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चित्तौड़ की एक शरद रजनी

13 जून 2022

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मयंक मृदु मंद हँस रहा था।

असीम नीले अमल गगन में।

सुधा अलौकिक बरस रहा था।

चमक रहा था छत्र-गन में।1।


सुरंजिता हो रही धारा थी।

खिली हुई चारु चाँदनी से।

रजत-मयी हो गयी बिभा थी।

कला कुमुदिनी-विकासिनी से।2।


दसों दिशा दिव्य हो गयी थीं।

सुदुग्धा का सोत बह रहा था।

नभपगा भी प्रभा-मयी थी।

प्रवाह पारद उमड़ रहा था।3।


चमक रहे थे असंख्य तारे।

सुदीप्ति सब ओर ढल रही थी।

विमुग्धा-कर ज्योति-पुंज धारे।

अपार आभा उथल रही थी।4।


सुअर्बली शैल के शिखर पर।

असंख्य हीरे ढलक रहे थे।

प्रकाश-मण्डित मयंक के कर।

अपार छबि से छलक रहे थे।5।


सुदूर विस्तृत विशाल गिरिवर।

सुज्योति संचित जगा रहा था।

अपूर्व कल-कान्ति-युक्त कलेवर।

रजत जटित जगमगा रहा था।6।


विचित्र तरु-पत्र की छटा थी।

प्रदीप्ति से दीप्तिमान होकर।

विराजती स्वच्छ शुभ्रता थी।

हरीतिमा का विकास खोकर।7।


प्रकाश के हैं कढ़े फुआरे।

प्रदीप्त भूतल विदार करके।

कि हैं प्रभा से गये सँवारे।

समस्त पादप प्रदेश भर के।8।


सुज्योति-सम्पन्न थीं लताएँ।

किरण-मयी बेलियाँ हुई थीं।

हरी भरी श्याम दूर्वाएँ।

प्रकाश से शुभ्र हो गयी थीं।9।


समस्त गिरि-शृंग का हिमोपल।

विचित्रता से दमक रहा था।

हरेक तृण था हुआ समुज्ज्वल।

समस्त रजकण चमक रहा था।10।


सरित-सरोवर समूह का जल।

बना हुआ दिव्य, था झलकता।

सुवीचियों-बीच स्वच्छ उज्ज्वल।

प्रकाश का बिम्ब था ढलकता।11।


हरी भरी भूमि का सरोवर।

सुभव्य था चारुता बड़ी थी।

रजत बनाई विशाल चादर।

सुशष्प के मधय में पड़ी थी।12।


अनेक छोटे बड़े जलाशय।

जहाँ तहाँ थे अजब दमकते।

प्रदीप्त नभ में नछत्र कतिपय।

सतेज हैं जिस तरह चमकते।13।


अनेक सितकर प्रदीप्त निर्झर।

असंख्य मोती उछालते थे।

निसार करके कवीक पति पर।

उमंग अपनी निकालते थे।14।


तमोमयी शैल कन्दराएँ।

महा तिमिर-वान झाड़ियाँ सब।

कहो न क्यों आज जगमगाएँ।

स्वयं तम है प्रभा-मयी जब।15।


बना हुआ था विशाल जंगल।

प्रकाश के पुंज का अखाड़ा।

मयंक-कर ने जहाँ सदल बल।

प्रचंड तम-तोम को पछाड़ा।16।


प्रसून पर काश के विभावस।

विचित्र है चारुता दिखाती।

अमल धवल केश राशि पावस।

रची गयी ज्योति की जनाती।17।


विविध बगीचे अनेक उपवन।

विकास से हैं महा विकसित।

कि मेदिनी पर कला-निकेतन।

अनन्त तजकर हुआ प्रकाशित।18।


न एक सित पुष्प ही मनोहर।

ससाम्य-बश ओप में बढ़ा था।

हरे असित नील पुष्प-चय पर।

प्रकाश का रंग ही चढ़ा था।19।


समस्त क्यारी कलित हुई थी।

प्रभा बलित थी अखिल प्रणाली।

सुधा सरस कुंज में चुई थी।

दमक रही थी मलीन डाली।20।


कटी छँटी बेलि बूटियों पर।

छँटी हुई ज्योति टिक रही थी।

हरी भरी बाँस खूँटियों पर।

किरण अछूती छिटक रही थी।21।


खिले हुए फूल पर न केवल।

कमाल थी कौमुदी दिखाती।

मुँदे हुए थे अनेक उत्पल।

जिन्हें कला थी मुकुट पिन्हाती।22।


समस्त समतल विशाल प्रान्तर।

प्रकाशमय थे बिछी रुई थी।

सु अंकुरित खेत खेत होकर।

प्रभा परम पल्लवित हुई थी।23।


प्रवेश करके विशद नगर में।

प्रकाश तमराशि खो रहा था।

डगर डगर औ बगर बगर में।

जगर मगर आज हो रहा था।24।


प्रशस्त प्रकार मन्दिरों में।

फटिक शिला शुभ्र लग गयी थी।

समग्र आँगन घरों दरों में।

नवल धवल ज्योति जग गयी थी।25।


अटारियाँ खिड़कियाँ मनोहर।

प्रकाश की कोठियाँ बनी थीं।

सुभग मुँडेरों सु कँगनियों पर।

लगी हुई बज्र की कनी थी।26।


हुए छतों पर विचित्र टोने।

समस्त छाजन ज्वलित हुई थी।

कला फिरी थी हरेक कोने।

झलक रही भूमि की सुई थी।27।


सकल गली ओ समस्त कूँचे।

चमक दमक चारु थे दिखाते।

चऊतरे चौखटे समूचे।

अजीब थे आज जगमगाते।28।


बना हुआ ठाट हाट का था।

रजतमयी सब दुकान ही थी।

सुचमकियों से बसन टँका था।

मिठाइयों पर सुधा बही थी।29।


भया प्रभावान भव्य भाजन।

हुआ विभूषण सुरत्न-मण्डित।

कलाबतू बदला बना सन।

अखिल उपस्कर हुए अलंकृत।30।


गिलम गलीचे मलिन दरी भी।

चमक दमक चारुता-मयी थी।

पड़ी सड़क में कुकंकरी भी।

प्रभावती पोत बन गयी थी।31।


सुधा धावल धाम ही न केवल।

हुआ प्रभा-पुंज से सुशोभन।

बुरा निकेतन महा मलिन थल।

सुदर्पणों सा बना सुदर्शन।32।


रचा हुआ घास का कुघर भी।

प्रदीप्त था, ज्योति भर रही थी।

पड़ी झोंपड़ी समस्त पर भी।

कला करामात कर रही थी।33।


कलित किरण थी प्रदीप्ति-बोरी।

प्रकाश में तेज सन गया था।

जकी चकी थी खड़ी चकोरी।

कवीकपित भानु बन गया था।34।


सुचाँदनी की चटक निकाई।

पयोधि का कान काटती थी।

जिसे बड़े चाव से बिलाई।

बिचार कर दूध चाटती थी।35।


निशा हुई थी महा समुज्ज्वल।

समस्त नभ श्वेत था दिखाता।

कभी अचानक बिहंग का दल।

प्रभात का राग था सुनाता।36।


दिगन्त में भूमि तल गगन पर।

त्रिलोक की स्वेतता बसी है।

वितुल कलितर्-कीत्ति-रूप धारकर।

स्वयंभु की या प्रकट लसी है।37।


महा सिताभा असीम नभ-तल।

प्रदीप्त करके हुई सुप्लावित।

निमग्न करके समग्र भूतल।

कि है पयोराशि पय प्रवाहित।38।


अमल सतोगुण विशुध्द उज्ज्वल।

स्वरूप धार कर प्रकट दिखाया।

विभा बलित सित सरोज दल या।

बसुंधरा पर गया बिछाया।39।


कलितकला जिस रुचिर नगरपर।

सुकान्ति का है प्रसार करती।

उसी नगर में महा मनोहर।

बिभावती एक है सुधारती।40।


रचे गुणी जन इसी धरा पर।

अनेक प्रसाद हैं चमकते।

सदैव जिनके कलश रुचिर तर।

दिनेश की भाँति हैं दमकते।41।


इन्हीं सुप्रसाद-पंक्ति-भीतर।

अपूर्व है एक हर्म्य शोभित।

विचित्र जिसकी बनावटों पर।

न दृष्टि किसकी हुई प्रलोभित।42।


इसी विशद हर्म्य में मनोहर।

प्रकोष्ठ है एक अति सुसज्जित।

जिसे कलाधर कला निराली।

थी कर रही सुरंजित।43।


शनै:-शनै: एक जन उसी पर।

प्रशान्त-गति से टहल रहा था।

प्रफुल्ल मुख कान्ति-मान होकर।

प्रसाद की ओर ढल रहा था।44।


विशाल-भुज-वक्ष यह युवा जन।

मयंक की माधुरी मनोहर।

विलोक कर था महा मुदित मन।

अपूर्व-उच्छ्वास-पूर्ण-अन्तर।45।


प्रकोष्ठ की कारु-कार्य-वाली।

खुली रुचिर सित-शिला-रची छत।

सकल-उपस्कर-सुरत्न-शाली।

सुबर्न-चूड़ा परम समुन्नत।46।


मयंक कर से चमक दमक कर।

मनोज्ञतर दृष्टि थे दिखाते।

जिन्हें युवा एक दृष्टि लख कर।

प्रमोद-पय-राशि पैर जाते।47।


जड़े हुए दिव्य रत्न सुन्दर।

निकालते ज्योति थे निराली।

बना युवा मन्त्र-मुग्ध लख कर।

हुई हृदय देश में दिवाली।48।


शिखर समुज्ज्वल,प्रदीप्त प्रान्तर।

अनेक पादप प्रकाश-मंडित।

सुकर-समाच्छन्न बहु सरोवर।

बिपुल बगीचे विभा-अलंकृत।49।


प्रकोष्ठ से दृष्टि पर पड़ रहे थे।

समस्त का कुछ अजब समा था।

युवा हृदय मधय गड़ रहे थे।

सुदृश्य प्रति रोम में रमा था।50।


कभी युवा देखता गगन-तल।

कभी धरातल विमुग्ध होकर।

कभी धावल धाम हर्म्य उज्ज्वल।

कभी समुद्दीप्त,शुभ्र परिसर।51।


पवन सुधा-सिक्त मन्द-गामी।

सकल कला-पूर्ण कल कलाधार।

सुचंद्रिका चारु-कीत्ति-कामी।

दिशा महा मंजु अति मनोहर।52।


युवा उन्हीं में रमा हुआ था।

शरीर की सुधि नहीं रही थी।

प्रमोद-पंकज खिला हुआ था।

विनोद की वेलि लहलही थी।53।


प्रतीच्य आकाश में इसी छन।

हुआ प्रकट एक दाग काला।

शनै: शनै: वह बना क्षुद्र घन।

पुन: हुआ मंजु मेघमाला।54।


अभी क्षितिज क्षुद्रभाग तजकर।

न था जलद व्योम मधय छाया।

कि बीच ही वायु ने सम्हलकर।

उसे वहीं धूल में मिलाया।55।


परन्तु पल में पुन: उसी थल।

हुए जलद-खण्ड दृष्टिगोचर।

हुआ प्रथम लौं सुपुष्ट दल बल।

शनै: शनै: वर्ध्दमान हो कर।56।


उठी हवा भी उसी तरह फिर।

तुरंत जिससे जलद गया टल।

पयोद आया पुन: पुन: घिर।

पुन: पुन: वायु भी पड़ी चल।57।


रही दशा यह नियत समय तक।

पयोद दलता रहा प्रभंजन।

परन्तु पीछे हुआ अचानक।

सकल-गगन-प्रान्त में प्रबल घन।58।


जहाँ तहाँ इस समय गगन में।

बिपुल जलद-खण्ड थे बिचरते।

घरों, दरों, सैकड़ों सहन में।

कलित कौमुदी मलीन करते।59।


कहीं हुए पर्वताकार घन।

कहीं सदल बल विहर रहे थे।

कहीं गये थे महा निविड़ बन।

कहीं खण्डश: विचर रहे थे।60।


शनै: शनै: हो गयी दशा यह।

लगा कलाधार मलीन होने।

न रह गया था प्रदीप्त नभ वह।

चला तिमिर था प्रकाश खोने।61।


प्रथम गगन के विपुल थलों पर।

परास्त था वायु से हुआ घन।

परन्तु इस काल शान्त बन कर।

स्वयं हुआ था विजित प्रभंजन।62।


प्रचण्डता जिस प्रबल पवन की।

सकल-जलद-जाल छिन्न करती।

न शक्ति उसमें रही शमन की।

भला न क्यों शान्त वह बिचरती।63।


विशद-गगन के अधिक थलों पर।

सजल जलद इस समय जमा था।

वहाँ चमकता न था कलाधार।

न चाँदनी का वहाँ समा था।64।


कभी कभी भेद कर सघन घन।

प्रकाश निज कान्ति था दिखाता।

कभी कभी यामिनी-विमोहन।

झलक जलद-जाल-बीच जाता।65।


परन्तु अब भी विशद गगन के।

बचे हुए थे विभाग ऐसे।

जहाँ छबीले नछत्र-गण के।

प्रकोष्ठ थे दिव्य पूर्व जैसे।66।


सु-चाँदनी वैसी ही यहाँ थी।

प्रकाश था पूर्व लौं मनोहर।

सुधा सरस वैसी ही बनी थी।

प्रदीप्त था पूर्ववत् कलाधार।67।


परन्तु ऐसे विभाग में भी।

धवल जलद-खण्ड फिर रहे थे।

कई निबिड़ वारि-वाह से भी।

विचित्रता साथ घिर रहे थे।68।


तथापि दो एक भाग अब भी।

बचे हुए थे प्रपंच घन से।

नछत्र-गण थे सशंक तब भी।

प्रफुल्लता दूर थी बदन से।69।


कभी किसी भाग का प्रभंजन।

प्रचण्डता पूर्ववत् दिखाता।

परन्तु अति दीर्घ काय दृढ़ घन।

प्रयत्न उसका विफल बनाता।70।


विशेषत: वात अब अबल था।

वरंच था वह घनानुसारी।

अत: जलद-जाल अति प्रबल था।

बना हुआ था अक्लिष्ट कारी।71।


समय हुआ और ही बदल कर।

रही न सद्बुध्दि अब सँघाती।

कला बनाता मलीन जलधार।

कला जलद को कलित बनाती।72।


कवीकपति का विलोप साधान।

जलद तटल का प्रधान व्रत था।

परन्तु घन को गगन-विभूषन।

सँवारने में समोद रत था।73।


विशद-गगन-बीच जो पयोधार।

कभी कहीं भी न था दिखाता।

वही बिबिधा रूप रंग रच कर।

दिगंत में भी न था समाता।74।


सरस सुधा सिक्त शशि समुज्ज्वल।

समीर से सेब्यमान होकर।

शनै: शनै: घेर कर गगन-तल।

हुआ अप्रति-हत-प्रताप जलधार।75।


सकल जलद-जाल की क्रिया यह।

विलोकता आदि से युवा था।

परन्तु इस काल था व्यथित वह।

प्रसन्न आनन मलिन हुआ था।76।

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रचनाएँ
प्रेमपुष्पोपहार
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अयोध्या सिंह उपाध्याय का जन्म जिला आजमगढ़ के निजामाबाद नामक स्थान में सन् 1865 ई. में हुआ था। हरिऔध के पिता का नाम भोला सिंह और माता का नाम रुक्मणि देवी था। अस्वस्थता के कारण हरिऔध जी का विद्यालय में पठन-पाठन न हो सका, अतः इन्होंने घर पर ही उर्दू, संस्कृत, फारसी, बांग्ला एवं अंग्रेजी का अध्ययन किया।
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प्रभु-प्रताप

13 जून 2022
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चाँद औ सूरज गगन में घूमते हैं रात दिन। तेज औ तम से, दिशा होती है उजली औ मलिन। वायु बहती है, घटा उठती है, जलती है अगिन। फूल होता है अचानक वज्र से बढ़कर कठिन। जिस अलौकिक देव के अनुकूल केलि-कलाप बल।

2

लोकसत्ता

13 जून 2022
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काम बनता निकाम सुन्दर क्यों। कान्ति कमनीयता स्वयं खोती। विधु लालता ललाम होने को। जो न प्रभु की ललामता होती।1। मोहती तरु हरीतिमा कैसे पाते। क्यों गगन नीलिमा लुभा लेती। मंजु तम श्यामघन न बन पाते

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मनोव्यथा

13 जून 2022
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ऐ प्रेम के पयोनिधि भवरुज पियूष प्याले। उपताप ताप पातक परिताप तम उँजाले।1। प्रतिदिन अनेक पीड़ा पीड़ित बना रही है। कब तक रहें निपीड़ित प्रभु पापरिणी पाले।2। चलती नहीं अबल की कुछ सामने सबल के। क

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कामना

13 जून 2022
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सदा भारत-भू फूले फले। सफल कामनाएँ हों उसकी मिले सफलता गले। पुलकित रहे प्रिय सुअन प्रतिदिन सुख पालने में पले। भव-हित-रत भावुक मानस में भरे भाव हों भले। दुख दल दलित रहे, कोई खल कर खलता न खले। छूटे

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विद्या

13 जून 2022
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इस चमकते हुए दिवाकर से। रस बरसते हुए निशाकर से।1। जो अलौकिक प्रकाश वाली है। बहु सरसता भरी निराली है।2। वह जगद्वंदनीय विद्या है। अति अनूठा प्रभाव जिसका है।3। ज्योति रवि की जहाँ नहीं जाती।

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वेद हैं

13 जून 2022
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सब विद्या के मूल, जनक हैं सकल कला के। विविधा-ज्ञान आधार, रसायन हैं अचला के। सुरुचि विचार विवेक विज्ञता के हैं आकर। हैं अपार अज्ञान तिमिर के प्रखर प्रभाकर। परम खिलाड़ी प्रभु करों के लोकोत्तार गेंद

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प्रेमधारा

13 जून 2022
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उसका ललित प्रवाह लसित सब लोकों में है। उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है। उसकी क्रीड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है। उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है। मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही। वसुंधारा तल पर

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धर्मवीर

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  यह जगत जिसके सहारे से सदा फूले-फले। ज्ञान का दीया निराली ज्योति से जिसके जले। आँच में जिसके पिघल कर काँच हीरे सा ढले। जो बड़ा ही दिव्य है, तलछट नहीं जिसके तले। हैं उसे कहते धरम, जिस से टिकी है,

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जीवनमुक्त

13 जून 2022
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किसे नहीं ललना-ललामता मोहती। विफल नहीं होता उसका टोना कहीं। किसे नहीं उसके विशाल दृग भेदते। किसे कुसुम सायत कंपित करता नहीं।1। निज लपटों से करके दग्ध विपुल हृदय। कलह, वैर, कुवचन-अंगारक प्रसवती।

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देव-बुध्दि

13 जून 2022
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कर लिये करवाल अकुण्ठिता। कनक-कश्यप ने जब यों कहा। तब महाप्रभु क्या परिव्याप्त है। इस महाजड़ प्रस्तर-स्तम्भ में।1। तब अकम्पित औ दृढ़ कण्ठ से। यह कहा प्रहलाद प्रबुध्द ने। जब महाप्रभु व्यापक विश्

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कुलीनता

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विवेक, विद्या, सुविचार, सत्यता। क्षमा, दया, सज्जनता, उदारता। क्रिया, सदाचार, परोपकारिता। सदा समाधार कुलीनता रही।1। परन्तु है आज विचित्र ही दशा। विडम्बिना है नित ही कुलीनता। सप्रेम है अर्पित हो

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आरम्भ-शूरता

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देश, जाति के अध:पतन का मूल है। उन्नति का बाधक अपयश का कोष है। कार्य्-सिध्दि के लिए कृतान्त-स्वरूप है। अति निन्दित आरम्भ-शूरता दोष है।1। वह साहस है जल-बुद्बुद सा बिनसता। वह उत्साह प्रभात-सोम से

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मन

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 बह गये कान्त भक्ति कालिन्दी। कूल जिसके सदा मिले घन तन। बज उठे लोक प्रीति बर बंशी। कौन मन बन गया न बृन्दाबन।1। हैं भले भाव मंजुतम मोती। बहु बिलसता विपुल-विमल रस है। सोहता हंस हंस जैसा है। मान

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पौरुष

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क्यों न उसकी सदा रहे चाँदी। पा कनक के नये-नये आकर। जो मनुज-रत्न यत्न कर पाया। क्यों उसे रत्न दे न रत्नाकर।1। जो अमल हैं बिकच कमल जैसे। बुध्दि जिनकी बनी रही बिमला। काम में जो कमाल रखते हैं। मि

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साहित्य

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भाव गगन के लिए परम कमनीय कलाधर। रस उपवन के लिए कुसुम कुल विपुल मनोहर। उक्ति अवनि के लिए सलिल सुरसरि का प्यारा। ज्ञान नयन के लिए ज्योतिमय उज्ज्वल तारा। है जन मन मोहन के लिए मधुमय मधुऋतु से न कम। स

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चित्तौड़ की एक शरद रजनी

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मयंक मृदु मंद हँस रहा था। असीम नीले अमल गगन में। सुधा अलौकिक बरस रहा था। चमक रहा था छत्र-गन में।1। सुरंजिता हो रही धारा थी। खिली हुई चारु चाँदनी से। रजत-मयी हो गयी बिभा थी। कला कुमुदिनी-विकास

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रुक्मिणी-सन्देश

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परम रम्य था नगर एक कुण्डिनपुर नामक। जहाँ राज्य करते थे नृप-कुल-भूषण भीष्मक। सकल-सम्पदा-सुकृति-धाम था नगर मनोहर। वहाँ उलहती बेलि नीति की थी अति सुन्दर।1। एक सुता थी परम-दिव्य उनकी गुणवाली। रूप-र

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सती सीता

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वह शरद ऋतु के अनूठे पंकजों सा है खिला। तेज है उसको अलौकिक कान्ति-मानो सा मिला। वह सुधा कमनीय अपने कान्त हाथों से पिला। मर रही सुकल त्राता को है सदा लेता जिला। इस कलंकित मेदिनी में है सतीपन वह रतन।

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सुतवती सीता

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कुसुम सु कोमल अल्प-वयस दो बालकवाली। रहित केश-विन्यास प्रकृति-पावन कर पाली। एक आधा गहने पहने साधारण-वसना। मुख-गंभीरत नहिं जिसकी कह सकती रसना। यह देवि स्वरूपा कौन है बन-भूतल में भ्राजती? कुसुमित पौ

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वीरवर सौमित्र

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कर करवाल लिये रण-भू में निधारक जाना। बिधा कर विशिखादिक से पग पीछे न हटाना। लख कर रुधिर-प्रवाह और उत्तोजित होना। रोम रोम छिद गये न दृढ़ता चित की खोना। गिरते लख करके लोथ पर लोथ देख शिरका पतन। नहिं

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उर्मिला

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किसी ऊबती से न जो जी बचावें। न दुख और का देख जो ऊब जावें। कढ़ी आहें बेचैन जिनको बनावें। जिन्हें प्यार की है परख वे बतावें। किसी दिन भी दो बूँद ऑंसू गिरा कर। हमारी पड़ी आँख है उर्मिला पर।1। उसी

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सच्चा प्रेम

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अमरलोक से आ उतरी सी एक अलौकिक बाला। क्षितितल पर निज छवि छिटकाती करती रूप उँजाला। कलित किनारी बलित परम कमनीय वसन तन पहने। विलसित हैं जिसके अंगों पर रत्न-खचित बर गहने।1। रखे कमल-सम दायें कर पर लोट

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संयुक्ता

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आर्यवंश की विमल कीर्ति की धवजा उड़ाती। क्षत्रिय-कुल-ललना-प्रताप-पौरुष दिखलाती। कायर उर में वीर भाव का बीज उगाती। निबल नसों में नवल रुधिार की धार बहाती। विपुल वाहिनी को लिये अतुल वीरता में भरी। सब

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शिशु-स्नेह

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सहज सुन्दरी अति सुकुमारी भोली भाली। गोरे मुखड़े, बड़ी बड़ी कल आँखों वाली। खिले कमल पर लसे सेवारों से मन भाये। खुले केश, जिसके सुकपोलों पर हैं छाये। बहु-पलक-भरी मन-मोहिनी कुछ भौंहें बाँकी किये। यह

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वामन और बलि

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वामन हैं विभु प्रकृति नियम के नियमनकारी। भव विभुता आधार भुवन प्रभुता अधिकारी। व्यापक विविध विधान विश्व के सविधि विधायक। लोकनीति परलोक प्रथा के प्रगति प्रदायक। जग अभिनय अति कमनीय के वर अभिनेता मोद

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कमल

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ऊपर नभ नीलाभ रक्त रविबिम्ब विराजित। ककुभ परम रमणीय रागद्वारा आरंजित। नीचे पुलकित हरित लता तरु पूरित भूतल। नवश्यामल तृणराजि बड़े कमनीय फूल फल। बहु विकच सरोरुह से लसित कान्त केलि खगकुल बलित। कलकल क

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पर्णकुटी

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ऊँचे श्यामल सघन एक पादप तले। है यह एक कुटीर सित सुमन सज्जिता। इधर उधा हैं फूल बेलियों में खिले। वह है महि श्यामायमान छबि मज्जिता।1। पास खड़े हैं कदाकार पादप कई। परम शान्त है प्रकृति निपट नीरव द

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रवि सहचरी

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 चन्द्र बदनी तारकावलि शोभिता। रंजिता जिसको बनाती है दिशा। दिव्य करती है जिसे दीपावली। है कहाँ वह कौमुदी वसना निशा।1। क्या हुई तू लाल उसका कर लहू। क्या उसी के रक्त से है सिक्त तन। दीन हीन मलीन

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एक चिरपथिक

13 जून 2022
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प्रिय आवास वास सुख वंचित बहु प्रवास दुख से ऊबा। नव उमंगमय एक चिरपथिक अभिनव भावों में डूबा। विकच वदन अति मंद मंद सानंद सदन दिशि जाता था। विविध तरंग तरंगित मानस रंगत रुचिर दिखाता था।1। प्रिया प्रत

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दिल के फफोले

13 जून 2022
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 ग्रंथ कितने पढ़े बहुत डूबे। भेद जाना अनेक आपा खो। संत जन की सुनी सभी बातें। पर न जाना गया प्रभो क्या हो।1। आप में है अपार बल बूता। यह सदा ही हमें सुनाता है। किसलिए काम वह नहीं आता। जब निबल क

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दीन की आह

13 जून 2022
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न तो हिलाती गगन न तो हरि हृदय कँपाती। न तो निपीड़क उर को है भय-मीत बनाती। निपट-निराशा-भरी निकल चुपचाप बदन से। दीन-आह दुख साथ वायु में है मिल जाती।1। उसकी बेधाकता का परिचय पाने वाला। उसकी दुख-मय

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दुखिया के आँसू

13 जून 2022
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बावले से घूमते जी में मिले। आँख में बेचैन बनते ही रहें। गिर कपोलों पर पड़े बेहाल से। बात दुखिया आँसुओं की क्या कहें।1। हैं व्यथाएँ सैकड़ों इन में भरी। ये बड़े गम्भीर दुख में हैं सने। पर इन्हें

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सबल और निबल

13 जून 2022
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मर मिटे, पिट गये, सहा सब कुछ। पर निबल की सुनी गयी न कहीं। है सबल के लिए बनी दुनिया। है निबल का यहाँ निबाह नहीं।1। जान पर बीतती किसी की है। और कोई है जी को बहलाता। एक को धूल में मिला करके। दूस

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मतलब की दुनिया

13 जून 2022
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हैं सदा सब लोग मतलब गाँठते। यों सहारा है नहीं मिलता कहीं। है कलेजा हो नहीं ऐसा बना। बीज मतलब का उगा जिसमें नहीं।1। कब कहाँ पर दीजिए हम को बता। एक भी जी की कली ऐसी खिली। था न जिस पर रंग मतलब का

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दिल टटोलो

13 जून 2022
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क्या न होता है उसमें दिल उजला। मैले कपड़े से क्यों झिझकते हो। देख उजला लिबास मत भूलो। दिल मैला कहीं न उसमें हो।1। जो न सोने के कन उसे मिलते। न्यारिया राख किसलिए धोता। मत रुको देख कर फटे कपड़े।

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एक मसा

13 जून 2022
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देख कर ऊँचा सजा न्यारा महल। और गहने देह के रत्नों जड़े। पास बैठी चाँद-मुखड़े-वालियाँ। फूल ऐसे लाडिले, सुन्दर, बड़े।1। याद कर फूली हुई फुलवारियाँ। फूल अलबेले महँक प्यारी भरे। थी फलों से डालियाँ

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रात का जागना

13 जून 2022
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 जी भरा है, आँखें हैं कडुआ रही। सिर में है कुछ धामक नींद है आ रही। उचित नहीं है बहुत रात तक जागना। देह टूटकर है यह हमें बता रही।1। सुर बाजों में मीठापन है कम नहीं। जहाँ वर गला है मीठापन है वहीं

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लोहित बसना

13 जून 2022
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हुआ दूर तम पुंज दुरित तम सम्भव भागे। खिले कमल सुख मिले मधुप कुल को मुँह माँगे। अनुरंजित जग हुआ जीव जगती के जागे। परम पिता पद कंज भजन में जन अनुरागे। छिति पर छटा अनूठी छाई। चूम चूम करके कलियाँ

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उषाकाल

13 जून 2022
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है विभु केश कलाप रक्त कुसुमावलि अर्चित। या है भव असितांग लाल चन्दन से चर्चित। हनित प्रात दनुजात रुधिार धारा दिखलाई। या प्राची दिग्वधू बदन पर लसी ललाई। प्रकृति सुन्दर कलित कपोल हुआ आरंजित। या है ज

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राग रंजित गगन

13 जून 2022
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 तमो मयी यामिनी तिमिर हो चला तिरोहित। काल जलधि में मग्न हुआ तारक चय बोहित। ककुभ कालिमाटली उलूक समूह लुकाने। कुमुद बन्धु छबि हीन हुई कैरव सकुचाने। बोले तम चुर निचय हुआ खग कुल कलरव रत। विकसे बिपुल

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उषा

13 जून 2022
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क्या यह है नभ नील रंजिनी सु छबि निराली। या है लोक ललाम ललित आनन की लाली। विपुल चकित कर चारु चित्र की चित्र पटी है। यात्रिलोक पति प्रीति करी प्रतिभा प्रगटी है। परम पुनीत प्रभातकाल की प्रिय जननी है।

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आर्य बाला

13 जून 2022
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बहु ललामता बलित अति ललित रुचियों वाली। सकल लोक हित जननि भाव तालों की ताली। मनुज रंजिनी कलित कला की कामद काया। नव नव लीलामयी मूल सब ममता माया। कमनीय विधाता कर कमल की रचना का चरम फल। कल कीर्ति सुकु

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कुल कामिनी

13 जून 2022
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है तमतोम समान पापमय नयनों के हित। है रवितनया सलिल उसे जो है अमलिन चित। है पति चाव निमित्ता सुरस शृंगार सार वह। उसे सेवार सुप्रीति सरसिका सकते हैं कह। है आतंकित कर गरल मय पन्नग पोओंसे न कम। पामर न

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आर्य महिला

13 जून 2022
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मुग्धा कर है राकानिशि कान्त। सुरसरी का है पावन आप। स्वेत सरसिज है परम प्रफुल्ल। आर्य महिला का कीर्तिकलाप।1। भाव से उसके हो भरपूर। भाव मय बना जगत आगार। गौरवों का उसके पग पूज। गौरवित हुआ सकल संसा

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तरु और लता

13 जून 2022
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तरु कर छाया दान दुसह आतप है सहता। सुख देने के लिए लता हित रत है रहता। शिर पर ले सब काल सलिल धार की जलधारा। बहुधा करक समूह पात का सह दुख सारा। अति प्रबल पवन के वेग से विपुल विधूनित हो सतत। पालन कर

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किसी का स्वागत

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आज क्यों भोर है बहुत भाता। क्यों खिली आसमान की लाली। किस लिए है निकल रहा सूरज। साथ रोली भरी लिये थाली।1। इस तरह क्यों चहक उठीं चिड़ियाँ। सुन जिसे है बड़ी उमंग होती। ओस आ कर तमाम पत्तों पर। क्

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देखने वाली आँखें

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चाँद के हँसने में किसकी। कला है बहुत लुभा पाती। चैत की खिली चाँदनी में। चमक किसकी है दिखलाती।1। लाल जोड़ा किससे ले कर। उषा है सदा रंग लाती। महक प्यारी पाकर किससे। हवा है हवा बाँधा जाती।2।

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जी की कचट

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क्या हो गया, समय क्यों, बे ढंग रंग लाया। क्यों घर उजड़ रहा है, मेरा बसा बसाया।1। सुन्दर सजे फबीले, थे फूल जिस जगह पर। अब किसलिए वहाँ पर काँटा गया बिछाया।2। जो बेलि लह लही थी, जो थी खिली चमेल

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आँखों का तारा

13 जून 2022
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फूल मैं लेने आई थी। किसी को देख लुभाई क्यों। हो गया क्या, कैसे कह दूँ। किसी ने आँख मिलाई क्यों।1। फूल कैसे क्या हैं बनते। क्यों उन्हें हँसता पाती हूँ। किसलिए उनकी न्यारी छबि। देख फूली न समाती

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दिल का दर्द

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नहीं दिन को पड़ता है चैन। नहीं काटे कटती है रात। बरसता है आँखों से नीर। सूखता जाता है सब गात।1। आज है कैसा उसका हाल। भरी है उसमें कितनी पीर। दिखाऊँ कैसे उसको आह। कलेजा कैसे डालूँ चीर।2। चि

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मसोस

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कलेजा मेरा जलता है। याद में किसकी रोता हूँ। अनूठे मोती के दाने। किसलिए आज पिरोता हूँ।1। फूल कितने मैंने तोड़े। बनाता हूँ बैठा गजरा। चल रहा है धीरे धीरे। प्यार दरिया में दिल बजरा।2। चुने को

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दिल का छाला

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गईं चरने कितनी आँखें। बँधी है बहुतों पर पट्टी। अधखुली आँखें क्यों खुलतीं। बनी हैं धोखे की टट्टी।1। किसी से आँसू छनता है। किसी में है सरसों फूली। देख भोला भाला मुखड़ा। आँख कितनी ही है भूली।2।

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प्यार के पचड़े

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उमंगें पीसे देती हैं। चोट पहुँचाती हैं चाहें। नहीं मन सुनता है मेरी। भरी काँटों से हैं राहें।1। बहुत जिससे दिल मलता है। काम क्यों ऐसा करती हूँ। नहीं कुछ परवा है जिसको। उसी पर मैं क्यों मरती ह

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चाहत के चोचले

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देख कर के मुझको रोती। रो सके तो तू भी रो दे। जलाता है क्यों तू इतना। जलद जल देता है तो दे।1। कह रही हूँ अपनी बातें। क्यों नहीं उसको सुन पाता। गिरा जाता है मेरा जी। गरजता क्यों है तू आता।2।

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कली

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बच सकेगा नहीं भँवर से रस। आ महक को हवा उड़ा लेगी। पास पहुँच बनी ठनी तितली। पंखड़ी को मसल दगा देगी।1। छीन ले जायगी किरन छल से। ओस की बूँद से मिला मोती। फूलने का न नाम भी लेती। जो कली भेद जानती

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फूल

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किस लिए तो रहे महँकते वे। कुछ घड़ी में गई महँक जो छिन। क्या खिले जो सदा खिले न रहे। क्या हँसे फूल जो हँसे दो दिन।1। पंखड़ी देख कर गिरी बिखरी। हैं कलेजे न कौन से छिलते। क्या गया भूल तब भ्रमर उन

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कलपता कलेजा

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मैं ऊब ऊब उठती हूँ। क्या ऊब नहीं तुम पाते। आ कर के अपना मुखड़ा क्यों मुझे नहीं दिखलाते।1। मैं तड़प रही हूँ, जितना। किस तरह तुम्हें बतलाऊँ। यह मलता हुआ कलेजा। कैसे निकाल दिखलाऊँ।2। जो दर्द

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दुखता दिल

13 जून 2022
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क्यों नहीं बता दो प्यारे। सुख की घड़ियाँ आती हैं। क्यों तुम्हें तरसती आँखें। अब देख नहीं पाती हैं।1। हो गये महीने कितने। पर मेरी याद न आई। क्यों पिघला नहीं कलेजा। क्यों आँख नहीं भर पाई।2।

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मतवाला

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बन गये फूलों से काँटे। आम से मीठे कड़वे फल। बलाएँ लगीं बला लेने। चढ़ाई हमने वह बोतल।1। मोल सारी दौलत ले ली। कमाया हमने वह पैसा। नहीं दम मार सका कोई। लगाया हम ने दम ऐसा।2। पहुँचता जहाँ नहीं

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मिटना

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रंग बू फूल नहीं रखता। धूल में जब मिल जाता है। सूख जाने पर पत्ते खो। फल नहीं पौधा लाता है।1। गँवाते हैं अपना पानी। बिखर जब बादल जाते हैं। गल गये दल रस के निचुड़े। कमल पर भौंर न आते हैं।2। न

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निजता

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हैं डराते न राजसी कपड़े। क्यों रहे वह न चीथड़े पहने। धूल से तन भरा भले ही हो। हैं लुभाते न फूल के गहने।1। है धानी तो धानी रहे कोई। है उसे लाख पास का पैसा। घूर पर बैठ दिन बिताती है। सेज पर आँख

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