि यूँ करो, ज्यों गागर पनिहार।
हिलत दुलत हर हाल में, कहत कबीर विचार।
माला फेरत जुग गया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डाल दे, मन का मनका फेर।

सिमरन की पहचान कर्मों से ही संभव है। अब सवाल ये उठता है कि कैसे पता चले कि हमारी मनोवृत्ति इस निरंकार प्रभु के साथ जुड़ी हुई है कि नहीं? इस बाबत, सत्गुरु बाबाजी ने एक बल्ब की मिसाल दी कि जैसे एक बल्ब रोशन है और उस बल्ब की रोशनी यह बता रही है कि इसका नाता बिजली के साथ जुड़ा हुआ है और अगर किसी बल्ब से रोशनी नहीं आ रही है तो भी यह पता चल जाता है कि इसका नाता बिजली से टूटा हुआ है। इसी तरीके से एक गुरसिख है, गुरसिख के जीवन में अगर वचन मीठे हैं, कर्म नेक हैं, मन परोपकारी है और किसी का दिल नहीं दुखाया जा रहा है, अमानत में खयानत नहीं हो रही है, तो इसका भाव है कि मन का नाता इस निरंकार के साथ जुड़ा हुआ है। जबकि दूसरी तरफ अगर वचन कड़वे हो गए हैं, कर्म नेक नहीं रहे हैं, मन परोपकारी नहीं रहा है तो फिर यह इस बात का संकेत है कि मन का नाता निरंकार से टूटा हुआ है, भले ही जुबान से हरि का नाम निरन्तर लिए जा रहा हो। सिमरन दिल के गहरे भावों का विषय है। सत्गुरू बाबाजी ने अपने आशीष प्रवचनों में फ़रमाया कि:


“सिमरन में भाव भी हों, नहीं तो सिर्फ अल्फाज ही रह जाएंगे।”
दरअसल सिमरन एक भाव ही है  क्योंकि शहंशाह बाबा अवतार सिंह जी महाराज ने भी अपने वचनों में भी जिक्र किया, कि एक मां बैठकर अपने बेटे का नाम नहीं लेती रहती बल्कि उस मां का ध्यान हरपल अपने बच्चे की तरफ ही होता है कि वह सो रहा होगा, वह खेल रहा होगा, और उसको किस चीज की जरूरत है। इसी तरह शहनशाह जी ने जिक्र किया कि एक पत्नी कभी भी बैठकर पति-पति नहीं रटती है, बल्कि पति की प्रेमयुक्त सेवा में सदैव तल्लीन रहती है। अतः जब भी सिमरन की बात होती है तो हीर की मिसाल आती है कि
रांझा-रांझा करदी नी मैं, आपे रांझा होई।
इसमें भाव यह नहीं है कि हीर बैठकर रांझा-रांझा कह रही है, जुबान से तो हो सकता है, बिल्कुल भी ना कह रही हो, लेकिन मन जो है, वह रांझे के साथ जुड़ा हुआ है। तो इस तरीके से सत्गुरु बाबाजी ने सिमरन का जो भाव है, उसका जिक्र किया कि हरपल मन में इस निरंकार प्रभु का एहसास बसा हुआ होना।
याद उसी की तो आती है, जो खुद से दूर हो।
मिलने का न आसार हो, दिल भी मजबूर हो।
यार हो गर दिल में,'मोहन' तो क्यों याद करें।
प्यार ही प्यार हो जहां, बस इश्क़-ए-शरूर हो।
तू ही निरंकार: सिमरन का जो पहला भाव है, "तू ही निरंकार",  यह भाव मन में हमेशा रहे कि तू ही है, तेरे सिवाय कुछ और नहीं है।
सुख इसमें नहीं कि तुम भी हो।
सुख इसमें है कि सिर्फ़ तुम्हीं हो।
यानि कि दो चीजें नहीं हैं - एक संसार और एक निरंकार - यहाँ केवल निरंकार ही है और सारी सृष्टि इसका बदला हुआ रूप है, जिसे हम कहते हैं कि तेरा रूप है यह संसार। यह संसार तेरा बदला हुआ रूप है। अतः रब्बी वाणी में भी कहा गया है कि:
अवलि अलहि ते नूर उपाया, कुदरत दे सभु बंदे।
एक नूर ते सब जग उपजया, कौन भले को मंदे।
दरअसल इस बात में बहुत ही बड़ा फर्क है कि "तू भी है, या तू ही है।" जब हम यह कह रहे होते हैं कि तू भी है तो इसका मतलब यह है कि दो या अधिक चीजें हैं। संसार भी है और तू भी है, सृष्टि भी है और तू भी है। लेकिन यह भाव बहुत ऊंचा भाव है, कि तू ही है और सिमरन में इस भाव को लेकर आना, यह भाव बनना कि तू ही है और कुछ नहीं है, यह बहुत ही महत्वपूर्ण है।
तूं तूं करता तूं भया, किछु मुझमें रही न हूं।
आपा परका मिट गया, जित देखूं तित तूं।
सारी सृष्टि को इस निरंकार प्रभु परमात्मा का रूप देखना और फिर खुद को भी निरंकार का ही रूप देखना। जैसे मिसाल के तौर पर एक सुनार की दुकान में अगर किसी से पूछा जाए कि यहां क्या-क्या पड़ा है, तो बहुत सारे लोग गिनकर बताएंगे, कि इतनी चूड़ियां हैं, इतने हार हैं, इतने कांटे हैं। लेकिन दूसरी दृष्टि से जब देखा जाए, तो दुकान के अंदर कुछ भी नहीं है, सिर्फ सोना ही सोना है क्योंकि वह सारी चीजें सोने का ही बदला हुआ रूप हैं। इस प्रकार जो ये निरंकार प्रभु परमात्मा है यही सारी सृष्टि का मूल है, आधार है और इस दृष्टि से देखना कि सारी सृष्टि तेरा ही रूप है, तूही है, यह सिमरन का पहला भाव है।
मैं तेरी शरण हां: सिमरन का जो दूसरा भाव है, कि मैं तेरी शरण हां, इसके पीछे भी बहुत गहरा भाव छुपा हुआ है कि क्योंकि केवल तू ही है, और तो कुछ है ही नहीं, मैं भी नहीं। इसलिए जो भाव है कि मेरी कोई कामना नहीं है, मेरी कोई इच्छा नहीं है, मैं तेरी रज़ा में राज़ी हूँ। जैसे ही हम कोई कामना करते हैं, इस निरंकार से अलग हो जाते हैं और जैसे ही हम इसकी रज़ा में आते हैं, तो इसके साथ एक होकर मन की अवस्था बनती है। सत्गुरु बाबाजी ने ऐसी ही मनोवृत्ति को संपूर्ण हरदेव वाणी में दर्ज किया है:
प्रभु इच्छा को अपनी इच्छा, प्रभु भक्तों ने माना है।
पूर्ण का है सब कुछ पूर्ण, ऐसा करके जाना है।
और
निरंकार को गुरू से जो भी, जाना है पहचाना है।
इसमें इकमिक हो जाना ही, असल में इसको पाना है।
सिमरन रूपी अहसास की ऐसी ही अवस्था का जिक्र है कि जब तेरी रज़ा में मेरी खुशी शामिल हो गई, तो मैं तेरी शरण में हो गया, मेरी कोई कामना नहीं है, मेरा कोई अपना अलग ध्यान नहीं है, मैं हूँ ही नहीं। तो फिर इस निरंकार प्रभु परमात्मा की रज़ा में चलना, जिसको कहा है कि
‘हुकुम रज़ाई चलना नानक लिखिया नाल।’
यही अवस्था "मैं तेरी शरण" वाली अवस्था है।
सिमरन का तीसरा भाव है मैनू बक्श लो दरअसल, जबतक यह ब्रह्मदृष्टि बनी रहती है, इस संसार को निरंकार का रूप देखकर विचरण करते हैं, तब तक भूले नहीं होतीं हैं। इसलिए बाबाजी ने कहा भी है कि:
मिट जाएगा गुनाहों का, तसव्वुर वहां से।
आ जाए गर यकीं, कि कोई मुझे देख रहा है।
फिर कोई गुनाह नहीं होंगे, फिर कोई भूलें नहीं होंगी, अगर यह यकीन आ जाए कि निरंकार प्रभु परमात्मा मुझे देख रहा है, यानि कि इसकी रोशनी में चलना आ जाए। जैसे सूरज की मिसाल है, कि जब तक हम सूरज की रोशनी में चलते हैं, रोशनी का सहारा लेते हैं, तो ठोकर नहीं खाते हैं, लेकिन जैसे ही नजरें रोशनी से इधर-उधर होती हैं, ध्यान भटकता है तो रोशनी होते हुए भी इंसान ठोकर खा जाता है। ऐसे ही इस ज्ञान के प्रति जागृत होते हुए जबतक यह ब्रह्मदृष्टि बनी रहती है जैसाकि भगवान कृष्ण ने गीता में कहा -
"जो मुझको सबमें देखता है और सबको मुझमें देखता है, उससे मैं कभी दूर नहीं होता हूँ।"
जैसे ही यह दृष्टि आंखों से ओझल होती है, तो फिर जो भूलें होती हैं, फिर जो कर्म होते हैं, जो कड़वे वचन बोले जाते हैं, उन भूलों को बख्शवाने के लिए फिर गुरसिख कहता है, कि मैंनू बक्श लो, यही भक्ति का आधार है।
सिमरन हरपल कैसे हो: अक्सर ही यह कहा जाता है कि सिमरन हरपल करना है, सिमरन आठों पहर करना है, तो फिर यह जुबान से तो हो नहीं सकता, तो फिर किस तरीके से करना है, कैसे इन वचनों के ऊपर फूल चढ़ाने हैं, इसके लिए सत्गुरु माता सविंदर हरदेव जी महाराज ने बहुत सुंदर तरीका बताया कि,  परमात्मा का ध्यान ऐसे करना है जैसे हम सूरज की रोशनी का करते हैं। सूरज का ध्यान हम इस तरीके से नहीं करते कि बारम्बार सूरज को देखते रहते हैं, या सूरज का नाम लेते रहते हैं, बल्कि सूरज की रोशनी का हम हमेशा इस्तेमाल करते हैं और हर चीज रोशनी के कारण ही हम देख पाते हैं। इस बात का एहसास हमें बना रहता है कि सूरज निकला हुआ है और सूरज की रोशनी के कारण ही हम सब देख पा रहे हैं। इसी तरीके से यह निरंकार प्रभु परमात्मा है, इसका एहसास और इसके ज्ञान के अंतर्गत जीवन की यात्रा को तय करना, इस निरंकार के ज्ञान के अंतर्गत वचन बोलने, इस निरंकार के ज्ञान के अंतर्गत ही हर कदम जीवन का उठाना, ऐसी ही अवस्था हरपल सिमरन है।

सत्संग-सेवा-सुमिरन किस भाव से करना है – इस विषय पर सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी महाराज के पावन प्रवचन …चाहे वो सेवा है, चाहे सत्संग है, चाहे सुमिरन है इन्हें प्रेमभाव और निष्काम भाव से करना है। अगर सुमिरन भी करना है तो केवल इसलिए नहीं, कि दातार से कुछ मांगना ही है कि दातार मेरा काम बन जाए, मेरे परिवार का कल्याण हो जाए, मेरा यह हो जाए मेरा वो हो जाए, इसलिए नहीं।  याद भी इसकी इसलिए कि दातार तू ही सब कुछ है, मैं तेरी ही अंश हूं, तू मेरा मूल है। इसी तरह इस निराकार दातार का अहसास रूपी सिमरन भी किसी कामना के तहत नहीं, बल्कि पूर्णतः समर्पित होकर निष्काम भाव और प्रेमभाव से। इसी प्रकार से सत्संग भी, यह नहीं कि चलो सत्संग करते हैं, कहीं पर हमारे कनेक्शन बनेंगे और मेरा यह दुनियावी काम हो जाएगा, किसी ना किसी के द्वारा। इस प्रकार सत्संग कोई कामनापूर्ति के लिए नहीं, अपितु सेवा का भाव एवं सिमरन की तलब भी बढ़ती है और सिमरन के लिए उत्प्रेरक भी है, वो भी केवल और केवल सत्संग की अहमियत को जानते हुए, कि ये संगति पार उतारा करती है, ये हमारे मन को बार-बार सुंदर विचार प्रदान करती है। तो सत्संग भी निष्काम एवं प्रेमभाव से तथा इसी प्रकार से सेवा भी निष्काम एवं प्रेमभाव से, उसमें कामना नहीं, जैसे कबीरजी ने भी एक स्थान पर कहा है कि:


फल कारण सेवा करे, तजे न मन से काम।


कहे कबीर सेवक नहीं, चाहें चौगुना दाम।
कहते हैं कि ये चौगुना दाम चाहता है, कि मैंने ये सेवा की है सिमरन किया है उसके बदले में मुझे चौगुना प्राप्त हो जाए यही कह रहे हैं कि फल कारण सेवा सिमरन करे, फल के कारण नहीं।  जो भी खुद समर्पित भाव से अर्पित होता है और फिर किए हुए का मान भी नहीं करता है कि मैं करता हूं। जैसे कहा भी गया है कि "तू करता है जगत का तू सबका आधार" कि तू करता है मैं करने वाला नहीं हूं।

“अपना किया कछु ना होए, करे राम होए है सोए।”


सिमरन में ये भाव बरकरार रहे कि दातार तूही करने वाला है यह दातें भी तेरी है और कर भी तू रहा है, नाम मेरा हो रहा है, मैं क्या देने वाला हूं किसी को:
करन-करावन आपे आप, मानुष के नहीं किछु हाथ..
ये तूही है जो तेरी कृपा है, जोकि सेवा, सिमरन एक गुरसिख समर्पित होकर निष्काम एवं प्रेम भाव से कर रहा है और उसका अभिमान भी नहीं कर रहा है, बड़ी सी बड़ी देन देकर भी, फिर भी, खामोश रहकर दातार का शुक्र कर रहा है। तो इस प्रकार ये तन मन धन की सेवा, ये सिमरन, ये सत्संग भक्ति के ऐसे महत्वपूर्ण अंग, यही भक्त हमेशा निभाने के लिए हमेशा उत्साहित रहता है, अतः सिमरन, सेवा व सत्संग एक गुरसिख की मनोवृत्ति के मुख्य अलौकिक कारक एवं गुरमत के सोपान हैं, जो सदैव ही दूसरों की खूबियों से प्रेरणा और ख़ामियों से नसीहत लेते रहते हैं और इस निरंकार प्रभु परमात्मा को अहसास में रखते हुए, रूहानियत का लुत्फ़ उठाते हुए, इहलोक सुखी एवं परलोक सुहैला कर लेते हैं...
इक-दूजे की खूबियों से ही नहीं, उनकी खामियों से भी प्यार करें।
प्यार भरा समां नज़र यह आए, हरेक शह में रब का दीदार करें।
नज़रों के बदलते ही तो 'मोहन', नये नज़ारों का रस हमसार करें।
रुख-ए-किश्ती गर बदल लें तो, भवसागर सहज़ ही पार करें।

🌺शुकर ऐ मेरे रहबरां🌺
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