नई दिल्ली : अपनी-अपनी मजबूरियों के चलते कांग्रेस और समाजवादी पार्टी हाथ मिलाकर चुनाव की वैतरणी में उतारना चाहते हैं. दोनों को डूबने का डर है और दोनों ही हाथ पकड़ कर उभरने का प्रयास कर रहे हैं. इस बात के संकेत पहले प्रशांत किशोर ने दिए थे और अब अखिलेश ने मीडिया से मुस्करा कर इशारा किया है कि राहुल से दोस्ती करने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है.
ब्राह्मण नेताओं का मोहभंग नहीं हुआ बीजेपी से
अखिलेश की इस बात के बाद लखनऊ में अटकलों का दौर शुरू हो गया है. सत्ता के गलियारों से लेकर विधानसभा सचिवालय तक गुरुवार को यह बात चर्चा का विषय बनी रही कि क्या सपा- कांग्रेस से अगले विधानसभा चुनाव में हाथ थम कर चुनाव लड़ेगी. मुलायम के करीबियों के मुताबिक बसपा का साथ छोड़कर ब्राह्मण नेताओं ने सीधे बीजेपी का दामन थाम लिया है. जिसके चलते यूपी में शीला दीक्षित को सीएम पद का उम्मीदवार घोषित किये जाने के बाद भी कांग्रेस को कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगी है.
शीला-राजब्बर कांग्रेस को नहीं कर सके मजबूत
सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस ने जिस उद्देश्य को लेकर शीला दीक्षित को यूपी का सीएम पद का उम्मीदवार घोषित किया था. उसका कोई फर्क यहां नहीं पड़ा है. दरअसल ब्राह्मण मतदाताओं का मोह अभी भी बीजेपी से भंग नहीं हो पाया है. इतना ही नहीं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बनाये गए राजब्बर भी, जिनसे यह उम्मीद कांग्रेस लगाए बैठी थी कि उनके अध्यक्ष बनाये जाने से मुस्लिम मतदाता पार्टी से जुड़ेंगे. लेकिन वह भी कुछ खास चमत्कार यहां नहीं दिखा पाए हैं.
लक्ष्य अधूरा रह जाने का डर कांग्रेस को
मालूम हो कि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने यूपी की 403 सीटों में से मात्र 29 सीटों पर ही अपना विजय पताका फहराया था. इस बार प्रशांत किशोर को चुनाव की कमान हाथों में देकर राहुल कम से कम यूपी में 80 सीटों पर जीत हासिल करने के लक्ष्य को लेकर चल रहे थे, लेकिन कांग्रेस की इन उम्मीदों पर पानी फिरता दिख रहा है. उधर सपा ने भले ही सूबे में अपना चुनावी सर्वे कराकर अपने को सबसे बड़ी पार्टी यूपी में मानकर चल रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि दोनों ही पार्टियों को पछाड़ कर बीजेपी इन सबसे ऊपर निकल चुकी है.
बीजेपी को लेकर सपा भयभीत
सूत्रों के मुताबिक सपा को उम्मीद थी कि वह कम से कम यूपी में 140 सीटें तो जीत ही लेगी, लेकिन बीजेपी के इस दौड़ में आगे निकल जाने के बाद अब सपा को भी इस बात का डर भीतर ही भीतर सता रहा है कि अगर वह इतनी बड़ी जीत हासिल नहीं कर सकी तो दोबारा से उनकी सरकार कैसे बन सकेगी. यही नहीं बीजेपी के साथ दलितों कि भी कई जातियों का खुलकर समर्थन है. इन जातियों में खटिक, बाल्मीकि और लोध राजपूत वोट प्रमुख है.
पीके के सामने एक विकल्प सपा
दरअसल पीके भी यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि यूपी में बीजेपी और बसपा से अगर टक्कर लेनी है तो बीजेपी को उखाड़ फेंकने के लिए यूपी में सपा ही एकमात्र पार्टी ऐसी है, जिससे गठबंधन करके बीजेपी को शिकस्त दी जा सकती है. और इधर गुरुवार को यूपी के सीएम अखिलेश यादव ने मीडिया से बात करते हुए यह बात बोल दी है कि राहुल अच्छे इंसान हैं. वह यूपी में सभाओं के लिए आते रहेंगे तो दोस्ती हो ही जाएगी. मतलब साफ है कि सपा और कांग्रेस यूपी में एक दूसरे से आने वाले दिनों में हाथ मिला सकती हैं.
क्या कहते है राजनीति क विशेषज्ञ ?
इस बाबत वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल ने 'इंडिया संवाद से बात करते हुए बताया कि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. लाल के मुताबिक दोनों ही पार्टियों की लड़ाई बीजेपी को परास्त करना है. इसलिए दोनों एक दूसरे से हाथ मिला लें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है. इसी तरह स्वतंत्र पत्रकार निरंकार सिंह का मानना है कि राहुल तो यूपी में बिहार जैसा एक मोर्चा बनाना चाहते थे, लेकिन यहां बीजेपी और बसपा के रहते यह संभव नहीं है. इसलिए उनके पास एक मात्र पार्टी सपा ही है, जो उनके साथ गठबंधन कर सकती है.
सपा को सता रहा है भय
दरअसल सपा अगर यूपी में कांग्रेस से हाथ मिलाती है तो साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में उसे इसका लाभ मिलेगा. सिंह के मुताबिक सपा का केंद्र में सरकार बनाने का सपना कांग्रेस से हाथ मिलाने के बाद ही संभव है. फिलहाल अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पूर्व यूपी की सियासत में हो रहे उतार चढ़ाव को लेकर कहीं न कहीं सपा को भी भीतर ही भीतर यह डर सताने लगा है कि कहीं जो सोचकर वह बैठे है, वह फार्मूला फेल न हो जाये. बहरहाल यूपी में पिछले दिनों राजनीति में जो उतार चढ़ाव सामने आया है उससे यह बात साफ हो गयी है की बीजेपी सूबे में सबसे अधिक स्ट्रांग पार्टी बनती जा रही है