आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि वे लोगों से पूछें कि उनकी पार्टी को क्यों नहीं वोट करेंगे, जबकि उनकी सरकार की दी हुई हर सुविधा का लाभ उठा रहे हैं। लोगों से कहो कि वे मेरी सरकार के बनाई सड़क का इस्तमाल न करें, उनसे कहो कि जो हम पेंशन दे रहे हैं वो लेना बंद कर दें, अगर टी डी पी को वोट नहीं करेंगे तो। जो गांव वाले हमें वोट नहीं देंगे, हम उन्हें अनदेखा कर देंगे।
किसी को अपने काम पर भरोसा हो सकता है मगर उस काम के बदले वोट की गारंटी जनता को देनी ही होगी, यह दावा कोई नेता नहीं कर सकता है। इस हिसाब से जो पेंशन ले रहे हैं वो हमेशा उसी सरकार को वोट करेंगे। जो अच्छी सड़क पर चल रहे हैं, वो हमेशा उसे बनाने वाली सरकार को ही वोट करेंगे। भारत की राजनीति में यह अचानक आया बयान नहीं है। अब नेताओं को पता चल सकता है कि किस बूथ पर कितने वोट पड़े। बाद में उनके साथ क्या होगा, कल्पना की जा सकती है।
हमारी राजनीति का चरित्र बदल रहा है। वो हमें एक ऐसी गली की तरफ धकेल रही है जिसके अंतिम छोर पर दीवार है। चंद्राबाबू नायडू का यह बयान बता रहा है कि लोकंतत्र की सीढ़ियां चढ़कर सत्ता तक पहुंचा हमारा सत्ताधारी वर्ग अब राजा की तरह स्थायी होना चाहता है। पार्टी के भीतर राजतंत्र तो आ ही गया है। नायडू के अपने कार्यकर्ताओं को लोगों को समझाने के लिए नहीं कहा बल्कि इस बात में एक धमकी है। जो लोग लोकतंत्र को हथियाने के ख़तरे की बात से इंकार करते रहे हैं उन्हें इस बयान पर ग़ौर करना चाहिए।
यह वही है जिसे हल्के शब्दों में फासीवाद कहा जाता है। यह फासीवाद नहीं है। उससे भी आगे की चीज़ है जिसके लिए किसी के पास नाम नहीं है। मैं चंद्रबाबू नायडू की इस बात की तारीफ करूंगा कि उन्होंने यह नहीं कहा कि जो वोट नहीं करेगा उसे खंभे से बांध कर कोड़े से पिटवाया जाएगा। मुझे बेकार में ही क्रांति फिल्म का वो सीन याद आ गया जिसमें समुद्र के बीच में एक जहाज़ में लोगों के हाथ जज़ीरों से बंधी हुई हैं और कोड़े बरसाये जा रहे हैं।
उनके इस बयान पर विचार होना चाहिए कि लोग पांच सौ और हज़ार के नोट फेंकने पर वोट क्यों देते हैं। मैं चाहूं तो पांच हज़ार के नोट बांट सकता हूं लेकिन वो ऐसी राजनीति नहीं करना चाहते। ये आज की राजनीति की हकीकत भी है। वे जिस वाई एस आर की लोकप्रियता से खिन्न हैं, वो उन्हीं के साथ एन डी ए के उम्मीदार रामनाथ कोविंद को वोट कर रही है। बेहतर है नायडू ये चेक करवा लें कि कहीं हज़ार रुपये देकर वोट ख़रीदने वाली पार्टी, हज़ार रुपये लेकर वोट तो नहीं दे रही है। पूछ लेना ठीक रहता है।
इंडियन एक्सप्रेस की यह दूसरी ख़बर भी लाजवाब है। लोकसभा की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने पत्रकारों से कहा है कि वे वस्तुनिष्ठता बनाए रखें, खूबसूरत भाषा का इस्तमाल करें और कभी कभी कड़वा सत्य को लिखने से बचें। उन्होंने पत्रकारों को नारद मुनी से सीखने की नसीहत देते हुए कहा कि सरकार से बहुत कुछ विनम्र भाषा में कहा जा सकता है। सत्य बोलो अच्छी चीज़ें कहो। अप्रिय सत्य मत बोलो। लोकसभा अध्यक्ष को नसीहत यही देना चाहिए था कि हम सरकार में हैं, हमसे जितना भी कड़वा सत्य होता है, बोलिये, लेकिन क्या नहीं बोलना है कि सीमा रेखा वो ख़ुद खींच रही हैं।
कौन सा सत्य अप्रिय है, यह तय करने का अधिकार हमेशा सत्ता के पास होता है। वो चाहे तो हर सत्य को अप्रिय घोषित कर सकती है। जो नसीहत नायडू जनता को दे रहे हैं, कमोबेश वही पत्रकारों को दिया जा रहा है। हम धीरे धीरे बड़ी कीमत चुका रहे हैं। जो चुका रहे हैं, वही तो शामिल हैं इसमें। बाकी आगे आप ख़ुद ही समझदार हैं।