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सोसाइटी

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पाँच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूँखार गोली खाकर एक मर गया, बाक़ी रह गए चार चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन देश-निकाला मिला एक को, बाक़ी रह गए तीन तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो अ

अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है। छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को, मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है, बादल को घिरते देखा है। तुंग हिमालय के कंधों पर

सत्य को लकवा मार गया है वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात वह फटी–फटी आँखों से टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात कोई भी सामने से आए–जाए सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी

गीली भादों रैन अमावस कैसे ये नीलम उजास के अच्छत छींट रहे जंगल में कितना अद्भुत योगदान है इनका भी वर्षा–मंगल में लगता है ये ही जीतेंगे शक्ति प्रदर्शन के दंगल में लाख–लाख हैं, सौ हजार हैं कौन

1 यहीं धुआँ मैं ढूँढ़ रहा था यही आग मैं खोज रहा था यही गंध थी मुझे चाहिए बारूदी छर्रें की खुशबू! ठहरो–ठहरो इन नथनों में इसको भर लूँ... बारूदी छर्रें की खुशबू! भोजपुरी माटी सोंधी हैं, इसका यह

बातें– हँसी में धुली हुईं सौजन्य चंदन में बसी हुई बातें– चितवन में घुली हुईं व्यंग्य-बंधन में कसी हुईं बातें– उसाँस में झुलसीं रोष की आँच में तली हुईं बातें– चुहल में हुलसीं नेह–साँचे में ढ

क्रान्ति सुगबुगाई है करवट बदली है क्रान्ति ने मगर वह अभी भी उसी तरह लेटी है एक बार इस ओर देखकर उसने फिर से फेर लिया है अपना मुँह उसी ओर ’सम्पूर्ण क्रान्ति’ और ’समग्र विप्लव’ के मंजु घोष उसके का

अग्निबीज तुमने बोए थे रमे जूझते, युग के बहु आयामी सपनों में, प्रिय खोए थे ! अग्निबीज तुमने बोए थे तब के वे साथी क्या से क्या हो गए कर दिया क्या से क्या तो, देख–देख प्रतिरूपी छवियाँ पहले

बरफ़ पड़ी है सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है सजे-सजाए बंगले होंगे सौ दो सौ चाहे दो-एक हज़ार बस मुठ्ठी-भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार देवदारूमय सहस्रबाहु चिर-तरूण हिमाचल कर सकता है क्

चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू मैंने सप

खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक धन्य-धन्य वह, धन्य

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है मेरी भी आभा है इसमें भीनी-भीनी खुशबूवाले रंग-बिरंगे यह जो इतने फूल खिले हैं कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था कल इनको मेरे स

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त। दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

जो नहीं हो सके पूर्ण–काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम । कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट जिनके अभिमंत्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए ! उनको प्रणाम ! जो छोटी–सी नैया

काले-काले ऋतु-रंग काली-काली घन-घटा काले-काले गिरि श्रृंग काली-काली छवि-छटा काले-काले परिवेश काली-काली करतूत काली-काली करतूत काले-काले परिवेश काली-काली मँहगाई काले-काले अध्यादेश रचनाकाल :

मैंने देखा : दो शिखरों के अन्तराल वाले जँगल में आग लगी है ... बस अब ऊपर की मोड़ों से आगे बढ़ने लगी सड़क पर मैंने देखा : धुआँ उठ रहा घाटी वाले खण्डित-मण्डित अन्तरिक्ष में मैंने देखा : आग लगी

यहाँ, गढ़वाल में कोटद्वार-पौड़ी वाली सड़क पर ऊपर चक्करदार मोड़ के निकट मकई के मोटे टिक्कड़ को सतृष्ण नज़रों से देखता रहेगा अभी इस चालू मार्ग पर गिट्टियाँ बिछाने वाली मज़दूरिन माँ अभी एक बजे आ

प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ, सात साल की बच्ची का पिता तो है! सामने गियर से उपर हुक से लटका रक्खी हैं काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी बस की रफ़्तार के मुताबिक हिलती रहती हैं… झुककर मैंने प

जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम । कुछ कुण्ठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट जिनके अभिमन्त्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए ! उनको प्रणाम ! जो छोटी-सी नै

"ओ रे प्रेत -" कडककर बोले नरक के मालिक यमराज -"सच - सच बतला ! कैसे मरा तू ? भूख से , अकाल से ? बुखार कालाजार से ? पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ? कैसे मरा तू , सच -सच बतला !" खड़ खड़ खड़ खड़

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