देश, जाति के अध:पतन का मूल है।
उन्नति का बाधक अपयश का कोष है।
कार्य्-सिध्दि के लिए कृतान्त-स्वरूप है।
अति निन्दित आरम्भ-शूरता दोष है।1।
वह साहस है जल-बुद्बुद सा बिनसता।
वह उत्साह प्रभात-सोम से है बढ़ा।
वह उमंग है सिकता-विरचित भीत सी।
जिस पर है आरम्भ शूरता रँग चढ़ा।2।
उसने देखा कभी सफलता-मुख नहीं।
कभी कामना-वेलि नहीं उसकी खिली।
कभी न उसका भाग्य-गगन उज्ज्वल हुआ।
जिसकी कृति आरम्भ-शूरता से हिली।3।
वह उद्योग-समूह मिलेगा धूल में।
वह सयत्नता होगी असफलता ग्रसी।
वह प्रिय कार्य सकेगा नहिं सम्पन्न हो।
जिसमें है आरम्भ-शूरता आ बसी।4।
डूब गया गौरव-मयंक निज कान्ति खो।
हुई अचानक लोप देश-शोभी कला।
किसी काल में कहीं किसी समुदाय का।
हुआ नहीं आरम्भ-शूरता से भला।5।
किन्तु बात यह कहते होता हूँ व्यथित।
हम लोगों में यह अवगुण है अधिकतर।
इसीलिए है जगत यही अवलोकता।
सकते नहीं महान कार्य हम एक कर।6।
धूम धाम से खुलीं सभाएँ सैकड़ों।
सँभलीं नहीं अकाल काल-कवलित हुईं।
पड़ कर इस आरम्भ शूरता-पेच में।
असमय बुझीं अनेक लोक-हित-कर धुईं।7।
समारम्भ ही जिसका सिध्दि-निदान था।
पल में जिसकी विपुल-विघ्न-बाधा नसी।
आज उसी जड़-भूता हिन्दू जाति की।
नस नस में आरम्भ-शूरता है धाँसी।8।
कभी प्रगटती है वह मिस आलस्य के।
कभी हेतु बनती है कल्पित-सभ्यता।
कलह, अमूलक हिंसा, असहन-शीलता।
कभी उसे उपजाती है अल्पज्ञता।9।
नहिं करते आरम्म विघ्न-भय से अधाम।
विघ्न हुए मधयम जन हैं मुख मोड़ते।
बाधा विघ्न सहसो सम्मुख आ पड़े।
उत्तम जन आरम्भ कर नहीं छोड़ते।10।
यह सुउक्ति है युक्तिमयी जिस जाति की।
क्यों उसमें आरम्भ-शूरता आज की।
और कहूँ क्या मैं इतना ही कहूँगा।
उसमें है कर्तव्य-शीलता की कमी।11।
किन्तु कथन करता हूँ यह स्वर तार से।
सुन ऐ हिन्दू जाति ज्ञान-गौरवमयी।
बिना तजे आरम्भ-शूरता दोष को।
कभी न होगी कर्म क्षेत्र में तू जयी।12।