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डॉ.निशा गुप्ता साहित्यिक नाम डॉ. निशा नंदिनी भारतीय का जन्म 13 सितंबर 1962 में उत्तर प्रदेश के  रामपुर जिले में हुआ था। पिता स्वर्गीय बैजनाथ गुप्ता रामपुर चीनी मिल में अभियंता थे और माता स्वर्गीय राधा

इस विचित्र खेल का अन्त क्या, कहाँ, कब होगा? विवेक कहता है, प्रत्येक घटना, जिस का कहीं आरम्भ होता है, कहीं न कहीं समाप्त होती है। तो फिर यह प्रणय, जिस का उद्भव एक मधुर स्वप्न में हुआ था, कहाँ तक चला ज

ये सब कितने नीरस जीवन के लक्षण हैं? मेरे लिए जीवन के प्रति ऐसा सामान्य उपेक्षा-भाव असम्भव है। सहस्रों वर्ष की ऐतिहासिक परम्परा, लाखों वर्ष की जातीय वसीयत इस के विरुद्ध है। मेरी नस-नस में उस सनातन जीव

वधुके, उठो! रात्रि के अवसान की घनघोर तमिस्रता में, अनागता उषा की प्रतीक्षा की अवसादपूर्ण थकान में हम जाग रहे हैं, मैं और तुम! हमारे प्रणय की रात- हमारे प्रणय की उत्तप्त वासना-ज्वाला में डूबी हुई रात

आओ, एक खेल खेलें! मैं आदिम पुरुष बनूँगा, तुम पहली मानव-वधुका। पहला पातक अपना ही हो परिणय, यौवन-मधु का! पथ-विमुख करे वह, जग की कुत्सा का पात्र बनावे; दृढ़ नाग-पाश में बाँधे पाताल-लोक ले जावे! नि

विद्युद्गति में सुप्त विकलता खोयी-सी बहती है, घन की तड़पन में पुकार-सी कुछ उलझी रहती है; उस प्रवाह से एक कली ही चुन तो लो! देवी, सुन तो लो यह प्रवास-रजनी क्या कहती है क्षण-भर रुक कर सुन तो लो! 'आ

प्राण-वधूटी! अन्तर की दुर्जयता तुमने लूटी! गौरव-दृप्त दुराशाएँ, अभिमानिनी हुताशाएँ, स्वीकृति-भर से ही कर डालीं झूटी! प्राण-वधूटी! दानशीलता खो डाली - दम्भ मलिनता धो डाली! अहंमन्यता की छाया भी

प्रिये, तनिक बाहर तो आओ, तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ! रुष्ट प्रतीची के दीवट पर करुण प्रणय का दीप जला है लिये अलक्षित अनुनय-अंजलि किसे मनाने आज चला है? प्रिये, इधर तो देखो, तुम से इस का उत्तर पाऊँ!

इतने काल से मैं जीवन की उस मधुर पूर्ति की खोज करता रहा हूँ- जीवन का सौन्दर्य, कविता, प्रेम...और अब मैंने उसे पा लिया है। यह एक मृदुल, मधुर, स्निग्ध शीतलता की तरह मुझ में व्याप्त हो गयी है। किन्तु इस

तुम गूजरी हो, मैं तुम्हारे हाथ की वंशी। तुम्हारे श्वास की एक कम्पन से मैं अनिर्वचनीय माधुर्य-भरे संगीत में ध्वनित हो उठता हूँ। ये गायें हमारे असंख्य जीवनों के असंख्य प्रणयों की स्मृतियाँ हैं। वंशी

मेरा-तुम्हारा प्रणय इस जीवन की सीमाओं से बँधा नहीं है। इस जीवन को मैं पहले धारण कर चुका हूँ। पढ़ते-पढ़ते, बैठे-बैठे, सोते हुए एकाएक जाग कर, जब भी तुम्हारी कल्पना करता हूँ, मेरे अन्दर कहीं बहुत-स

कैसे कहूँ कि तेरे पास आते समय मेरी काया अमलिन, सम्पूर्ण और पवित्र है या कि मेरी आत्मा अनाहत, अविच्छिन्न है? क्योंकि तुझ तक पहुँचने में, तेरी खोज में बिताये हुए अपने भूखे जीवन में क्या मुझे भयंकर अन्ध

तुम्हारा जो प्रेम अनन्त है, जिसे प्रस्फुटन के लिए असीम अवकाश चाहिए, उसे मैं इस छोटी-सी मेखला में बाँध देना चाहता हूँ!  तुम मेरे जीवन-वृक्ष की फूल मात्र नहीं हो, मेरी सम-सुख-दु:खिनी, मेरी संगिनी, मेरे

प्राण, तुम आज चिन्तित क्यों हो? चिन्ता हम पुरुषों का अधिकार है। तुम केवल आनन्द से दीप्त रहने को, सब ओर अपनी कान्ति की आभा फैलाने को हो। फूल डाल पर फूलता मात्र है, उस का जीवन-रस किस प्रकार भूमि से खी

जाने किस दूर वन-प्रान्तर से उड़ कर आया एक धूलि-कण। ग्रीष्म ने तपाया उसे, शीत ने सताया उसे, भव ने उपेक्षा के समुद्र में डुबाया उसे, पर उस में थी कुछ ऐसी एक धीरता जीवन-समर में थी ऐसी कुछ वीरता, जग

फूला कहीं एक फूल! विटप के भाल पर, दूर किसी एक स्निग्ध डाल पर, एक फूल - खिला अनजाने में। मलय-समीर उसे पा न सकी, ग्रीष्म की भी गरिमा झुका न सकी सुरभि को उस की छिपा न सकी शिशिर की मृत्यु-धूल! फूल

गये दिनों में औरों से भी मैं ने प्रणय किया है मीठा, कोमल, स्निग्ध और चिर-अस्थिर प्रेम दिया है। आज किन्तु, प्रियतम! जागी प्राणों में अभिनव पीड़ा यह रस किसने इस जीवन में दो-दो बार पिया है? वृक्ष खड़

मैं अपने को एकदम उत्सर्ग कर देना चाहता हूँ, किन्तु कर नहीं पाता। मेरी इस उत्सर्ग-चेष्टा को तुम समझतीं ही नहीं। अगर मैं सौ वर्ष भी जी सकूँ, और तुम मुझे देखती रहो, तो मुझे नहीं समझ पाओगी। इस लिए नहीं

आ जाना प्रिय आ जाना! अपनी एक हँसी में मेरे आँसू लाख डुबा जाना! हा हृत्तन्त्री का तार-तार, पीड़ा से झंकृत बार-बार- कोमल निज नीहार-स्पर्श से उस की तड़प सुला जाना। फैला वन में घन-अन्धकार, भूला मैं जा

तेरी आँखों में क्या मद है जिस को पीने आता हूँ जिस को पी कर प्रणय-पाश में तेरे मैं बँध जाता हूँ? तेरे उर में क्या सुवर्ण है जिस को लेने आता हूँ जिस को लेते हृदय-द्वार की राह भूल मैं जाता हूँ? तेरी

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