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उस पार

23 फरवरी 2022

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घोर तम छाया चारों ओर
घटायें घिर आईं घन घोर;
वेग मारुत का है प्रतिकूल
हिले जाते हैं पर्वत मूल;
गरजता सागर बारम्बार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?

तरंगें उठीं पर्वताकार
भयंकर करतीं हाहाकार,
अरे उनके फेनिल उच्छ्वास
तरी का करते हैं उपहास;
हाथ से गयी छूट पतवार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?

ग्रास करने नौका, स्वच्छ्न्द
घूमते फिरते जलचर वॄन्द;
देख कर काला सिन्धु अनन्त
हो गया हा साहस का अन्त!
तरंगें हैं उत्ताल अपार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?

बुझ गया वह नक्षत्र प्रकाश
चमकती जिसमें मेरी आश;
रैन बोली सज कृष्ण दुकूल
’विसर्जन करो मनोरथ फूल;
न जाये कोई कर्णाधार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?

सुना था मैंने इसके पार
बसा है सोने का संसार,
जहाँ के हंसते विहग ललाम
मृत्यु छाया का सुनकर नाम!
धरा का है अनन्त श्रृंगार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?

जहाँ के निर्झर नीरव गान
सुना करते अमरत्व प्रदान;
सुनाता नभ अनन्त झंकार
बजा देता है सारे तार;
भरा जिसमें असीम सा प्यार,
कौन पहुँचा देगा उस पार?

पुष्प में है अनन्त मुस्कान
त्याग का है मारुत में गान;
सभी में है स्वर्गीय विकाश
वही कोमल कमनीय प्रकाश;
दूर कितना है वह संसार!
कौन पहुँचा देगा उस पार?

सुनाई किसने पल में आन
कान में मधुमय मोहक तान?
’तरी को ले आओ मंझधार
डूब कर हो जाओगे पार;
विसर्जन ही है कर्णाधार,
वही पहूँचा देगा उस पार।’ 

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रचनाएँ
नीहार
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नीहार महादेवी वर्मा का पहला कविता-संग्रह है। इसका प्रथम संस्करण सन् १९३० ई० में गाँधी हिन्दी पुस्तक भण्डार, प्रयाग द्वारा प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने लिखी थी। इस संग्रह में महादेवी वर्मा की १९२३ ई० से लेकर १९२९ ई० तक के बीच लिखी कुल ४७ कविताएँ संग्रहीत हैं। नीहार की विषयवस्तु के सम्बंध में स्वयं महादेवी वर्मा का कथन उल्लेखनीय है- "नीहार के रचना काल में मेरी अनुभूतियों में वैसी ही कौतूहल मिश्रित वेदना उमड़ आती थी, जैसे बालक के मन में दूर दिखायी देने वाली अप्राप्य सुनहली उषा और स्पर्श से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है।" इन गीतों में कौतूहल मिश्रित वेदना की अभिव्यक्ति है। । मीरा ने जिस प्रकार उस परमपुरुष की उपासना सगुण रूप में की थी, उसी प्रकार महादेवीजी ने अपनी भावनाओं में उसकी आराधना निर्गुण रूप में की है। उसी एक का स्मरण, चिन्तन एवं उसके तादात्म्य होने की उत्कंठा महादेवीजी की कविताओं में उपादान है। उनकी ‘नीहार’ में हम उपासना-भाव का परिचय विशेष रूप से पाते है।
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विसर्जन

23 फरवरी 2022
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निशा की, धो देता राकेश चाँदनी में जब अलकें खोल, कली से कहता था मधुमास बता दो मधुमदिरा का मोल; बिछाती थी सपनों के जाल तुम्हारी वह करुणा की कोर, गई वह अधरों की मुस्कान मुझे मधुमय पीडा़ में बोर;

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मिलन

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रजतकरों की मृदुल तूलिका से ले तुहिन-बिन्दु सुकुमार, कलियों पर जब आँक रहा था करूण कथा अपनी संसार; तरल हृदय की उच्छ्वास जब भोले मेघ लुटा जाते, अन्धकार दिन की चोटों पर अंजन बरसाने आते! मधु की

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अतिथि से

23 फरवरी 2022
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बनबाला के गीतों सा निर्जन में बिखरा है मधुमास, इन कुंजों में खोज रहा है सूना कोना मन्द बतास। नीरव नभ के नयनों पर हिलतीं हैं रजनी की अलकें, जाने किसका पंथ देखतीं बिछ्कर फूलों की पलकें। मधुर

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मिटने का खेल

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मैं अनन्त पथ में लिखती जो सस्मित सपनों की बातें, उनको कभी न धो पायेंगी अपने आँसू से रातें! उड़ उड़ कर जो धूल करेगी मेघों का नभ में अभिषेक, अमिट रहेगी उसके अंचल में मेरी पीड़ा की रेख। तारों

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संसार

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निश्वासों का नीड़, निशा का बन जाता जब शयनागार, लुट जाते अभिराम छिन्न मुक्तावलियों के बन्दनवार, तब बुझते तारों के नीरव नयनों का यह हाहाकार, आँसू से लिख लिख जाता है ’कितना अस्थिर है संसार’! हँ

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अधिकार

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वे मुस्काते फूल, नहीं जिनको आता है मुर्झाना, वे तारों के दीप, नहीं जिनको भाता है बुझ जाना; वे नीलम के मेघ, नहीं जिनको है घुल जाने की चाह वह अनन्त रितुराज,नहीं जिसने देखी जाने की राह| वे सू

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कौन?

23 फरवरी 2022
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ढुलकते आँसू सा सुकुमार बिखरते सपनों सा अज्ञात, चुरा कर अरुणा का सिन्दूर मुस्कराया जब मेरा प्रात, छिपा कर लाली में चुपचाप सुनहला प्याला लाया कौन? हँस उठे छूकर टूटे तार प्राण में मँड़राया उन्

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मेरा राज्य

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रजनी ओढे जाती थी झिलमिल तारों की जाली, उसके बिखरे वैभव पर जब रोती थी उजियाली; शशि को छूने मचली थी लहरों का कर कर चुम्बन, बेसुध तम की छाया का तटनी करती आलिंगन। अपनी जब करुण कहानी कह जाता ह

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चाह

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चाहता है यह पागल प्यार, अनोखा एक नया संसार! कलियों के उच्छवास शून्य में तानें एक वितान, तुहिन-कणों पर मृदु कंपन से सेज बिछा दें गान; जहाँ सपने हों पहरेदार, अनोखा एक नया संसार! करते हों आलो

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सूनापन

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मिल जाता काले अंजन में सन्ध्या की आँखों का राग, जब तारे फैला फैलाकर सूने में गिनता आकाश; उसकी खोई सी चाहों में घुट कर मूक हुई आहों में! झूम झूम कर मतवाली सी पिये वेदनाओं का प्याला, प्राणों

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सन्देह

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बहती जिस नक्षत्रलोक में निद्रा के श्वासों से बात, रजतरश्मियों के तारों पर बेसुध सी गाती है रात! अलसाती थीं लहरें पीकर मधुमिश्रित तारों की ओस, भरतीं थीं सपने गिन गिनकर मूक व्यथायें अपने कोप।

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निर्वाण

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घायल मन लेकर सो जाती मेघों में तारों की प्यास, यह जीवन का ज्वार शून्य का करता है बढकर उपहास। चल चपला के दीप जलाकर किसे ढूँढता अन्धाकार? अपने आँसू आज पिलादो कहता किनसे पारावार? झुक झुक झूम

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समाधि के दीप से

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जिन नयनों की विपुल नीलिमा में मिलता नभ का आभास, जिनका सीमित उर करता था सीमाहीनों का उपहास; जिस मानस में डूब गये कितनी करुणा कितने तूफान! लोट रहा है आज धूल में उन मतवालों का अभिमान। जिन अधर

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अभिमान

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छाया की आँखमिचौनी मेघों का मतवालापन, रजनी के श्याम कपोलों पर ढरकीले श्रम के कन, फूलों की मीठी चितवन नभ की ये दीपावलियाँ, पीले मुख पर संध्या के वे किरणों की फुलझड़ियाँ। विधु की चाँदी की थाल

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उस पार

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घोर तम छाया चारों ओर घटायें घिर आईं घन घोर; वेग मारुत का है प्रतिकूल हिले जाते हैं पर्वत मूल; गरजता सागर बारम्बार, कौन पहुँचा देगा उस पार? तरंगें उठीं पर्वताकार भयंकर करतीं हाहाकार, अरे उनके

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मेरी साध

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थकीं पलकें सपनों पर ड़ाल व्यथा में सोता हो आकाश, छलकता जाता हो चुपचाप बादलों के उर से अवसाद; वेदना की वीणा पर देव शून्य गाता हो नीरव राग, मिलाकर निश्वासों के तार गूँथती हो जब तारे रात; उन्

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स्वप्न

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इन हीरक से तारों को कर चूर बनाया प्याला, पीड़ा का सार मिलाकर प्राणों का आसव ढाला। मलयानिल के झोंको से अपना उपहार लपेटे, मैं सूने तट पर आयी बिखरे उद्गार समेटे। काले रजनी अंचल में लिपटीं लह

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आना

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जो मुखरित कर जाती थी मेरा नीरव आवाहन, मैं ने दुर्बल प्राणों की वह आज सुला दी कम्पन! थिरकन अपनी पुतली की भारी पलकों में बाँधी, निस्पन्द पड़ी हैं आँखें बरसाने वाली आँखी। जिसके निष्फल जीवन ने

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निश्चय

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कितनी रातों की मैंने नहलाई है अंधियारी, धो ड़ाली है संध्या के पीले सेंदुर से लाली; नभ के धुँधले कर ड़ाले अपलक चमकीले तारे, इन आहों पर तैरा कर रजनीकर पार उतारे। वह गई क्षितिज की रेखा मिलती

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प्रतीक्षा

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जिस दिन नीरव तारों से बोलीं किरणों की अलकें, सो जाओ अलसाई हैं सुकुमार तुम्हारी पलकें; जब इन फूलों पर मधु की पहली बूँदें बिखरीं थीं, आँखें पंकज की देखीं रवि ने मनुहार भरीं सीं। दीपकमय कर डा

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