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रुक्मिणी-सन्देश

13 जून 2022

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परम रम्य था नगर एक कुण्डिनपुर नामक।

जहाँ राज्य करते थे नृप-कुल-भूषण भीष्मक।

सकल-सम्पदा-सुकृति-धाम था नगर मनोहर।

वहाँ उलहती बेलि नीति की थी अति सुन्दर।1।


एक सुता थी परम-दिव्य उनकी गुणवाली।

रूप-राशि से ढँकी अलौकिक साँचे ढाली।

थी अपूर्व मुख-ज्योति छलकती थी छबि न्यारी।

नाम रुक्मिणी था, वह थी सबकी अति प्यारी।2।


जब विवाह के योग्य हुई यह कन्या सुन्दर।

कलह-बीज-अंकुरित हुआ गृह मधय भयंकर।

नृपति, द्वारकाधीश-कृष्ण को देकर कन्या।

उसे चाहते थे करना अवनी-तल-धन्या।3।


रुक्म नाम का एक पुत्र भूपति-वर का था।

परम क्रूर, क्रोधी महान, वह कुटिल महा था।

सहमत वह नहिं हुआ नृपति से पूर्ण रूप से।

उसने निश्चित किया ब्याह शिशुपाल भूप से।4।


यत: रुक्म था बड़ा उम्र अतिशय हठकारी।

शक्तिमान युवराज, राज्य का भी अधिकारी।

अत: नृपति ने व्यर्थ बखेड़ा नहीं बढ़ाया।

माना उसका कहा यदपि वह उन्हें न भाया।5।


उक्त नृपति के निकट रुक्म ने तिलक पठा कर।

ब्याह कार्य के लिए किया लोगों को तत्पर।

तिथि निश्चित हो गयी बात यह सबने जानी।

आता है ब्याहने चेदि भूपति अभिमानी।6।


विबुधा-बरों, गायकों, विविधा गुणियों के द्वारा।

सुयश, श्रवण करके विचित्र, अनुपम अति प्यारा।

यत: हृदय दे चुकी हाथ में थीं यदुवर के।

अत: व्यथित अति हुई रुक्मिणी यह सुन करके।7।


पर सम्भव था नहीं रुक्म का सीधा होना।

उससे कुछ कहना था निज गौरव का खोना।

अत: हुईं वे गुप्त-भाव से उद्यमशीला।

वृथा न रोयीं, औ न बनाया मुखड़ा पीला।8।


सोचा यदि मैं नीति-निपुण गुण-निधि प्रभुवर को।

परम विज्ञ, करुणा-निधान, यदुवंश-प्रवर को।

सकल हृदय का भाव स्वच्छता से जतलाऊँ।

औ लिख कर सन्देश यहाँ का सकल पठाऊँ।9।


तो अवश्य वे अखिल आपदा को टालेंगे।

मर्यादा निश्चय अपने कुल की पालेंगे।

शमन करेंगे ताप हृदय की व्यथा हरेंगे।

सकल हमारी मनोकामना सफल करेंगे।10।


जी में ऐसा सोच लिख एक पत्र उन्होंने।

जिसके अक्षर आँखों पर करते थे टोने।

अपना आशय प्रकट किया यों सम्मत होकर।

हे करुणाकर प्रणत-पाल, यदुवंश-दिवाकर।11।


मैं न कहूँगी एक नृपति की कन्या हूँ मैं।

मुझे लाज लगती है जो परिचय यों दूँ मैं।

बरन कहूँगी हूँ चकोरिका चन्द-बदन की।

प्रभु मैं हूँ चातकी किसी नव-जलधार तन की।12।


पावन पद-पंकज-पराग की मैं भ्रमरी हूँ।

अतिशय अनुपम-रूप-राशि-पानिप-सफरी हूँ।

मैं कुरंगिनी हूँ पवित्र कल-कंठ नाद की।

मैं समुत्सुका-रसना हूँ प्रभु सुयश-स्वाद की।13।


जैसे देखे बिना रूप भी सौरभ का जन।

हो जाता है सानुराग सब काल सुखित वन।

वैसे ही प्रभु-रूप बिना देखे अति प्यारा।

हुई हृदय से सानुराग हूँ तज भ्रम सारा।14।


सुचरित, सद्गुण, सुकृति, आपकी है, महि-व्यापी।

इन सबने ही प्रभु सुमूर्ति है उर में थापी।

रूप-जनित अनुराग क्षणिक है, अस्थायी है।

रूप गये औ मोह नसे नहिं सुखदायी है।15।


पर सद्गुण-सुचरित्र जनित अनुराग सदा ही।

अचल अटल है अत: वही है अति उर-ग्राही।

सुकर उसी के मैं उमंग के साथ बिकी हूँ।

निश्चल, नीरव, समुद, उसी के द्वार टिकी हूँ।16।


एक मूढ़ जन इस मेरे अनुराग-सोत को।

करके गौरव-हीन प्रशंसित, प्रथित गोत को।

निज इच्छा अनुकूल चाहता है लौटाना।

पर उसने यह भेद नहीं अब लौं प्रभु जाना।17।


कौन फेर सकता प्रवाह है सुर-सरिता का।

रोक कौन सकता है जलनिधि-पथ का नाका।

कौन प्रवाहित कर सकता है यत्नों द्वारा।

पश्चिम दिशि में भानु-नन्दिनी की खर धारा।18।


प्रणय-राज्य में बल-प्रयोग अति कायरता है।

मंगल-मय विवाह में कौशल पामरता है।

जिस परिणय का हृदय-मिलन उद्देश्य नहीं है।

वह अवैध है विधि का उसमें लेश नहीं है।19।


जहाँ परस्पर-प्रेम पताका नहिं लहराती।

वहाँ धवजा है कलह कपट की नित फहराती।

प्रणय-कुसुम में कीट स्वार्थ का जहाँ समाया।

वहाँ हुई सुख और शान्ति की कलुषित काया।20।


यह प्रपंच सब अनमिल ब्याहों से होते हैं।

जो दम्पति-जीवन का अनुपम सुख खोते हैं।

अहह प्रभो ऐसा प्रण क्यों भ्राता ने ठाना।

जिससे दुख में मुझको जीवन पड़े बिताना।21।


अब प्रभु तज नहिं अन्य हमारा है हितकारी।

निरवलम्बिनी हो, मैं आई शरण तुम्हारी।

प्रभु-पद-नख की ज्योति हरेगी तिमिर हमारा।

वही एक अवलम्बन है, है वही सहारा।22।


पवन बिना प्राणी, औ मणि विन फणि, जी जावे।

यह सम्भव है त्राण बिना जल मछली पावे।

है परन्तु यह नहिं कदापि संभव मैं जीऊँ।

जो न प्रभु-कृपा-सुधा यथा-रुचि सादर पीऊँ।23।


तरु हरीतिमा नसे, उड़े बिन पंख पखेरू।

हीरा वन जावे, बहु उज्ज्वल होकर गेरू।

जल शीतलता तजे, त्याग गति करे प्रभंजन।

तदपि न होगा मम विचार में कुछ परिवर्तन।24।


नाथ समर्पित हृदय अन्य को कैसे दूँगी।

हूँगी जो सेविका प्रभु-कमल-पग की हूँगी।

कभी अन्यथा नहीं करूँगी मैं न टलूँगी।

विष खाऊँगी, प्राण तजँगी, कर न मलूँगी।25।


मैं हूँ परम अबोध बालिका प्रभु बुधावर हैं।

मैं हूँ बहु दुखपगी आप अति करुणाकर हैं।

मैं हूँ कृपा-भिखारिणि प्रभु अति ही उदार हैं।

मैं हूँ विपत-समुद्र पड़ी प्रभु कर्ण-धार हैं।26।


जैसे मेरी लाज रहे मम धर्म न जावे।

देव-भाग को दनुज न बल-पूर्वक अपनावे।

जिससे कलुषित बने नहीं मम जीवन सारा।

होवे वही, निवेदन है प्रभु यही हमारा।27।


इस प्रकार चीठी लिख वे चिन्ता में डूबीं।

भेजूँ क्यों कर किसे सोच ये बातें ऊबीं।

छिपी नहीं यह बात रहेगी अन्त खुलेगी।

उग्र रुक्म से कभी किसी की नहीं चलेगी।28।


संभव है मम उपकारक को वह दुख देवे।

उसे नाश करके सरवस उसका हर लेवे।

अत: उन्होंने एक योग्य ब्राह्मण के द्वारा।

पत्र द्वारिका नगर भेजना भला विचारा।29।


क्योंकि विप्र का किसी काल में बध नहिं होता।

वह अब्याहत गति में है बहु विघ्न डुबोता।

सखियों द्वारा सब बातें पहले बतलाई।

फिर बुलवा कर उसे आप कोठे पर आई।30।


बातायन में बैठ पत्र को कर में लेकर।

झुकीं विप्र के देने को अति आतुर होकर।

दोनों कर से बसन इधार द्विज ने फैलाया।

लेने को वह पत्र, शीश हो चकित उठाया।31।


इसी काल का चित्र हुआ है अंकित सुन्दर।

देखो द्विज का भाव, रुक्मिणी बदन मनोहर।

यद्यपि धीर, गँभीर, मुखाकृति राज-सुता की।

लोचन स्थिरता, व्यंजक है उर की दृढ़ता की।32।


तदपि सामयिक, उत्सुकता, शंका, चंचलता।

अंकित है की गयी चित्र में सहित निपुणता।

शीश अचानक लज्जा-शीला का खुल जाना।

परम शीघ्रता वश सम्हालने वस्त्र न पाना।33।


पत्र-दान की तन्मयता को है जतलाता।

अति सशंकता, चंचलता है प्रकट दिखाता।

जो असावधाानता हुई थी आतुरता से।

उसको भी है वही बताता चातुरता से।34।


कसी हुई कटि, लोटा डोरी काँधो पर की।

पत्र-ग्रहण की रीति, भाव-भंगी द्विज-वर की।

यात्रा की तत्परता को है सूचित करती।

उर में नाना भाव सरलता का है भरती।35।

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रचनाएँ
प्रेमपुष्पोपहार
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अयोध्या सिंह उपाध्याय का जन्म जिला आजमगढ़ के निजामाबाद नामक स्थान में सन् 1865 ई. में हुआ था। हरिऔध के पिता का नाम भोला सिंह और माता का नाम रुक्मणि देवी था। अस्वस्थता के कारण हरिऔध जी का विद्यालय में पठन-पाठन न हो सका, अतः इन्होंने घर पर ही उर्दू, संस्कृत, फारसी, बांग्ला एवं अंग्रेजी का अध्ययन किया।
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प्रभु-प्रताप

13 जून 2022
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चाँद औ सूरज गगन में घूमते हैं रात दिन। तेज औ तम से, दिशा होती है उजली औ मलिन। वायु बहती है, घटा उठती है, जलती है अगिन। फूल होता है अचानक वज्र से बढ़कर कठिन। जिस अलौकिक देव के अनुकूल केलि-कलाप बल।

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लोकसत्ता

13 जून 2022
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काम बनता निकाम सुन्दर क्यों। कान्ति कमनीयता स्वयं खोती। विधु लालता ललाम होने को। जो न प्रभु की ललामता होती।1। मोहती तरु हरीतिमा कैसे पाते। क्यों गगन नीलिमा लुभा लेती। मंजु तम श्यामघन न बन पाते

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मनोव्यथा

13 जून 2022
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ऐ प्रेम के पयोनिधि भवरुज पियूष प्याले। उपताप ताप पातक परिताप तम उँजाले।1। प्रतिदिन अनेक पीड़ा पीड़ित बना रही है। कब तक रहें निपीड़ित प्रभु पापरिणी पाले।2। चलती नहीं अबल की कुछ सामने सबल के। क

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कामना

13 जून 2022
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सदा भारत-भू फूले फले। सफल कामनाएँ हों उसकी मिले सफलता गले। पुलकित रहे प्रिय सुअन प्रतिदिन सुख पालने में पले। भव-हित-रत भावुक मानस में भरे भाव हों भले। दुख दल दलित रहे, कोई खल कर खलता न खले। छूटे

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विद्या

13 जून 2022
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इस चमकते हुए दिवाकर से। रस बरसते हुए निशाकर से।1। जो अलौकिक प्रकाश वाली है। बहु सरसता भरी निराली है।2। वह जगद्वंदनीय विद्या है। अति अनूठा प्रभाव जिसका है।3। ज्योति रवि की जहाँ नहीं जाती।

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वेद हैं

13 जून 2022
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सब विद्या के मूल, जनक हैं सकल कला के। विविधा-ज्ञान आधार, रसायन हैं अचला के। सुरुचि विचार विवेक विज्ञता के हैं आकर। हैं अपार अज्ञान तिमिर के प्रखर प्रभाकर। परम खिलाड़ी प्रभु करों के लोकोत्तार गेंद

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प्रेमधारा

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उसका ललित प्रवाह लसित सब लोकों में है। उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है। उसकी क्रीड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है। उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है। मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही। वसुंधारा तल पर

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धर्मवीर

13 जून 2022
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  यह जगत जिसके सहारे से सदा फूले-फले। ज्ञान का दीया निराली ज्योति से जिसके जले। आँच में जिसके पिघल कर काँच हीरे सा ढले। जो बड़ा ही दिव्य है, तलछट नहीं जिसके तले। हैं उसे कहते धरम, जिस से टिकी है,

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जीवनमुक्त

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किसे नहीं ललना-ललामता मोहती। विफल नहीं होता उसका टोना कहीं। किसे नहीं उसके विशाल दृग भेदते। किसे कुसुम सायत कंपित करता नहीं।1। निज लपटों से करके दग्ध विपुल हृदय। कलह, वैर, कुवचन-अंगारक प्रसवती।

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देव-बुध्दि

13 जून 2022
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कर लिये करवाल अकुण्ठिता। कनक-कश्यप ने जब यों कहा। तब महाप्रभु क्या परिव्याप्त है। इस महाजड़ प्रस्तर-स्तम्भ में।1। तब अकम्पित औ दृढ़ कण्ठ से। यह कहा प्रहलाद प्रबुध्द ने। जब महाप्रभु व्यापक विश्

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कुलीनता

13 जून 2022
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विवेक, विद्या, सुविचार, सत्यता। क्षमा, दया, सज्जनता, उदारता। क्रिया, सदाचार, परोपकारिता। सदा समाधार कुलीनता रही।1। परन्तु है आज विचित्र ही दशा। विडम्बिना है नित ही कुलीनता। सप्रेम है अर्पित हो

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आरम्भ-शूरता

13 जून 2022
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देश, जाति के अध:पतन का मूल है। उन्नति का बाधक अपयश का कोष है। कार्य्-सिध्दि के लिए कृतान्त-स्वरूप है। अति निन्दित आरम्भ-शूरता दोष है।1। वह साहस है जल-बुद्बुद सा बिनसता। वह उत्साह प्रभात-सोम से

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मन

13 जून 2022
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 बह गये कान्त भक्ति कालिन्दी। कूल जिसके सदा मिले घन तन। बज उठे लोक प्रीति बर बंशी। कौन मन बन गया न बृन्दाबन।1। हैं भले भाव मंजुतम मोती। बहु बिलसता विपुल-विमल रस है। सोहता हंस हंस जैसा है। मान

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पौरुष

13 जून 2022
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क्यों न उसकी सदा रहे चाँदी। पा कनक के नये-नये आकर। जो मनुज-रत्न यत्न कर पाया। क्यों उसे रत्न दे न रत्नाकर।1। जो अमल हैं बिकच कमल जैसे। बुध्दि जिनकी बनी रही बिमला। काम में जो कमाल रखते हैं। मि

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साहित्य

13 जून 2022
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भाव गगन के लिए परम कमनीय कलाधर। रस उपवन के लिए कुसुम कुल विपुल मनोहर। उक्ति अवनि के लिए सलिल सुरसरि का प्यारा। ज्ञान नयन के लिए ज्योतिमय उज्ज्वल तारा। है जन मन मोहन के लिए मधुमय मधुऋतु से न कम। स

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चित्तौड़ की एक शरद रजनी

13 जून 2022
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मयंक मृदु मंद हँस रहा था। असीम नीले अमल गगन में। सुधा अलौकिक बरस रहा था। चमक रहा था छत्र-गन में।1। सुरंजिता हो रही धारा थी। खिली हुई चारु चाँदनी से। रजत-मयी हो गयी बिभा थी। कला कुमुदिनी-विकास

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रुक्मिणी-सन्देश

13 जून 2022
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परम रम्य था नगर एक कुण्डिनपुर नामक। जहाँ राज्य करते थे नृप-कुल-भूषण भीष्मक। सकल-सम्पदा-सुकृति-धाम था नगर मनोहर। वहाँ उलहती बेलि नीति की थी अति सुन्दर।1। एक सुता थी परम-दिव्य उनकी गुणवाली। रूप-र

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सती सीता

13 जून 2022
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वह शरद ऋतु के अनूठे पंकजों सा है खिला। तेज है उसको अलौकिक कान्ति-मानो सा मिला। वह सुधा कमनीय अपने कान्त हाथों से पिला। मर रही सुकल त्राता को है सदा लेता जिला। इस कलंकित मेदिनी में है सतीपन वह रतन।

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सुतवती सीता

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कुसुम सु कोमल अल्प-वयस दो बालकवाली। रहित केश-विन्यास प्रकृति-पावन कर पाली। एक आधा गहने पहने साधारण-वसना। मुख-गंभीरत नहिं जिसकी कह सकती रसना। यह देवि स्वरूपा कौन है बन-भूतल में भ्राजती? कुसुमित पौ

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वीरवर सौमित्र

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कर करवाल लिये रण-भू में निधारक जाना। बिधा कर विशिखादिक से पग पीछे न हटाना। लख कर रुधिर-प्रवाह और उत्तोजित होना। रोम रोम छिद गये न दृढ़ता चित की खोना। गिरते लख करके लोथ पर लोथ देख शिरका पतन। नहिं

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उर्मिला

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किसी ऊबती से न जो जी बचावें। न दुख और का देख जो ऊब जावें। कढ़ी आहें बेचैन जिनको बनावें। जिन्हें प्यार की है परख वे बतावें। किसी दिन भी दो बूँद ऑंसू गिरा कर। हमारी पड़ी आँख है उर्मिला पर।1। उसी

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सच्चा प्रेम

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अमरलोक से आ उतरी सी एक अलौकिक बाला। क्षितितल पर निज छवि छिटकाती करती रूप उँजाला। कलित किनारी बलित परम कमनीय वसन तन पहने। विलसित हैं जिसके अंगों पर रत्न-खचित बर गहने।1। रखे कमल-सम दायें कर पर लोट

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संयुक्ता

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आर्यवंश की विमल कीर्ति की धवजा उड़ाती। क्षत्रिय-कुल-ललना-प्रताप-पौरुष दिखलाती। कायर उर में वीर भाव का बीज उगाती। निबल नसों में नवल रुधिार की धार बहाती। विपुल वाहिनी को लिये अतुल वीरता में भरी। सब

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शिशु-स्नेह

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सहज सुन्दरी अति सुकुमारी भोली भाली। गोरे मुखड़े, बड़ी बड़ी कल आँखों वाली। खिले कमल पर लसे सेवारों से मन भाये। खुले केश, जिसके सुकपोलों पर हैं छाये। बहु-पलक-भरी मन-मोहिनी कुछ भौंहें बाँकी किये। यह

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वामन और बलि

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वामन हैं विभु प्रकृति नियम के नियमनकारी। भव विभुता आधार भुवन प्रभुता अधिकारी। व्यापक विविध विधान विश्व के सविधि विधायक। लोकनीति परलोक प्रथा के प्रगति प्रदायक। जग अभिनय अति कमनीय के वर अभिनेता मोद

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कमल

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ऊपर नभ नीलाभ रक्त रविबिम्ब विराजित। ककुभ परम रमणीय रागद्वारा आरंजित। नीचे पुलकित हरित लता तरु पूरित भूतल। नवश्यामल तृणराजि बड़े कमनीय फूल फल। बहु विकच सरोरुह से लसित कान्त केलि खगकुल बलित। कलकल क

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पर्णकुटी

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ऊँचे श्यामल सघन एक पादप तले। है यह एक कुटीर सित सुमन सज्जिता। इधर उधा हैं फूल बेलियों में खिले। वह है महि श्यामायमान छबि मज्जिता।1। पास खड़े हैं कदाकार पादप कई। परम शान्त है प्रकृति निपट नीरव द

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रवि सहचरी

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 चन्द्र बदनी तारकावलि शोभिता। रंजिता जिसको बनाती है दिशा। दिव्य करती है जिसे दीपावली। है कहाँ वह कौमुदी वसना निशा।1। क्या हुई तू लाल उसका कर लहू। क्या उसी के रक्त से है सिक्त तन। दीन हीन मलीन

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एक चिरपथिक

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प्रिय आवास वास सुख वंचित बहु प्रवास दुख से ऊबा। नव उमंगमय एक चिरपथिक अभिनव भावों में डूबा। विकच वदन अति मंद मंद सानंद सदन दिशि जाता था। विविध तरंग तरंगित मानस रंगत रुचिर दिखाता था।1। प्रिया प्रत

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दिल के फफोले

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 ग्रंथ कितने पढ़े बहुत डूबे। भेद जाना अनेक आपा खो। संत जन की सुनी सभी बातें। पर न जाना गया प्रभो क्या हो।1। आप में है अपार बल बूता। यह सदा ही हमें सुनाता है। किसलिए काम वह नहीं आता। जब निबल क

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दीन की आह

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न तो हिलाती गगन न तो हरि हृदय कँपाती। न तो निपीड़क उर को है भय-मीत बनाती। निपट-निराशा-भरी निकल चुपचाप बदन से। दीन-आह दुख साथ वायु में है मिल जाती।1। उसकी बेधाकता का परिचय पाने वाला। उसकी दुख-मय

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दुखिया के आँसू

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बावले से घूमते जी में मिले। आँख में बेचैन बनते ही रहें। गिर कपोलों पर पड़े बेहाल से। बात दुखिया आँसुओं की क्या कहें।1। हैं व्यथाएँ सैकड़ों इन में भरी। ये बड़े गम्भीर दुख में हैं सने। पर इन्हें

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सबल और निबल

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मर मिटे, पिट गये, सहा सब कुछ। पर निबल की सुनी गयी न कहीं। है सबल के लिए बनी दुनिया। है निबल का यहाँ निबाह नहीं।1। जान पर बीतती किसी की है। और कोई है जी को बहलाता। एक को धूल में मिला करके। दूस

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मतलब की दुनिया

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हैं सदा सब लोग मतलब गाँठते। यों सहारा है नहीं मिलता कहीं। है कलेजा हो नहीं ऐसा बना। बीज मतलब का उगा जिसमें नहीं।1। कब कहाँ पर दीजिए हम को बता। एक भी जी की कली ऐसी खिली। था न जिस पर रंग मतलब का

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दिल टटोलो

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क्या न होता है उसमें दिल उजला। मैले कपड़े से क्यों झिझकते हो। देख उजला लिबास मत भूलो। दिल मैला कहीं न उसमें हो।1। जो न सोने के कन उसे मिलते। न्यारिया राख किसलिए धोता। मत रुको देख कर फटे कपड़े।

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एक मसा

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देख कर ऊँचा सजा न्यारा महल। और गहने देह के रत्नों जड़े। पास बैठी चाँद-मुखड़े-वालियाँ। फूल ऐसे लाडिले, सुन्दर, बड़े।1। याद कर फूली हुई फुलवारियाँ। फूल अलबेले महँक प्यारी भरे। थी फलों से डालियाँ

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रात का जागना

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 जी भरा है, आँखें हैं कडुआ रही। सिर में है कुछ धामक नींद है आ रही। उचित नहीं है बहुत रात तक जागना। देह टूटकर है यह हमें बता रही।1। सुर बाजों में मीठापन है कम नहीं। जहाँ वर गला है मीठापन है वहीं

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लोहित बसना

13 जून 2022
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हुआ दूर तम पुंज दुरित तम सम्भव भागे। खिले कमल सुख मिले मधुप कुल को मुँह माँगे। अनुरंजित जग हुआ जीव जगती के जागे। परम पिता पद कंज भजन में जन अनुरागे। छिति पर छटा अनूठी छाई। चूम चूम करके कलियाँ

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उषाकाल

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है विभु केश कलाप रक्त कुसुमावलि अर्चित। या है भव असितांग लाल चन्दन से चर्चित। हनित प्रात दनुजात रुधिार धारा दिखलाई। या प्राची दिग्वधू बदन पर लसी ललाई। प्रकृति सुन्दर कलित कपोल हुआ आरंजित। या है ज

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राग रंजित गगन

13 जून 2022
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 तमो मयी यामिनी तिमिर हो चला तिरोहित। काल जलधि में मग्न हुआ तारक चय बोहित। ककुभ कालिमाटली उलूक समूह लुकाने। कुमुद बन्धु छबि हीन हुई कैरव सकुचाने। बोले तम चुर निचय हुआ खग कुल कलरव रत। विकसे बिपुल

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उषा

13 जून 2022
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क्या यह है नभ नील रंजिनी सु छबि निराली। या है लोक ललाम ललित आनन की लाली। विपुल चकित कर चारु चित्र की चित्र पटी है। यात्रिलोक पति प्रीति करी प्रतिभा प्रगटी है। परम पुनीत प्रभातकाल की प्रिय जननी है।

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आर्य बाला

13 जून 2022
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बहु ललामता बलित अति ललित रुचियों वाली। सकल लोक हित जननि भाव तालों की ताली। मनुज रंजिनी कलित कला की कामद काया। नव नव लीलामयी मूल सब ममता माया। कमनीय विधाता कर कमल की रचना का चरम फल। कल कीर्ति सुकु

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कुल कामिनी

13 जून 2022
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है तमतोम समान पापमय नयनों के हित। है रवितनया सलिल उसे जो है अमलिन चित। है पति चाव निमित्ता सुरस शृंगार सार वह। उसे सेवार सुप्रीति सरसिका सकते हैं कह। है आतंकित कर गरल मय पन्नग पोओंसे न कम। पामर न

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आर्य महिला

13 जून 2022
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मुग्धा कर है राकानिशि कान्त। सुरसरी का है पावन आप। स्वेत सरसिज है परम प्रफुल्ल। आर्य महिला का कीर्तिकलाप।1। भाव से उसके हो भरपूर। भाव मय बना जगत आगार। गौरवों का उसके पग पूज। गौरवित हुआ सकल संसा

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तरु और लता

13 जून 2022
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तरु कर छाया दान दुसह आतप है सहता। सुख देने के लिए लता हित रत है रहता। शिर पर ले सब काल सलिल धार की जलधारा। बहुधा करक समूह पात का सह दुख सारा। अति प्रबल पवन के वेग से विपुल विधूनित हो सतत। पालन कर

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किसी का स्वागत

13 जून 2022
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आज क्यों भोर है बहुत भाता। क्यों खिली आसमान की लाली। किस लिए है निकल रहा सूरज। साथ रोली भरी लिये थाली।1। इस तरह क्यों चहक उठीं चिड़ियाँ। सुन जिसे है बड़ी उमंग होती। ओस आ कर तमाम पत्तों पर। क्

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देखने वाली आँखें

13 जून 2022
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चाँद के हँसने में किसकी। कला है बहुत लुभा पाती। चैत की खिली चाँदनी में। चमक किसकी है दिखलाती।1। लाल जोड़ा किससे ले कर। उषा है सदा रंग लाती। महक प्यारी पाकर किससे। हवा है हवा बाँधा जाती।2।

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जी की कचट

13 जून 2022
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क्या हो गया, समय क्यों, बे ढंग रंग लाया। क्यों घर उजड़ रहा है, मेरा बसा बसाया।1। सुन्दर सजे फबीले, थे फूल जिस जगह पर। अब किसलिए वहाँ पर काँटा गया बिछाया।2। जो बेलि लह लही थी, जो थी खिली चमेल

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आँखों का तारा

13 जून 2022
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फूल मैं लेने आई थी। किसी को देख लुभाई क्यों। हो गया क्या, कैसे कह दूँ। किसी ने आँख मिलाई क्यों।1। फूल कैसे क्या हैं बनते। क्यों उन्हें हँसता पाती हूँ। किसलिए उनकी न्यारी छबि। देख फूली न समाती

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दिल का दर्द

13 जून 2022
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नहीं दिन को पड़ता है चैन। नहीं काटे कटती है रात। बरसता है आँखों से नीर। सूखता जाता है सब गात।1। आज है कैसा उसका हाल। भरी है उसमें कितनी पीर। दिखाऊँ कैसे उसको आह। कलेजा कैसे डालूँ चीर।2। चि

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मसोस

13 जून 2022
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कलेजा मेरा जलता है। याद में किसकी रोता हूँ। अनूठे मोती के दाने। किसलिए आज पिरोता हूँ।1। फूल कितने मैंने तोड़े। बनाता हूँ बैठा गजरा। चल रहा है धीरे धीरे। प्यार दरिया में दिल बजरा।2। चुने को

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दिल का छाला

13 जून 2022
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गईं चरने कितनी आँखें। बँधी है बहुतों पर पट्टी। अधखुली आँखें क्यों खुलतीं। बनी हैं धोखे की टट्टी।1। किसी से आँसू छनता है। किसी में है सरसों फूली। देख भोला भाला मुखड़ा। आँख कितनी ही है भूली।2।

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प्यार के पचड़े

13 जून 2022
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उमंगें पीसे देती हैं। चोट पहुँचाती हैं चाहें। नहीं मन सुनता है मेरी। भरी काँटों से हैं राहें।1। बहुत जिससे दिल मलता है। काम क्यों ऐसा करती हूँ। नहीं कुछ परवा है जिसको। उसी पर मैं क्यों मरती ह

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चाहत के चोचले

13 जून 2022
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देख कर के मुझको रोती। रो सके तो तू भी रो दे। जलाता है क्यों तू इतना। जलद जल देता है तो दे।1। कह रही हूँ अपनी बातें। क्यों नहीं उसको सुन पाता। गिरा जाता है मेरा जी। गरजता क्यों है तू आता।2।

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कली

13 जून 2022
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बच सकेगा नहीं भँवर से रस। आ महक को हवा उड़ा लेगी। पास पहुँच बनी ठनी तितली। पंखड़ी को मसल दगा देगी।1। छीन ले जायगी किरन छल से। ओस की बूँद से मिला मोती। फूलने का न नाम भी लेती। जो कली भेद जानती

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फूल

13 जून 2022
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किस लिए तो रहे महँकते वे। कुछ घड़ी में गई महँक जो छिन। क्या खिले जो सदा खिले न रहे। क्या हँसे फूल जो हँसे दो दिन।1। पंखड़ी देख कर गिरी बिखरी। हैं कलेजे न कौन से छिलते। क्या गया भूल तब भ्रमर उन

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कलपता कलेजा

13 जून 2022
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मैं ऊब ऊब उठती हूँ। क्या ऊब नहीं तुम पाते। आ कर के अपना मुखड़ा क्यों मुझे नहीं दिखलाते।1। मैं तड़प रही हूँ, जितना। किस तरह तुम्हें बतलाऊँ। यह मलता हुआ कलेजा। कैसे निकाल दिखलाऊँ।2। जो दर्द

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दुखता दिल

13 जून 2022
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क्यों नहीं बता दो प्यारे। सुख की घड़ियाँ आती हैं। क्यों तुम्हें तरसती आँखें। अब देख नहीं पाती हैं।1। हो गये महीने कितने। पर मेरी याद न आई। क्यों पिघला नहीं कलेजा। क्यों आँख नहीं भर पाई।2।

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मतवाला

13 जून 2022
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बन गये फूलों से काँटे। आम से मीठे कड़वे फल। बलाएँ लगीं बला लेने। चढ़ाई हमने वह बोतल।1। मोल सारी दौलत ले ली। कमाया हमने वह पैसा। नहीं दम मार सका कोई। लगाया हम ने दम ऐसा।2। पहुँचता जहाँ नहीं

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मिटना

13 जून 2022
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रंग बू फूल नहीं रखता। धूल में जब मिल जाता है। सूख जाने पर पत्ते खो। फल नहीं पौधा लाता है।1। गँवाते हैं अपना पानी। बिखर जब बादल जाते हैं। गल गये दल रस के निचुड़े। कमल पर भौंर न आते हैं।2। न

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निजता

13 जून 2022
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हैं डराते न राजसी कपड़े। क्यों रहे वह न चीथड़े पहने। धूल से तन भरा भले ही हो। हैं लुभाते न फूल के गहने।1। है धानी तो धानी रहे कोई। है उसे लाख पास का पैसा। घूर पर बैठ दिन बिताती है। सेज पर आँख

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