ईयर एंड होने का वक्त आ गया है. तो ईयर एंडर का वक्त भी आ गया है. साल में क्या चला, क्या नहीं चला, किसने ‘बज़’ क्रिएट किया. इन सब का हिसाब किताब. ये वाला ईयर एंडर भी ऐसा ही है. इसमें हमने उन लोगों को शामिल किया है, जो इस साल इस दुनिया से रुखसत हुए. अब रुखसत होना कोई नई बात नहीं. जो आ गया, उसे जाना भी होता है. लेकिन कुछ लोग होते हैं ऐसे जो अपनी ज़िंदगी में ऐसा कुछ कर गुजरते हैं, जिससे उनकी एक छाप छूट जाती है. उनके जाने के बाद भी उनकी ये छाप बनी रहती है और दुनिया कुछ खाली-खाली सी लगती है. हमने ऐसे पांच नामों की सूची बनाई है –
#1 किशोरी आमोणकर 10 अप्रैल 1932 – 3 अप्रैल 2017
हिंदुस्तानी संगीत जिन लोगों के कारण भी जाना जाता है, उनमें किशोरी बहुत ही बड़ा नाम थीं. वो अपने ख्याल, ठुमरी और मीरा के भजनों के लिए जानी गईं. इसके अलावा उनके चाहने वाले मांड और राग भैरवी के लिए भी उनको याद रखेंगे. किशोरी की पहली गुरु, माने उनकी मां मोघूबाई कुर्दीकार भी बहुत बड़ी गायिका थीं. बाद में उन्होंने भिंडीबाजार घराने की अंजनीबाई मालपेकर से भी गाना सीखा. मालपेकर ही थीं, जिन्होंने कुमार गंधर्व को भी शिक्षा दी थी.
किशोरी आमोणकर की खासियत थी कि वो गाते हुए लंबे आलाप लेती थीं. कहती थीं कि संगीत स्वरों की भाषा है और वो स्वरों की दुनिया से ही आई हैं. शायद इसीलिए बातूनी पत्रकारों से वो दूर ही रहती थीं. किशोरी आमोणकर को जयपुर घराना स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है. रही बात सम्मानों की तो वो शंकराचार्य के मुंह से अपने लिए गान सरस्वती विदुषी किशोरी आमोणकर सुन कर खुश थीं. पद्म भूषण और पद्म विभूषण उनके पास थे, लेकिन उन्होंने इन इनामों को गिना नहीं कुछ. भारत रत्न सचिन को उनसे पहले मिल चुका था, तो उन्हें रुचि नहीं बची थी.
#2 लीला सेठ – (20 अक्टूबर 1930 – 5 मई 2017)
लीला सेठ के नाम के साथ कई दफे ‘पहली’ जुड़ता है. वो लंदन बार के इम्तिहान को टॉप करने वाली पहली औरत थीं. दिल्ली हाईकोर्ट में जज बनने वाली पहली औरत थीं. और वही हिंदुस्तान की किसी हाईकोर्ट (हिमाचल प्रदेश, 1991) की चीफ जस्टिस बनने वाली पहली औरत भी थीं. कानून से उनके प्यार को यूं समझिए कि 1959 में उन्होंने आईएएस की परीक्षा पास कर ली थी, लेकिन जॉइन किया लंदन बार.
लेकिन पूरी ज़िंदगी बस कानून को ही नहीं दी. शक्तिमान सीरियल का बच्चों के दिमाग पर क्या असर पड़ा, ये मालूम करने की ज़िम्मेदारी भी लीला को ही मिली थी. दिल्ली गैंगरेप के बाद बनी जस्टिस जे एस वर्मा कमिटी का हिस्सा बनीं, तो अपनी रिपोर्ट में लिखा कि बलात्कारियों को फांसी देने या नपुंसक बनाए जाने के खिलाफ हैं.
लीला मानती थीं कि संविधान देश के सभी लोगों की समझ में आना चाहिए. लेकिन ऐसी कोई किताब थी नहीं, जो बच्चों को उनकी भाषा में संविधान समझाती. ये कमी लीला ने खुद एक किताब लिख कर पूरी की. लीला सेठ सिर्फ लीला सेठ भर नहीं थीं. वो हिंदुस्तानी अंग्रेज़ी कविता में बड़े नाम विक्रम सेठ की मां भी थीं. लीला की वसीयत के मुताबिक उनके जाने के बाद उनके शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया गया. उसे दिल्ली के आर्मी रिसर्च एंड रेफरल अस्पताल को दान कर दिया गया था.
#3 प्रोफेसर यशपाल (26 नवंबर 1926 – 24 जुलाई 2017)
गैस पर पतीला रखने पर कुछ देर के लिए उस पर ओस सी जम जाती है. ये देखकर अगर ऐसे सवाल आपके ज़ेहन में ‘ऐसा क्यों?’ आता है, तो आप प्रोफेसर यशपाल को सबसे ज़्यादा मिस करेंगे. प्रोफेसर यशपाल ने फिज़िक्स को ज़िंदगी दी. खूब पढ़े और रिसर्च की. भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में भी रहे. लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा याद किया जाता है एक साइंस कम्यूनिकेटर के तौर पर. दूरदर्शन पर आने वाले साइंस शो टर्निंग पॉइन्ट पर आकर उन्होंने एक पूरी पीढ़ी को उसके आस-पास के माहौल में पैदा होने वाले बेसिक सवालों के पीछे का साइंस समझाया, वो भी आसान भाषा में. लोगों में सूर्यग्रहण-चंद्रग्रहण को लेकर अंधविश्वास दूर हों, इसके लिए यशपाल ने सामूहिक रूप से लोगों को ग्रहण दिखाने के लिए कैंप लगाए.
यशपाल की एक पहचान एक अलहदा शिक्षाविद के तौर पर भी थी. जब उनसे भारत के स्कूलों में पढ़ाई सुधारने पर काम करने को कहा गया, तो उन्होंने अपनी रिपोर्ट ‘लर्निंग विदाउट बर्डन’ नाम से बनाई. उनका मानना था कि हर बच्चा स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु होता है. तो उसके अंदर एक वै ज्ञान िक छुपा होता है. यही मानव स्वभाव है. लेकिन हम बेकार की जानकारी लाद कर उसे खत्म कर देते हैं. उनके लिए समझना रटे हुए को दोहरा देना नहीं था. उनके लिए समझना वो था, जिसके बाद मज़ा आए. इसीलिए वो IIT कोचिंग में होने वाली ट्रिक – मेथड पढ़ाई के सख्त खिलाफ थे.
#4 गिरिजा देवी (8 मई 1929 – 24 अक्टूबर 2017)
बनारस घराने की गिरिजा देवी. रात के तीसरे पहर में जब गिरिजा देवी अपनी मनपसंद ठुमरियों में से एक ‘रस से भरे तोरे नैन’ या फिर ‘बाबुल मोरा नैहर’ गाती थीं, तो लोग सांसें रोककर उनके गाने सुनते थे. आलाप लेतीं तो ऐसा कि खुद ही किसी दूसरी दुनिया में पहुंच जातीं और लोगों के पास तो महसूस करने के लिए जैसे कुछ होता ही नहीं था. गिरिजा देवी से जब मिलो, मुंह में पान दबाए रहतीं. देश-दुनिया कहीं भी प्रस्तुति हो, जुबान पर भगवान भोलेनाथ और उनकी नगरी काशी का नाम लिए बिना प्रस्तुति पूरी ही नहीं होती थी.
और जादू उनके गले भर में नहीं था. उनका पहनावा और उनके रेशमी बाल देखने वाले के दिल में एक रहस्यमयी किरदार उभार देते थे. गिरिजा देवी ने अलग-अलग विधाओं में गाया – खयाल, टप्पा, दादरा, तराना, चैती, होरी और भजन. लेकिन उनके लिए खास ठुमरी ही रही. ठुमरी को आज दुनिया जानती है, तो गिरिजा देवी की वजह से ही.
#5 शशि कपूर – (18 मार्च 1938 – 4 दिसंबर 1917)
शशि कपूर का पहला प्यार फिल्में नहीं, थिएटर था. पृथ्वी थिएटर को उन्होंने खूब सींचा. जब थिएटर के लिए पैसे की कमी होने लगी, तो फिल्मों में काम करना शुरू किया, लेकिन यश चोपड़ा के साथ बनाई ‘धर्मपुत्र’ अौर बिमल राय के साथ बनाई ‘प्रेमपत्र’ फ्लॉप हो गईं और उनके ऊपर ‘मनहूस’ नायक का ठप्पा लग गया. और जब सिक्का कुछ चलने लगा, वो ‘लीजेंड्री एक्टर राज कपूर के छोटे भाई’ रहे. ‘दीवार’ हमेशा ‘अमिताभ की फिल्म’ के तौर पर ज़्यादा याद की जाती है.
लेकिन शशि ने अपनी ज़िंदगी में ऐसा काफी कुछ किया जो ज़िक्र के लायक है. कमर्शियल सिनेमा में काम करते हुए उन्होंने अपना काफी वक्त समानांतर सिनेमा को सींचने में लगाया. श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों के साथ अच्छी, प्रयोगधर्मी फिल्में बनाईं. ऐसी फिल्में, जिन्हें दुनियाभर में बेहिचक रिलीज़ किया जा सकता था, जिनमें ‘विश्व सिनेमा’ का हिस्सा बनने लायक कॉन्टेंट होता था. और इस सब में मुनाफा कमाने के लिए नेगेटिव से आगे जाकर वीडियो के माध्यम को टटोला. इस लिहाज़ से पृथ्वीराज कपूर और फिर राज कपूर की विरासत को असल में शशि ने ही आगे बढ़ाया. भरी पूरी उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले शशि हमारी मांओं और दादियों को हमेशा उस लड़के के तौर पर याद रहेंगे जिसके टेढ़े-मेढ़े दांत और घुंघराले बाल उन्हें बहुत पसंद थे.
यह लेख लल्लनटॉप के निखिल द्वारा लिखा गया है