🌷🌹"मनमत अपनी छोड़ के रे मन, गुरमत को आधार बनाएं"🌹🌷
रे मन कोरा वजूद था तेरा, तुझे तो कोरा ही रहना था।
नित एकरस होके रहना था, पूर्ण सरस होके बहना था।
भांति-भांति के रंग में रंगके, भूला मूल जहां टिकना था।
मनमतंग तू मनमत में झूमा, वैसा ही तो फल मिलना था।
स्वर्णिम अवसर मिला रे बंदे, गुरमत भरा संसार सजाएं।
मनमत अपनी छोड़ के रे मन, गुरमत को आधार बनाएं।
जो सदा मूल में रहे स्थापित, विकार उन्हें न कभी सताते।
वे सहज-सरल सदा रहते हैं, शुकराने में हर श्वास बिताते।
प्यार नम्रता मिलवर्तन में रह, अपना सदा वे जीवन सजाते।
किरदार महकते होते उनके, औरों को भी हैं वे महकाते।
पर यह संभव तभी हो पाए, जे ब्रह्मज्ञान को सार बनाएं।
मनमत अपनी छोड़ के रे मन, गुरमत को आधार बनाएं।
मन पे चढ़े जे रंग गुरमत का,मनमत मिट जाती है सारी।
कठोर ह्रदय बन जाता मृदुल, मन भी बन जाए उपकारी।
कुटुंब नज़र आए जग सारा, दुनिया लगती है अति प्यारी।
मलिनता कहीं नज़र न आए, सज़-धज के महके फुलवारी।
'मोहन' की अरदास सत्गुरू से, गुरमतमय संसार बसाएं।
मनमत अपनी छोड़ के रे मन, गुरमत को आधार बनाएं।
🌺शुकर ऐ मेरे रहबरां🌺
🙏धन निरंकार जी🙏