बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार के अनुसार टाटा टेलिकाम सर्विसेस ने बैंकों से कहा है कि उस पर जो 29,000 करोड़ का कर्ज़ है, उसे चुकाने के लिए कई तरह की रियायतें दी जाएं जिसे अंग्रेज़ी में restructure कहते हैं। टाटा टेलिकाम का कहना है कि 2016-17 में उसके नेट वर्थ में 11,650 करोड़ की कमी आई है। इससे पहले अनिल अंबानी ने भी इस तरह की रियायत मांगी है। टाटा ने बैंकों से कहा है कि उसे 20 साल का समय दिया जाए। यही नहींं टाटा कंपनी ने उल्टा 5000 करोड़ रुपये का कर्ज़ भी मांगा है ताकि वो अपने कैपिटल एक्सपेंडिचर और कैश फ्लो के अंतर को पाट सके। टाटा टेलिकाम को 2015-16 में 2,023 करोड़ का घाटा हुआ था जो 16-17 में बढ़कर 2,839 करोड़ हो गया।
रिलायंस के जियो लांच के बाद भारत का टेलिकाम सेक्टर गर्त में चला गया है। टेलिकाम कंपनियां लगातार घाटे की शिकार हो रही हैं। आइडिया कंपनी को भी 2015-16 में 2,278 करोड़ का घाटा हुआ है। 16-17 में 400 करोड़ का घाटा हुआ। भारती एयरटेल और वोडाफोन की भी यही हालत है। सोचिये रिलायंस जीयो के कारण इन तमाम कंपनियों को कितना घाटा हुआ है लेकिन रिलायंस ने जो फ्री आफर दिया था, उसकी चोट सहने के लिए क्या किया होगा। मार्केट के इस खेल को हम हिन्दी वाले कम ही समझते हैं।
शुक्रवार के बिजनेस स्टैंडर्ड में एक और ख़बर थी। टाटा पावर ने गुजरात ऊर्जा विकास निगम( सरकारी संस्था) से कहा कि वो अपने 51 प्रतिशत शेयर मात्र 1 रुपये में ख़रीद ले। 4000 मेगावाट का मुंद्रा अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट है, उसमें टाटा के शेयर हैं। आयातित कोयले पर आधारित अडानी और एस्सार के भी पावर प्रोजेक्ट हैं। उन्होंने भी कहा है कि एक रुपये में उनकी हिस्सेदारी ले लें। क्या ये हमारे समय की सामान्य बिजनेस घटना है, जिससे हिन्दी पट्टी को बेखबर रखा जा रहा है? एक रुपये में हिस्सेदारी बेचने की ख़बर सामान्य से बड़ी ख़बर है। ये हमारी अर्थव्यवस्था के बड़े अंबेसडरों की हालत बयां कर रही है। जिसे लेकर मीडिया हमें दिन रात गुणगाण करने के लिए कहता रहता है। ये उस सेक्टर के दो बड़े प्रोजेक्ट की हालत है जिनके मंत्री पीयूष गोयल के बारे में मीडिया लिखता रहता है कि वे कमाल के मंत्री हैं। मंत्रालय को चमका दिया है। तब फिर क्यों अडानी और टाटा को एक रुपये में अपनी हिस्सेदारी बेचने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
कोई अपनी हिस्सेदारी एक रुपये में क्यों बेचना चाहेगा, इसके क्या मतलब हैं, हम जैसे सामान्य पत्रकार समझ ही नहीं पाते। बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार टाटा सन्स बोर्ड ने टाटा पावर कंपनी से पूछा है कि उसने मुंद्रा में निवेश क्यों किया जब उसे मालूम था कि इसकी लागत निकलनी मुश्किल है। देखिये, अब इस लाइन से खेल समझिये कि हज़ारों करोड़ का निवेश यह जानते हुए भी कि लागत नहीं निकलेगी, हो जाता है। तो क्या इसमें कोई खेल नहीं होता होगा। मुंद्रा का प्लांट चाहे वो टाटा का हो या अडानी का आयातित कोयले पर निर्भर था। अब इसे लेकर कुछ लोचा आया है जिसे समझने के लिए हमें कोयले के आयात निर्यात की नीति या इस सेक्टर की रिपोर्ट को पढ़ना होगा।
हिन्दी के पाठकों और पत्रकारों से अपील है कि वे हिन्दी पट्टी के गोबर हो चुके मुद्दों को अलावा भी दूसरी चीज़ों की तरफ ख़ुद को धकेलें।