🌷🌹"मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ वरदान किस प्रकार हो!!"🌹🌷
कौन हूँ मैं ये यक्ष प्रश्न है, ये जानना बहुत जरूरी है।
मैं शरीर नहीं रूह हूँ 'मोहन',जो रब्बी नूर से नूरी है।
देखा जाए तो यह बेशकीमती मानव जीवन विभिन्न प्रकार के विकारों से भरा हुआ है और इन विकारों में इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन अहंकार है, या यूं कह सकते हैं कि अहंकार सारे विकारों की जननी है। इस अहंकार से ही मनुष्य की बुद्धि नष्ट व भ्रष्ट हो जाती है। अहंकार से ज्ञान का नाश हो जाता है। अहंकार होने से मनुष्य के सब काम बिगड़ जाते हैं। जब हम कामयाबी की और बढ़ते हैं तो हमारे साथ अहंकार भी बढ़ता है और जब हम असफल होते हैं तो अहंकार भी ख़त्म हो जाता है। जीवन में जब कोई सफलता अहंकार का कारण बने, समझ लेना कि आगे बढ़ने की सीमा ख़त्म हो चुकी है और अब हम यहाँ से सिर्फ़ नीचे ही जा सकते हैं। जब हम आसमान की बुलंदी पर होते हैं तो ज़मीन पर पैर नहीं पड़ते। लेकिन जब हम ज़मीन पर रहके आसमान को छूते हैं, तो हमारे पैरों तले से धरातल कभी नहीं खिसकता।
"जदों हंकार नूं छडिए, उदों निरंकार मिलदा ए..."
या फिर
"हौमें ताईं तज जेहड़ा भज आया गुर कोल, सुख माणे रज रज आसां होइयां पूरियां..."
अहंकार या बेख़ुदी का अहसास आत्मज्ञान के बाद ही संभव हो पाता है।
बेख़ुदी में गर रहें 'मोहन', तो खुदा का दीदार होता है।
क़ामिल मुर्शद मिले तो ही, अहसास-ए-प्यार होता है।
मिलता है हरपल सुकून, ये विश्व एक परिवार होता है।
शुकराने में बीते हर लम्हा, क़ायम भी ऐतबार होता है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जब ऊंचाई पर चढ़ना होता है तो झुककर आगे बढ़ना होता है, इसका मतलब है कि बुलंदी पर पहुंचने के लिए विनम्रता या हलीमी बेहद जरूरी है। जबकि ऊंचाई से नीचे उतरने के लिए अकड़कर चलना होता है, इसका सरल सा उत्तर है कि अकड़ यानी अहंकार आ गया जो हमें गहरी बुलंदी से गर्त में ढकेल रहा है। मानव जीवन श्रेष्ठ वरदान है क्योंकि कहा भी गया है कि "God create the man in HIS own image."
मानस जनम अनमोल है, मिलत न बारम्बारि।
ज्यों वन फल पाके भ्यूं गिरे,बहुरि न लागै डारि।
बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सध ग्रन्थहिं गावा।
ऐसा कभी नहीं होता है कि किसी का जीवन हमेशा ही इकसार हो, उतार-चढ़ाव जीवन के अंग हैं जो वक़्त के साथ बदलते रहने के कारण खुशी या गम प्रदान करते हैं।
वक़्त ने गर ज़ख्म दिए हैं तो, वक़्त ही मुफ़ीद मरहम है।
जीवन में मिले हुए ज़ख्मों पे, वक़्त ही आवे ज़मज़म है।
जीवन हो गर विकारहीन, दिव्यता भरे जीवन में 'मोहन'।
ज़ख्म न ज़ख्म रहते हैं फिर, ये जीवन होता स्वर्णिम है।
वक़्त के सांचे में जो ढल जाते हैं उनके जीवन में ठहराव मुकम्मिल हो जाता है। खाना-पीना, विलासिता एवं मौज़-मस्ती ही जीवन का लक्ष्य नहीं है, फिर क्या मक़सद है:
खाना पीना सोना होंदा, जीवन दा आधार नहीं।
भाड़ झोंक्या जो कुछ किता,जे जाणा निरंकार नहीं।
निद्रा भोजन भोग भय, यह पुरुख पशु समान।
ज्ञान अधिक ते नरन में, ज्ञान बिना पशु जान।
उल्लेखनीय है कि मानव जीवन में ज्ञान शब्द अध्यात्म के लिए ही इस्तेमाल किया गया है न कि सांसारिक उपलब्धियों की जानकारी के लिए। निरंकार की अज्ञानता ही इंसान होने के बावजूद भी पशु की श्रेणी में रखा गया है। "इंसां से तों पशु चंगेरे, जे करते किसी पे घात नहीं.."
रहिमन बहु भेषज करे, व्याधि न छाँड़त साथ।
खग मृग रहत अरोग बन, बिन अनाथ के नाथ।।
अतः यह सहजतापूर्वक ही महसूस किया जा सकता है कि पशु-पक्षियों, वनस्पतियों एवं अन्य जीवों में जीवन जीने की कला है, पूर्ण समर्पण है और पूर्णरूपेण इस निरंकार पर आश्रित हैं, इन्हें न कोई किसी तरह की फ़िक्र और न ही किसी तरह की कोई भी शिकवा-शिकायत। बेहद सादगीपूर्ण जीवन:
सुंदर सोंच व अहसास के, कुछ भी तो पासंग नहीं है।
यूं तो जीवन में हैं रंग अनेकों,पर भक्ति सम रंग नहीं है।
सिर्फ़ रब्बी भास श्रेष्ठ है,'मोहन' दूजी कोई तरंग नहीं है।
दुनिया के सब सहारे झूठे हैं, भक्ति के सम संग नहीं है।
हर मानव में सांसारिक एवं सामाजिक रूप से आगे बढ़ने की होड़, अज्ञानता का प्रतीक है जो इंसान को कहीं का नहीं छोड़ती है। जबकि तत्वज्ञान के बाद हर इंसान के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन अवश्य ही आता है और यह सोंच का परिवर्तन ही एक इंसान को आम से बेहद ख़ास बना देता है। ऐसे महात्मन की जरूरतें एवं हसरतें बिल्कुल ही सीमित हो जाती हैं तभी कह उठता है कि
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाये।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाये।
अब ऐसे समर्पित जीवन में कोई होड़ नहीं है, बस सबर और शुकर है इस निरंकार सत्गुरू दातार का।
काश! ज्ञान और अहसास में निरंकार बस जाए तो जीवन में बारे-न्यारे हैं, अलौकिकता है और आनंद ही आनंद है क्योंकि नाता इस निरंकार परमानंद के साथ निरंतर ही जुड़ा हुआ है।
बड़ा सरल है लक्ष्य को चुनना, पर तय कर पाना नहीं आसान।
असंभव भी हो संभव उनको, जिनके हौसले बुलंद पायदान।
समर्पित जीवन वे जीते 'मोहन', सतत प्रयास बनती पहचान।
वे लक्ष्य को पाते विश्व सजाते, बनते हैं धरा के वही वरदान।
आज हर इंसान तरह-तरह की समस्याओं से जूझ रहा है, मन बोझिल, तनावपूर्ण है और समाधान की तलाश में भटक रहा है। गर कोई समाधान बन जाए तो वो इंसान उस इंसान का मुरीद बन जाता है, प्रशंसक बनकर उसका अनुसरण करने लगता है।
ये ख़ुशी भरा जहान उसी का है, जो भी मुस्कुराना जानता है।
रोशनी से रोशन राह उसी की है,जो शमा जलाना जानता है।
यूं तो हर जगह ही हैं 'मोहन', मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे चर्च।
रब तो उसी का है जो गुरूदर पे,अपना सर झुकाना जानता है।
वास्तव में समस्या के प्रकटाव से पहले ही समाधान निर्धारित हो चुका होता है। जिस प्रकार जन्म लेने पहले ही जीवन की सारी गतिविधियां तय हो चुकी होती हैं उसी तरह समस्याओं का समाधान भी समस्याओं के आने से पहले ही निर्धारित हो चुका होता है: "प्रारब्ध पहले बनी, पाछे बना शरीर। तुलसी ये सब अचरज़ है, पर मन न माने धीर।।" पहले ऋषि मुनि आत्मयोग द्वारा अंतर्मन से यही विधि अपनाते थे और हर समस्या का निदान या समाधान उनके पास होता था।
खुद में ही खुद की तलाश, जब तक न होगी पूरी।
अमन-ओ-चैन न मिलेगा, हर चाहत रहेगी अधूरी।
खुद में खुद को पा लिया,'मोहन' रब को पा लिया।
फिर पूरी खलकत एक है, हर शै ही नज़र हो नूरी।
कालांतर, आधुनिकता की चकाचौंध में सोंच परिवर्तन होता चला गया और आत्मयोग की जगह विज्ञानयोग ने हासिल कर ली और व्यक्ति विशेष अब विज्ञानयोग में ऐसा उलझ गया कि आत्मयोग गर्त में समा गया।
आज सत्गुरू विज्ञानयोग को आत्मयोग के साथ जोड़कर, अहसास दिलाकर आत्मा का संयुग्मन इस निरंकार के साथ कर दिया है। अतः अब वर्तमान में आत्मयोग के द्वारा ही यह बात समझ में आती है कि विज्ञानयोग कुछ और नहीं अपितु आत्मयोग की ही एक शाखा मात्र है, जबकि विज्ञानयोग के अलावा, बहुत कुछ है जो आत्मयोग की छत्रछाया में विराजमान है, जरूरत इसे जानने की, समझने की और उपयोग में लाने की है। आत्मज्ञान ही हमें साधु-संगत की तरफ़ अग्रसर करता है, अतः "The company of enlightened Saints is the way to Blissfulness and Divinity." आत्मयोग उपयोग में आते ही समस्याओं का समाधान स्वतः ही फलित होता चला जाता है।
'मोहन' हर चमकदी वस्तु न होंदी सोना, हर बद्दल ते मेघ नहीं होंदा।
ग्राहक जो बणदा सच्चे गुणां दा, वो मेहराँ दा मोहताज़ नहीं होंदा।
इसके साथ ही, रब्बी महापुरुषों ने यह भी विश्लेषित किया है कि हर समस्या का समाधान, समस्या की जगह पर ही खड़ा होकर हंसता हुआ विस्मित होता है जबकि व्यक्ति विशेष समाधान की पहचान न होने के कारण हलकान परेशान इधर उधर घूमता है और दूसरों की ओर जिज्ञासु होकर समाधान पूछता घूमता है। इस समाधान की पहचान भी आत्मयोग द्वारा ही संभव है जिसे हासिल किया जा सकता है।
एक दिया जले घर अंदर, घर को रोशन भरपूर करे।
एक दिया मुंडेर द्वार पर, दरवाजे पथ तम दूर करे।
एक दीप चौराहे पे 'मोहन', राही मंजिल पुरनूर करे।
एक दिया जले मन अंदर, विकार मिटा नूरोनूर करे।
मानव जीवन विसंगतियों एवं विषमताओं से भरा हुआ है, खानपान, रहन-सहन एवं वेशभूषा को लेकर तरह-तरह की विचारधाराएं मन में व्याप्त हैं, जिनके कारण तरह-तरह के वाद-विवाद अक्सर ही देखने एवं महसूस करने को मिल जाते हैं और अनेकों अपवाद पनप उठते हैं, जिन्हें हम अक्सर ही विभिन्न रूपों में देखते रहते हैं।
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात हैं, ताको कौन हवाल।।
इस कबीरजी के शब्द का तात्पर्य यह है कि हमें सदैव ही बेहद चेतन रहते हुए जीवन यापन करना है, दुष्कर्मों एवं पापों से बचते हुए भक्ति में समर्पित बेहद सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करना है। भोज्य आहार भी व्यक्तिगत पसंदगी है। जिसे जहाँ जो भी उपलब्ध है और अच्छे स्वास्थ्य के लिए किन आवश्यक पोषक तत्वों की जरूरत है उसी अनुसार अपना आहार निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र है। किसी दूसरे को हम अपनी पसंदगी नहीं थोप सकते और न ही बाध्य कर सकते हैं बल्कि यही श्रेयस्कर है कि जो आपको पसंद है आप लीजिए और जो दूसरे को पसंद है, वो उसे मुबारक। शाकाहार या मांसाहार पर संपूर्ण अवतार वाणी 9ग में लिखा है कि "खानपान है तन दी ख़ातिर, रूह दा कोई सम्बंध नहीं..."
वैसे भी, यदि जीव-हत्या (मांसाहार) गलत है क्योंकि उसमें जान है तो वनस्पतियां जिन्हें हम विभिन्न रूपों में फलाहार या अन्न सब्जी दाल मसाले आदि रूप में इस्तेमाल करते हैं यह भी लख चौरासी योनियों के उतने ही हिस्से हैं जितने कि कथित मांसाहार। अतः शाकाहार या मांसाहार व्यर्थ के ही मुद्दे हैं, इसलिए मुझे केवल खुद को सत्गुरू वाणी पर केंद्रित करना है। संपूर्ण अवतार में कहा भी गया है कि
देशकाल ते समय मुताबिक, सत्गुरू जिवह चलान्दा ए।
हुक्म एहदा सिर मत्थे धर के, गुरसिख चलदा जांदा ए।
और
सत्गुरू दे उपदेश तों वड्डी, होंदी कोई वाणी नहीं।
मन अपने नूं भेंट चढ़ाना, इस तों वद्ध कुर्बानी नहीं।
अतः व्यक्तिगत तौर पर ऐसे अपवाद से बचना ही श्रेयस्कर है।
इसके साथ ही, हमारा तथाकथित समाज एक भक्त या गुरसिख को शाकाहार के चश्मे से देखना चाहता है अतः सार्वजनिक रूप से मांसाहार से बचना है परहेज़ करना है क्योंकि समाज वास्तविकता से अनजान है। व्यक्तिगत तौर पर व्यक्ति विशेष की अभिरुचि उसकी अपनी मर्जी है।
खानपान की तरह रहन-सहन भी इंसानियत में अपवाद है। भाषा, रुतबा, मज़हब-ओ-मिल्लत की दीवार, नस्लवाद, ऊंच-नीच, वेशभूषा या इसी तरह की अनेकों विसंगतियां जीवन की सहजता सरलता में रुकावट पैदा करती हैं, जबकि कहा गया है कि "We're the family of one Father, The Almighty Formless God." इसीलिए कहा गया है कि
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, इक ही रब दे बंदे ने।
बंदे समझ के प्यार है करना, चंगे भावें मंदे ने।
या फिर:
इक्को नूर है सभ दे अंदर, नर है चाहें नारी ए।
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य हरजन, इक दी ख़लकत सारी ए।
अतः यह मानव जन्म तभी श्रेष्ठ एवं वरदान साबित हो सकता है जबकि हम तत्वज्ञान द्वारा आत्मबोध को जान लें, सदा निरंकार को अहसास में रखें और गुरमत के साँचे में ढलकर भक्ति भरा जीवन व्यतीत करें। ऐसे ही जीवन में जब भक्ति से फलित प्रवाह निरंतर होता है, वही असल मानवता का प्रतीक समझा जाता है:
"सरिता सोई सराहिये, जो बारह मास लहराए..."
मानुस जीवन, प्रभु प्रेम एवं भक्ति की सर्वश्रेष्ठ मिसाल सूफी कवि सैयद रसखान जी ने प्रस्तुत की है:
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, बैठ कालिंदीकूल कदंब की डारन॥
अक्सर यह भी देखा गया है कि हर कोई तू तेरी मैं मेरी में लगा हुआ है जिससे सूक्ष्म अहंकार के सम्पुट भाव हैं और यह अहंकार हमें कभी विशाल बनने ही नहीं देता है लेकिन पूर्ण सत्गुरू द्वारा दिव्य सौगात स्वरूप तत्वज्ञान की भट्टी में अहंकार भस्म हो जाता है और तत्वज्ञान से ही निरंकार हरपल अंगसंग महसूस होता है। निरंकार के अहसास में रहने से ही सारे विकारों का नाश संभव है। यह श्रेष्ठ जीवन तो समाज, संसार एवं खुद के संवारने, सुधारने एवं कल्याण हेतु मिला है:
अयं निजपरोवेति परोवेति, गणना लघुचेतिसां।
उदारचरितानाम तु, बसुधैव कुटुम्बकम।
गुरसिखी की निरंतरता के लिए सदैव ही लवों पे सत्गुरू से अरदास रहे, असल में, जीवन की सार्थकता भी इसी में है:
नहीं है कोई भी हुनर मुझमें, ऐब हजारों ही हैं बेशक़।
बख्श के ख़ामियों को तू, खूबी में तब्दील कर देना।
अपनी हस्ती पे नज़र डालूं तो, खारे जल से बदत्तर।
अपनी रहमतों से मुझको, मीठी झील तू कर देना।
प्यार की हो जिन्हें जरूरत, बेशर्त मैं प्यार बांटूं 'मोहन'।
प्यासों की प्यास बुझा सकूँ, मुझे वो छबील कर देना।
और या फिर:
जिसने सत्गुरू से रब जान लिया,सिर्फ़ वही इंसान है।
मानव जीवन श्रेष्ठ वही है, जो दिव्यगुणों की खान है।
बिना तत्वज्ञान के 'मोहन', हर बंदा शैतान है हैवान है।
गुरमत पे चलने वाला बंदा ही, धरा पे श्रेष्ठ वरदान है।
🌺शुकर ऐ मेरे रहबरां🌺
🙏धन निरंकार जी।🙏