न तो हिलाती गगन न तो हरि हृदय कँपाती।
न तो निपीड़क उर को है भय-मीत बनाती।
निपट-निराशा-भरी निकल चुपचाप बदन से।
दीन-आह दुख साथ वायु में है मिल जाती।1।
उसकी बेधाकता का परिचय पाने वाला।
उसकी दुख-मयता को जी में लाने वाला।
देखा जाता नहीं, कहीं कोई होता है।
दीन-आह में अपनी आह मिलाने वाला।2।
बार बार अपने उर को मथ कर अकुलाती।
अमित-ताप-परिताप भरी होठों पर आती।
फिर सहती अपमान शून्य में लय होती है।
दीन-जनों की आह नहीं कुछ भी कर पाती।3।
सुनते हैं उससे है पाहन भी भय पाता।
उससे है ईश्वर का आसन भी डिग जाता।
किन्तु बात यह सब कहने सुनने ही की है।
दीन-आह का एक विफलता से है नाता।4।
वीर आह के तुल्य नहीं वह लहू बहाती।
सबल-आह के सदृश नहीं वह लोथ ढहाती।
आशंकित कर धीर-आह के सम नहिं होती।
वह अपना ही हृदय मथन कर है रह जाती।5।
वैसी ही उससे होती दिन रात ठगी है।
वही दीनता अब भी उसकी बनी सगी है।
कौशल है, अति गूढ़ चातुरी है, यह कहना।
दीन-आह पर हरि स्वीकृति की छाप लगी है।6।
पवि कठोर को धूल बना कर धर सकती है।
लोक-दाहक दुसह अंगारे झर सकती है।
किसी दयालु-हृदय से निकली हैं ये बातें।
आह दीन की भला नहीं क्या कर सकती है।7।
सभी सताने वाले निज कर मलते होते।
पड़ विपत्तियों में दिन रात विचलते होते।
जो दीनों की आह में जलन कुछ भी होती।
ऊँचे ऊँचे महल आज तो जलते होते।8।
चहल पहल है जहाँ वहाँ मातम छा जाता।
स्वर्ग-छटा है जहाँ वहाँ रौरव उठ आता।
दीन आह की धवनि यदि हरि-कानों में जाती।
नन्दन-वन है जहाँ आज मरु वहाँ दिखाता।9।
किया लोक-हित विबुध-जनों में धर्म कमाया।
जो उनको सब काल प्रभाव-मयी बतलाया।
किन्तु जानकर मर्म दीन-जन की आहों का।
भला, कलेजा किसका है मुँह को नहिं आया।10।