कितने खेले
खेल बचपन में , याद आएंगे वो उम्र पचपन में। गिल्ली डंडा, लट्टू को घुमाना, गिलहरी में फिर साथी को सताना। खो खो बड़ा पसन्दीदा लगता, अंटी तो माँ को ही अच्छा न लगता। जमा करते बड़े भैया जब अंटी, माँ डाँट कर घर से बाहर फेंक देती। सांप सीडी में साँप से काटे जाते, लूडो में तो हम कभी न हारते। गुड़िया का छोटा सा घर बनाते, रंग बिरंगे पत्थरों से सजाते, शादी जब होती उसकी तो, तीन दिन खाना भी न खाते। इक्का दुक्का पसन्दीदा
खेल था, मीनार खेल में हाथ तुड़ाया था। फिर घर जाकर माँ ने हमको, और ज्यादा बड़ा सितारा दिखाया था। कभी न भूल सकती उस मार को, और फिर पापा के समझाने और उनके दुलार को। बोले थे जो आज माँ अकेले होती, बोलो तो जरा सब कैसे सम्भालती। गुट्टे तो हमको आज भी हैं भाते, कर्जा होता है माँ कहती और भाई गुट्टे उठाकर दूर फेंक देते। पहिया भाई जब जब चलाता, घर आकर फिर मार जरूर खाता। छुप्पन छुपाई में हमेशा धप्पी लग जाती, #सखी पगली किसी को ढूंढ ही न पाती। मगर जब खुद जो छुप जाती, फिर तो किसी को नजर न आती। कौआ उड़, चिड़िया उड़ पापा के साथ खूब खेला, चिड़िया के साथ हाथी गाय घोड़े सब उड़ाते, और फिर सजा के तौर पर, पापा कभी उल्टी गिनती गिनाते, या फिर मुश्किल सी पहेली बुझाते। रात को जब कभी बिजली रानी जाती, पापा हमारे संग बच्चे हो जाते। माँ को रसोई से कभी फुरसत ही न मिलती, इतने सारे हम लोग ऊपर से खूब मेहमान आते। याद हैं सब बचपन के वो खेल खिलौने, वो गुड़िया, वो लट्टू, वो गुट्टे, वो लाल बॉल, क्रिकेट हो या हॉकी, दौड़ हो या कब्बडी, हमने हर खेल बचपन में खेला है, और बड़े हुए तो कहते हैं ये जिंदगी उफ्फ झमेला है। 🤣🤣😂😜 ©सखी