‘पूरब की बेटियाँ’ किताब जिस पूरब को हमारे सामने लाती है, वह कोई दिशा नहीं, एक भौगोलिक-सांस्कृतिक क्षेत्र है। उसकी सामाजिक संरचना में बेटियों के क्या मायने हैं, क्या दर्जा है, शैलजा पाठक कथेतर विधा की अपनी पहली किताब में बहुत महीन ढंग से परत-दर-परत
प्रेमी जहाँ पति मैटेरियल में बदलने लगता है और प्यार विवाह नाम के नरक में, क़ैद की दीवारें वहीं उठना शुरू होती हैं, जिनसे निकलने का संघर्ष इस उपन्यास की स्त्रियाँ कर रही हैं। लेकिन इस मुक्ति का निर्वाह क्या इतना आसान है? प्रेम से रहित हो जाना और अपने
‘मेरे क़िरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से कुछ दूरी बरतते हुए। मेरी कहानियों में ‘फ्रीक’ भी जगह पाते हैं, सनकी, लीक से हटेले और जो बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे ज़हन में रहते हैं। जब मुकम्मल आकार प्रकार ले लेते हैं, तब ये क़िरदार मुझे विव
भोगने की प्रक्रिया जितनी जटिल है, भोग आत्मसात करके एक दृष्टि के रूप में विकसित कर पाना उससे भी दुरूह। वर्णसंकरता और सहकारिता के विराट दर्शन में अकूत विश्वास के बावजूद कविता है तो शर्मीली-सी, कमसुखन विधा। ऊपर से आदमी भी एक क्लिष्ट जीव है-भोगे और कहे ह
यशोहर के राजा प्रतापादित्य सभी बच्चों, उनकी प्रजा और उनकी बहुरानी (बहू) को सबसे अधिक तिरस्कृत करते हैं। जब सूरमा ने राज्य पुत्र उदयादित्य से शादी की, तो उसे इस बात का अंदाजा नहीं था कि उसका देवर उसके जीवन को नरक बना देगा। लेकिन सूरमा अपने दुख में अके
विज्ञापन की चकाचौंध दुनिया में जितना हिस्सा पूँजी का है, शायद उससे कम हिस्सेदारी स्त्री की नहीं है। इस नए सत्ता-प्रतिष्ठान में स्त्री अपनी देह और प्रकृति के माध्यम से बाज़ार के सन्देश को ही उपभोक्ता तक नहीं पहुँचाती, बल्कि इस उद्योग में पर्दे के पीछे
जेल में बंद एक कुरूप लड़की को आदालत में पेश किया जाता है। मीडिया और लोगों की भीड़ कोर्ट के बाहर खड़ी होती है। आक्रमक क्रांतिकारी महिलाओं की भीड़ से बचाकर पुलिस उस अपराधी को कोर्ट रूम ले जाते हैं। उस लड़की का अपराध विपक्ष वकील के द्वारा साबित कर दिया
इन लेखों में जीवन की आंच भी है और आस भी कि स्वयं नारी अपने प्रति होते हुए अत्याचारों और शोषण का रुख बदलेगी.. पुस्तक में सिर्फ महिलाओं पर किये जा रहे अत्याचारों और हिंसा का उल्लेख्य है, उन्होंने कहीं भी कामयाबी की सीढ़िया चढ़ रही महिलाओं का जिक्र नही क
‘राजधानी’ जिसके नाम में ही ‘राज़’ चिपका है, उसका रहस्यमयी होना लाज़िमी है। ऊपर से देश की राजधानी दिल्ली जिसके सीने में धौंकते हैं असंख्य दिल धकधक-धकधक। इन्हीं में एक दिल है ‘मेघना’। रोज़ी-रोटी की जुगत में उसके पिता को ठौर दिया दिल्ली ने। घुटने तक झालरद
कथा-साहित्य में अक्सर ही नारी का चित्रण पुरुष की आकांक्षाओं (दमित आकांक्षाओं) से प्रेरित होकर किया गया है। लेखकों ने या तो नारी की मूर्ति को अपनी कुंठाओं के अनुसार तोड़-मरोड़ दिया है, या अपनी कल्पना में अंकित एक स्वप्नमयी नारी को चित्रित किया है। लेकि
पाशो अभी किशोरी ही थी, जब उसकी माँ विधवा होकर भी शेखों की हवेली जा चढ़ी। ऐसे में माँ ही उसके मामुओं के लिए 'कुलबोरनी' नहीं हो गई, वह भी सन्देहास्पद हो उठी। नानी ने भी एक दिन कहा ही था—‘सँभलकर री, एक बार का थिरका पाँव जिन्दगानी धूल में मिला देगा!’’
आज़ाद जीवन एक आज़ाद मन की अभिव्यक्ति है। यदि व्यक्ति का मन मुक्त नहीं है तो मुक्ति आंदोलन शायद ही कभी अपने उद्देश्य की पूर्ति कर पाएंगे। ऐसा ही एक आंदोलन महिला मुक्ति आंदोलन है जिसका उद्देश्य महिलाओं को राजनीतिक और सामाजिक समानता देना है, लेकिन वो भ
हिन्दी भाषा के महान उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा रचित उपन्यास ‘गोली’ उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में से एक है। इस उपन्यास में शास्त्री जी ने राजस्थान के राजा-महाराजाओं और उनके महलों के अंदरूनी जीवन को बड़े ही रोचक, मार्मिक तथा मनोरंजन के साथ
मूर्धन्य कथाकार चित्रा मुद्गल का यह पांचवां उपन्यास भी कथ्य और ट्रीटमेंट के स्तर पर एक नवीन कथा–धरती का निर्माण करता है । जैसा इस उपन्यास के शीर्षक से जाहिर है, यह स्त्रियों को मिलने वाली एक रात की स्वायत्तता के प्रसंग से प्रेरित अवश्य है किन्तु कथाक
हिन्दी के कहानी लेखकों में मन्नू भंडारी का अग्रणी स्थान है। उनकी कहानियों में नारी-जीवन के उन अन्तरंग अनुभवों को विशेष रूप से अभिव्यक्ति दी गई है जो उनके नितांत अपने हैं और पुरुष कहानीकारों की रचनाओं में प्रायः नहीं मिलते। वैसे मन्नू भंडारी ने अपने अ
संग्रह की प्रत्येक कहानी एक स्त्री के जीवन के प्रत्येक पड़ाव की वेदना और उसकी मजबूरी को दर्शाती है। स्त्री के रूप में एक छोटी बच्ची से लेकर एक युवती और यहां तक के एक वृद्ध महिला का जीवन भी आसान नहीं होता। कहीं ना कहीं उसके साथ अन्याय होता ही है। इन स
बिना दीवारों के घर का जो घर है उसकी दीवारें हैं, लेकिन लगभग ‘न-हुईं’ सी ही। एक स्त्री के ‘अपने’ व्यक्तित्व की आँच वे नहीं सँभाल पातीं, और पुरुष, जिसको परम्परा ने घर का रक्षक, घर का स्थपति नियुक्त किया है, वह उन पिघलती दीवारों के सामने पूरी तरह असहाय
स्त्रियाँ जो मिटाना चाहती हैं अपने माथे पर लिखी मूर्खता किताबों में उनके नाम दर्ज चुटकुलों, और इस चलन को भी जो कहता है, ‘‘यह तुम्हारे मतलब की बात नहीं’’ मगर सिमट जाती हैं मिटाने में कपड़ों पर लगे दाग, चेहरों पर लगे दाग, और चुनरी में लगे दागों को, स्त
समाज और व्यवस्था के कटु-तिक्त अनुभवों से सम्पन्न उपन्यासकार हैं मधु कांकरिया। उनका यह उपन्यास बेधक, जुझारू, धैर्यवान और अन्ततः विद्रोही स्त्री की आन्तरिक पीड़ा का बड़ा ही मार्मिक विश्लेषण-अंकन करता है। धार्मिक चिन्तन और व्यवहार से आप्लावित संसार में
यह एक लम्बी कहानी है—यों तो मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बूढ़ी स्त्री की, पर वह फैली हुई है उसकी समूची ज़िन्दगी के आर-पार, जिसे मरने के पहले अपनी अचूक जिजीविषा से वह याद करती है। उसमें घटनाएँ, बिम्ब, तस्वीरें और यादें अपने सारे ताप के साथ पुनरवतरित होते