ओउम् | अधा मन्ये श्रत्ते अस्मा अधायि वृषा चोदस्व महते धनाय |
मा नो अकृते पुरुहूत योनाविन्द्र क्षुध्यद्भ्यो वय आसुतिं दाः ||
ऋग्वेद 1|104|7
शब्दार्थ -
अद्य..................अब, मैं
मन्ये................मानता हूँ, तेरी सत्ता और महत्ता स्वीकार करता हूँ
अस्मै ते.............इस तुझपर
श्रत्+आधायि........श्रद्धा करता हूँ | तू
वृषा..................सुखवर्षक होकर
महते................महान्
धनाय...............धन के लिए
चोदस्व..............प्रेरित कर, उत्साहित कर | हे
पुरुहूत..............अनेक से पूज्य !
नः...................हमें
अकृते...............बिन बने, बिना सजाये
योनौ................घर में
मा...................न स्थापित कर और हे
इन्द्र................ऐश्वर्यवान् !
क्षुध्यद्भ्यः..........भूखों को
वयः................अन्न और
आसुतिम्...........पान
दाः..................प्रदान कर |
व्याख्या -
भगवान् पर श्रद्धा होना बड़े भाग्य की बात है | पूर्वसुकृतों के परिणाम से यह उत्तम भाव जागता है | अन्यथा लोग अपने पालनकर्त्ता से विमुख ही रहते हैं, तुझपर श्रद्धा करता हूँ, विश्वास करता हूँ कि तू वृषा है, सुखवर्षक है | मुझे सुख चाहिए | तेरे भक्त कहते हैं - भूमा वै सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमा ही सुख है, थोड़े में सुख नहीं है, अतः - चोदस्व महते धनाय महान् धन के लिए प्रेरित कर, उत्साहित कर |
तेरे पास आकर भी, तुझपर विश्वास रखकर भी, तेरा श्रद्धालु बनकर भी मैं थोड़े में तृप्त होऊँगा, कदापी नहीं | धन-सम्पत्ति लूँगा तो महान | धन-निधन-लूँगा तो वह भी महान्, अर्थात् व्यर्थ न मरूँ धर्म्ममार्ग में जान दूँ | जब मेरी आकांक्षा ऊँची हो गई है तो - मा नो अकृते पुरुहूत योनौ टूटे-फूटे, उजड़े घर में न स्थापित कर | घर मिले, तो परिष्कृत, भूषित, सजा हुआ | योनि मिले तो परिष्कृत जिस में परिष्कार के सब साधन प्रस्तुत हों | घर दिया, किन्तु खाने को न दिया, तो घर व्यर्थ है | अतः - क्षुध्यद्भ्यो वय आसुतिं दाः भूखों को 'वयः' = कमनीय अन्न, जीवनप्रद अन्न तथा पान दे | वेद कंगाली के जीवन का विरोधी है | वेद में एक स्थान पर आया है - मोषु वरुण मृन्मयं गृहं राजन्नहं गमम् (ऋ. 7|89|1) हे राजन् ! वरुण ! मैं मिट्टी के घर को प्राप्त न होऊँ | पक्का तथा सहस्रस्थूण = हजारों खम्भोंवाला घर चाहिए |