🌷🌹"विविधा - सारे ही तो अपने हैं..."🌹🌷
बेहद खुशनसीब होते हैं वे ही, जिनके घर-अंगना गूंजे किलकारी।
पूछिए ज़रा उन बदनसीबों से भी, राह तकते शिशु की ताउम्र सारी।
किलकारी सुनने को कान तरसते, 'मोहन' चाहें बेटा या बेटी की हो।
शिशु जन्म से माँ-बाप हैं बनते, बिन बच्चे निरवंशिया नर-नारी।
बेटी के जन्म लेने पर, जो बन्दे नाखुश होते हैं।
अपने हाथों ही अपनी, किस्मत को वे खोते हैं।
बेटी जननीरूप है 'मोहन', जिससे जन्म लिया।
बेटी दिव्य स्वरूपा है, जिससे मकां घर होते हैं।
बेटी हर सिंगार है, बेटी ही लाल गुलाब।
बेटी सच करती है, दो कुनबों के ख्वाब।
बेटी ही होती माँ, 'मोहन' गुरु अवतारों की।
बेटी ममता प्रेम है, हर दुविधा का जबाब।
पिंजरे में औरत ने औरत को, देखो खूब फंसाया है।
बेटी व बहू में भेद है रखा, बहू को समझा पराया है।
औरत-औरत की शत्रु 'मोहन',घृणा-विष फैलाया है।
नहीं भूमिका मर्दों की कुछ, नारी-नारी को सताया है।
एक प्रभु की हैं हम सब संतानें, जिसने यह जगत सजाया है।
सारा जगत है एक ही कुनबा, सब अपने हैं न कोई पराया है।
जाति मज़हब सम्प्रदाय ने तो, 'मोहन' व्यर्थ ही रार बढ़ाया है।
सारे ही तो अपने हैं यहां पर, अपनत्व ही ये जहां महकाया है।
सत्गुरू ही है जग का माली, जिसने ये बूटा लगाया है।
सुख-दुःख नहीं सिर्फ़ आनंद है, ये बेग़मपुर बसाया है।
एक-दूजे की कदर सब करते, 'मोहन' प्रेमनगर है यह।
भेदभाव जहाँ नज़र न आए,वो जन्नत होती नुमाया है।
🌺मानव प्रभु की उत्तम रचना, उत्तम इसका रूतबा रखना🌺
🌺मानव बनकर मानवता का, फ़र्ज़ निभाते जाएं हम🌺
🌺मानव हो मानव को प्यारा, इक दूजे का बने सहारा🌺
🌺मानव की क़द्र करें दिल से, मानवता खिल उठे फिर से🌺
❣️शुकर ऐ मेरे रहबरां❣️
🙏धन निरंकार जी🙏