🌷🌹"क़द्र-ए-वक़्त"🌹🌷
समय को गर अहसास में लें तो, वक्त का चक्र अनथक चलता है।
कमोवेश रहा है एक सा ही ये, पाप-पुण्य तो हर युग पलता है।
हालात बदलते रहते 'मोहन', सुख-दुःख स्वर्ग नरक की रेख।
हरहाल में जो भी सम रह पाए, वही गुरमत के सांचे ढलता है।
ज़माना कहीं बदला है बिल्कुल, ये हम ही हैं जो बदल गए हैं।
सुंदर अटल अचल है सब सृष्टि, फ़क्त हम ही इससे टल गए हैं।
वक्त तो एक सा चलता है रहता, 'मोहन' हमीं इससे फिसल गए हैं।
खुद का नज़रिया बदलने मात्र से, मसले सारे ही हो हल गए हैं।
किसी भी मुहूर्त की न हो ज़रूरत, इज़हार-ए-खुशी के लिए तो।
खुशी का हरेक लम्हा ही 'मोहन', खुद में ही शुभ मुहूर्त होता है।
इस ज़िंदगी का सफ़र तो 'मोहन', महज़ इतना सा ही है बन्दे।
इस जहां में आए नहाए, और नहाकर यहां से रुख़सत हो गए।
ऊषाकाल में उठकर जिसने भी, नवऊर्जा का संभाल किया।
प्रभात उसी का शुभ होता है, ऊर्जा जो सही इस्तेमाल किया।
सोना जगना उठकर सो जाना, जगत की आम रीति है 'मोहन'।
जो सदा सोते जगते आलोकित रहा, वही नित नए क़माल किया।
कालचक्र है गतिशील निरंतर, चाहें वो युग रहा हो कोई।
नहीं थमा ये नहीं कभी थमेगा, कालगति को न समझे कोई।
ख़ुद के ऐब मढ़ता है वक़्त पे, 'मोहन' बंदा ऐसा है खलोई।
अच्छा-बुरा कभी वक्त न करता, कर्ता तो खुद बन्दा ही होई।
कहते हैं समय-समय की बात है, पर वक्त न करता कभी घात है।
जिसने भी वक़्त की क़दर करी है, वो न सहता कोई आघात है।
हालातों में जो ढल जाए 'मोहन', फिर उस बंदे की क्या बात है।
वक़्त-ए-मेहर सौगात में मिलती, वो पाता हर रब्बी करामात है।
वक़्त की क़दर खुद से न होवे, क़दर सत्गुरूकृपा से होती है।
गुरू से ही शुरू हो असली जीवन, मेहर-ए-बारिश हरपल होती है।
बिगड़े हालात संभलते पलभर में, 'मोहन' हर ऋतु इलाही होती है।
ये वक़्त भी तो है दरबान गुरू का, सबकुछ गुरू की लीला होती है।
शुकर सबर में रहूँ सदा 'मोहन', सत्गुरू चरण-शरण में लाया है।
गुण-अवगुण न देखे विचारे इसने,जैसा भी था मुझे अपनाया है।
दिव्यगुणों को बख़्शकर 'मोहन', ऐबों को इसने ही मिटाया है।
बलिहारी वक्त के सत्गुरु का मैं, जो बेग़मपुर मुफ़्त दिखाया है।
🌺शुकर ऐ मेरे रहबरां🌺
🙏धन निरंकार जी🙏