🌷🌹"श्रेष्ठ कौन : बंदे या पशु-परिंदे"🌹🌷
मन पंछी मन बाबरा, उड़त फिरत चहुं ओर।
कबहु ये ठहरत नहीं, क्या दिन रात या भोर।
पंछी को भी 'मोहन', होती जरूरत बसेरे की।
ठहर जा रे बाबरे मन, उड़ने को न रह विभोर।
कहने को तो हम श्रेष्ठ मानव हैं, पर मानव जैसी बात नहीं।
बन्दे से बेहतर पशु-परिंदे हैं, जो करते किसी पे घात नहीं।
पशु-परिंदों की फ़ितरत तो, हमको कई बातें समझाती हैं।
यह रहते हैं निर्द्वन्द जहाँ में, इंसानों सम न विश्वासघाती हैं।
इंसानों को ही कहना पड़ता है, रे मानव तू मानव बन जा।
श्रेष्ठ योनि में तेरे पिशाच कर्म हैं, पशु-परिंदों से तू शिक्षा पा।
ये मानव जन्म श्रेष्ठ तभी है, नित मानवीय किरदार निभाएं।
पाकर गुरू से ब्रह्मज्ञान को, 'मोहन' गुरमत में जग महकाएं।
बारिश की बूंदों की फ़ितरत भी, कितनी अज़ीब सी होती है।
कहीं तड़प कहीं सुकूं देती है, ज़िंदगी में धूपछांव सी होती है।
पड़े गर सांप के मुंह में ये 'मोहन', तो घातक गरल ये होती है।
पड़े कदली में कपूर बने ये, जो पड़े सीप में बनती मोती है।
कभी हम गिरते-गिरते संभले, तो कभी बिखरते नज़र आये हम।
ज़िंदगी के हरएक मोड़ पर, ख़ुद में ही सिमटते नज़र आये हम।
यूं तो ज़माना कभी भी 'मोहन', हमको ख़रीद ही नहीं सकता।
मगर प्रेम के फ़क़्त दो लफ़्ज़ों में, खुद ही बिकते नज़र आये हम।
🌺शुकर ऐ मेरे रहबरां🌺
🙏धन निरंकार जी🙏