जीवन को न्यौछावर करके तुच्छ सुखों को लेखा।
अर्पण कर सब कुछ चरणों पर तुम में ही सब देखा।।
थे तुम मेरे इष्ट देवता, अधिक प्राण से प्यारे।
तन से, मन से, इस जीवन से कभी न थे तुम न्यारे।।
अपना तुमको समझ, समझती थी, हूँ सखी तुम्हारी।
तुम मुझको प्यारे हो, मैं तुम्हें प्राण से प्यारी।।
दुनिया की परवाह नहीं थी, तुम में ही थी भूली।
पाकर तुम-सा सुहृद, गर्व से फिरती थी मैं फूली।।
तुमको सुखी देखना ही था जीवन का सुख मेरा।
तुमको दुखी देखकर पाती थी मैं कष्ट घनेरा।।
‘मेरे तो गिरधर गोपाल तुम और न दूजा कोई।।’
गाते-गाते कई बार हो प्रेम-विकल हूँ रोई।।
मेरे हृदय-पटल पर अंकित है प्रिय नाम तुम्हारा।
हृदय देश पर पूर्ण रूप से है साम्राज्य तुम्हारा।।
है विराजती मन-मन्दिर में सुन्दर मूर्ति तुम्हारी।
प्रियतम की उस सौम्य मूर्ति की हूँ मैं भक्त पुजारी।।
किन्तु हाय! जब अवसर पाकर मैंने तुमको पाया।
उस नि:स्वार्थ प्रेम की पूजा को तुमने ठुकराया।।
मैं फूली फिरती थी बनकर प्रिय चरणों की चेरी।
किन्तु तुम्हारे निठुर हृदय में नहीं चाह थी मेरी।।
मेरे मन में घर कर तुमने निज अधिकार बढ़ाया।
किन्तु तुम्हारे मन में मैंने तिल भर ठौर न पाया।।
अब जीवन का ध्येय यही है तुमको सुखी बनाना।
लगी हुई सेवा में प्यारे! चरणों पर बलि जाना।।
मुझे भुला दो या ठुकरा दो, कर लो जो कुछ भावे।
लेकिन यह आशा का अंकुर नहीं सूखने पावे।।
करके कृपा कभी दे देना शीतल जल के छींटे।
अवसर पाकर वृक्ष बने यह, दे फल शायद मीठे ॥