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शिवदत्त श्रोत्रिय

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काम और उम्र के बोझ से झुकने लगा हूँ मैंअनायास ही चलते-चलते अब रुकने लगा हूँ मैंकितनी भी करू कोशिश खुद को छिपाने कीसच ही तो है, पिता के जैसा दिखने लगा हूँ मैं ||

कवि: शिवदत्त श्रोत्रियबेटी तुम्हारे आँचल में जहां की खुशियां भर देती हैतुम्हारी चार दीवारों को मुकम्मल घर कर देती है ॥बेटी धरा पर खुदा की कुदरत का नायाब नमूना हैबेटी न हो जिस घर में, उस घर का आँगन सूना है ॥बेटी माँ से ही, धीरे-धीरे माँ होना सीखती जाती हैबेटी माँ को उसके बचपन का आभास कराती है ॥बेटी

कवि: शिवदत्त श्रोत्रियसरहद, जो खुदा ने बनाई||मछली की सरहद पानी का किनाराशेर की सरहद उस जंगल का छोरपतंग जी सरहद, उसकी डोर ||हर किसी ने अपनी सरहद जानीपर इंसान ने किसी की कहाँ मानी||मछली मर गयी जब उसे पानी से निकालाशेर का न पूछो, तो पूरा जंगल जला डाला ||ना जाने कितनी पतंगो की डोर काट दीना जाने कितनी स

कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय हर किसी की ज़ुबाँ पर बस यही सवाल है करने वाले कह रहे, देश का बुरा हाल है|| नेता जी की पार्टी मे फेका गया मटन पुलाव जनता की थाली से आज रूठी हुई दाल है|| राशन के थैले का ख़ालीपन बढ़ने लगा हर दिन हर पल हर कोई यहाँ बेहाल है|| पैसे ने अपनो क

कवि:- शिवदत्त श्रोत्रियहर पहर, हर घड़ी रहता है जागताबिना रुके बिना थके रहता है भागताकुछ नही रखना है इसे अपने पाससागर से, नदी से, तालाबो से माँगतादिन रात सब कुछ लूटाकर, बादलदाग काला दामन पर सहता यहाँ है||देने वाला देकर कुछ कहता कहाँ है...हर दिन की रोशनी रात का अंधेराजिसकी वजह से है सुबह का सवेराअगर र

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