🌷🌹सिमरन का प्रभाव🌹🌷
मानाकि सुख-दुःख दो पहलू हैं, जिनसे बच न पाया कोई।
पीर पैग़ंबर वली अवतार ने भी, अनेकों कष्ट सहे हैं सोई।
पर पीर वलियों की मनोस्थिति में,'मोहन' आनंद समाया है।
हरहाल में इन्होंने लुत्फ़ लिए हैं, ये मर्म सिमरन का होई।
कहने को तो सभी ईश्वर को किसी न किसी रुप में अहसास में भी रखते हैं और याद भी करते हैं। प्रभु निरंकार को कभी भय के कारण याद करते हैं तो कभी भावविभोर होकर पूरे अहसास में भजते हैं। इन दोनों कारणों में भक्ति का रंग एक सा ही हो सकता है लेकिन तुलसीदास जी ने कहा है कि:
बिन देखे न होई परतीति, बिन परतीति न होवे प्रीति।
बिन प्रीत न भक्ति दृढ़ाई, ज्यों खगेश जल में चिकनाई।
तो बिना पूर्ण सत्गुरू के निरंकार को जाने तम व भ्रम में भय से व्याप्त भक्ति का कोई औचित्य ही नहीं है, इसके अलावा पूरे सत्गुरू के सान्निध्य में निरंकार के अहसास में बीता हरपल ही भक्ति है। कबीरजी ने निरंकार के स्मरण का तरीका कुछ इस प्रकार बयान किया है:
सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे नाद कुरंग।
कहैं कबीर बिसरै नहीं, प्रान तजै तिहि संग॥
सुमिरन सों मन लाइये, जैसे कीट भिरंग।
कबीर बिसारे आपको, होय जाय तिहि रंग॥
सुमिरन सों मन लाइये, जैसे दीप पतंग।
प्रान तजै छिन एक में, जरत न मोरै अंग॥
देखा जाए तो इस निरंकार को अहसास या स्मरण में रखना और याद करना एक जैसे दिखते हुए भी भाव रूप में बिल्कुल ही भिन्न हैं। अहसास या स्मरण तभी संभव हो सकता है जबकि तत्वरूप का ज्ञान और तत्वदर्शन हो गया हो। जबकि याद का शाब्दिक अर्थ जो अहसास में न हो किसी विशेष परिस्थिति में या व्यक्ति विशेष द्वारा कहने पर ईश्वर ध्यान में लाने का प्रयास ही याद है। याद अक्सर उसे ही किया जाता है जो दूर है, नजरों से ओझल है और काफी दिनों से मिलन नहीं हो पाया हो। उदाहरणार्थ, वो अक्सर ही लोगों को कहते सुनते हैं कि "आपकी बहुत याद आती है, या आपके दर्शनों की अभिलाषा हो रही है।" इसका मतलब अमुक व्यक्ति काफी दिनों से काफी दूर रह रहा है और मुलाकात नहीं हो पाई है तो मुलाकात के लिए व्याकुल भी हैं, अतः याद सता रही है। यह भक्ति भाव की बड़ी ही विचित्र स्थिति है। अतः कबीर जी ने इसी तरह की याद के बारे में फ़रमाया है कि:
न सुख में सिमरन किया, न दुःख में किया याद।
कहे कबीरता दास की, कौन सुने फ़रियाद।
दुःख में सिमरन सब करें, सुख में करे न कोये।
जो सुख में सिमरन करे, दुःख काहे को होये।
माला तो कर में फिरै, जिव्हा मुख माहीं।
मनवा तों चहुं दिसि फिरै, ये तो सिमरन नाहीं।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
जिन्हें पूर्ण सत्गुरू द्वारा तत्वज्ञान हो चुका है और निरंकार प्रभु का तत्वदर्शन कर लिया हो तो ऐसे सज्जन या भक्त के अहसास में निरंकार सदैव ही रहता है, अब जब निरंकार प्रभु सदा के लिए अहसास में बस गया है तो फिर याद करने की क्या जरूरत। अब तो ईश्वर सदा ही अंगसंग है, अंतःकरण में भी विराजमान है और दसों दिशाओं में इसी एक निरंकार प्रभु का दर्शन भी हो रहा है:
कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोई।
राम करें भल होइगा, नहिं तो भला न होई॥
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ।
आपा परका मिट गया, जित देखौं तित तूं॥
कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि।
जाके संग तैं बिछुड़िया, ताही के संग लागि॥
जबकि पूर्ण सत्गुरू द्वारा प्रदत्त तत्वज्ञान या ब्रह्मज्ञान से वंचित व्यक्ति कभी ईश्वर के स्वरूप को अपने अंतःकरण के अहसास में नहीं ला सकता और जरूरत पड़ने पर ही ईश्वर निरंकार को याद जाता है तो दोनों तथ्यों का अंतर स्पष्ट अवलोकित हो जाता है।
जिहि घटि प्रीति न प्रेमरस, फुनि रसना नहीं राम।
ते नर इस संसार में, उपजि खये बेकाम॥
राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।
बेस्यां केरा पूत ज्यूँ, कहै कौन सू बाप ॥
अर्थात.. प्रियतम राम को छोड़कर जो दूसरे देवी-देवताओं को जपता है, उनकी आराधना करता है, उसे क्या कहा जाय? वेश्या का पुत्र किसे अपना बाप कहे? अनन्यता के बिना कोई गति नहीं।
भगति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बाचा क्रमनां, `कबीर’ सुमिरण सार॥
राम-नाम लूटि है, लूटि सकै तौ लूटि।
पीछैं हो पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि॥
कबीर’ राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ।
फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ॥
अर्थात.. कबीर कहते हैं कि अमृत जैसे गुणों को गाकर तू अपने राम को रिझा ले। राम से तेरा मन बिछुड़ गया है, इससे वैसे ही मिल जा, जैसे कोई फूटा हुआ नग की सन्धि करके एक कर लिया जाता है। दुःख, उलझन या विपरीत परिस्थितियों में देखा जाए तो कोई किसी का सहाई नहीं होता है सिवा निरंकार प्रभु के। रहीम जी बड़ा ही सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया है:
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।
अर्थ : रहीम कहते हैं कि यदि विपत्ति कुछ समय की हो तो वह भी ठीक ही है, क्योंकि विपत्ति में ही सबके विषय में जाना जा सकता है कि संसार में कौन हमारा हितैषी है और कौन नहीं। अर्थात प्रभु के अलावा और कोई नहीं है। सिमरन को मन में किस विधि आत्मसात करें, इसका भी तरीका, बहुत ही अच्छे ढंग से कबीर जी ने रब्बी वाणी में समझाया है:
सुमिरन सों मन लाइये, जैसे पानी मीन।
प्रान तजै पल बीछुरे, दास कबीर कहि दीन॥
सुमिरन सों मन जब लगै, ज्ञान अंकुस दे सीस।
कहैं कबीर डोलै नहीं, निश्चै बिस्वा बीस॥
जब भी मन उदास या खिन्न हो, मन जब भी अशांत हो, जब कुछ भी अच्छा न लगे या मन में अजीब से विचार आने लगे तो ऐसे वक़्त में सिर्फ शांत हो जाऊं, किसी से कुछ भी न बोलूं,
एक तरफ़ चुपचाप बैठकर अपने गुरु को अहसास में लाऊं और फिर सिमरन करुँ अंतःकरण में, अंतःकरण या उच्चारण द्वारा: "तूंही निरंकार, मैं तेरी शरण हां, मैनूं बख़्श लओ..." अपने मन की तार या लिब को इस निरंकार से जोड़ने की निरंतर कोशिश करूँ।
कुछ ही देर में कुछ अलग सा अलौकिक अहसास महसूस होने लगेगा। अशांत मन को शांति मिलने लगेगी। उदासी दूर होने लगेगी क्योंकि स्वयं गुरु मेरे भीतर एक सकारात्मक नवऊर्जा प्रदान करने लगता है। अतः निरंकार प्रभु के सिमरन की महत्ता को अवश्य ही महसूस करूँ। कबीर जी ने कहा है कि:
कबीर मेरी सुमिरनी, रसना ऊपर राम।
आदि जुगादि भक्ति है, सबका निज बिसराम॥
काह भरोसा देह का, बिनसी जाय छिन मांहि।
सांस सांस सुमिरन करो, और जतन कछु नाहिं॥
राम नाम सुमिरन करै, सतगुरु पद निज ध्यान।
आतम पूजा जीव दया, लहै सो मुक्ति अमान॥
सुमिरण मारग सहज का, सतगुरु दिया बताय।
सांस सांस सुमिरण करूं, इक दिन मिलसी आय॥
सुमिरण की सुधि यौ करो, जैसे कामी काम।
एक पल बिसरै नहीं, निश दिन आठौ जाम॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय॥
बिना साँच सुमिरन नहीं, बिन भेदी भक्ति न सोय।
बिन हरि दरस क्या कीजिए, बिन दरस परतीत न होय।
अंतःकरण में छुपी नकारात्मकता को सदा के लिए दूर करके इस मन को सद्गुणों से परिपूर्ण कर देता है और फिर महसूसियत होने लगती है शांत मन, बुद्धि और चित के भीतर एक अदभुत ऊर्जा शक्ति की सृजना।
सुमिरन मन लागै नही, विषहि हलाहल खाय।
कबीर हटका ना रहै, करि करि थका उपाय॥
सुमिरन मांहि लगाय दे, सुरति आपनी सोय।
कहै कबीर संसार गुन, तुझै न व्यापै कोय॥
सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछू न बोल।
बाहर के पट देय के, अंतर के पट खोल॥
सुमिरन तूं घट में करै, घट ही में करतार।
घट ही भीतर पाइये, सुरति सब्द भंडार॥
राजा राना राव रंक, बङो जु सुमिरै नाम।
कहैं कबीर सबसों बङा, जो सुमिरै निहकाम॥
सहकामी सुमिरन करै, पावै उत्तम धाम।
निहकामी सुमिरन करै, पावै अविचल राम॥
जप तप संजम साधना, सब कछु सुमिरन मांहि।
कबीर जाने भक्तजन, सुमिरन सम कछु नांहि॥
सत्गुरू निरंकार दातार के सिमरन की यह प्रक्रिया यदि सुचारू रूप से नियमित हो जाती है और बिना किसी व्यवधान के सिमरन निरंतर होता रहता है तो यह मन हमेशा ही खुश रहने लगता है। अंतःकरण में एक दिव्य ऊर्जा महसूस होती रहती है क्योंकि सिमरन के वक़्त सत्गुरू निरंतर ही अंगसंग अंतःकरण में मौजूद होता है जो सदैव ही अंतःकरण में एक शक्तिशाली सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता रहता है।
सुमिरन की सुधि यों करो ,ज्यों गागर पनिहारि।
बोलत डोलत सुरति में ,कहे कबीर विचारि।
ऊठत बैठत हरि भजो, साधू संग प्रीति।
नानक दुरमति छुटि गई, पारब्रह्म बसे चीति।
सुमिरन की सुधि यौं करो, ज्यौं सुरभी सुत मांहि।
कहै कबीरा चारा चरत, बिसरत कबहूं नांहि॥
सुमिरन की सुधि यौं करो, जैसे दाम कंगाल।
कहैं कबीर बिसरै नहीं, पल पल लेत संभाल॥
यही है गुरु की शक्ति एवं नाम का अलौकिक अद्वितीय प्रभाव। सिमरन करने के साथ ही सत्संग एवं सेवा की निरंतरता भी अत्यंत अनिवार्य है जिसके द्वारा यह मन सदा ही सत्गुरू निरंकार दातार के अहसास में रहता हुआ शुकराना करता रहता है।
सुमिरन की सुधि यों करो, ज्यौं सुई में डोर।
कहैं कबीर छूटै नही, चलै ओर की ओर॥
थोङा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय।
हरदी लगै न फ़िटकरी, चोखा ही रंग होय॥
ज्ञान कथे बकि बकि मरै, काहे करै उपाय।
सतगुरू ने तो यों कहा, सुमिरन करो बनाय॥
कबीर सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंत मधि सोधिया, दूजा देखा काल॥
कबीर हरि हरि सुमिरि ले, प्रान जाहिंगे छूट।
घर के प्यारे आदमी, चलते लेंगे लूट॥
कबीर चित चंचल भया, चहुँदिस लागी लाय।।
गुरू सुमिरन हाथे घङा, लीजै बेगि बुझाय।
पारस में परदा रहा, कस लोहा कंचन होय॥
दर्शन को तो साधु हैं, सुमिरन को गुरु नाम।
तरने को आधीनता, डूबन को अभिमान॥
बिना निरंकार प्रभु के अहसास के सेवा एवं सत्संग बिल्कुल ही निरर्थक है और इस निरंकार प्रभु का अहसास पूर्ण सत्गुरू द्वारा तत्वज्ञान या ब्रह्मज्ञान के रूप कराया जाता है।
🌺शुकर ऐ मेरे रहबरां🌺
🙏धन निरंकार जी🙏