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आँसू (भाग 1)

20 अप्रैल 2022

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इस करुणा कलित हृदय में

अब विकल रागिनी बजती

क्यों हाहाकार स्वरों में

वेदना असीम गरजती?

 

मानस सागर के तट पर

क्यों लोल लहर की घातें

कल कल ध्वनि से हैं कहती

कुछ विस्मृत बीती बातें?

 

आती हैं शून्य क्षितिज से

क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी

टकराती बिलखाती-सी

पगली-सी देती फेरी?

 

क्यों व्यथित व्योम गंगा-सी

छिटका कर दोनों छोरें

चेतना तरंगिनी मेरी

लेती हैं मृदल हिलोरें?

 

बस गई एक बस्ती है

स्मृतियों की इसी हृदय में

नक्षत्र लोक फैला है

जैसे इस नील निलय में।

 

ये सब स्फुर्लिंग हैं मेरी

इस ज्वालामयी जलन के

कुछ शेष चिह्न हैं केवल

मेरे उस महामिलन के।

 

शीतल ज्वाला जलती हैं

ईधन होता दृग जल का

यह व्यर्थ साँस चल-चल कर

करती हैं काम अनल का।

 

बाड़व ज्वाला सोती थी

इस प्रणय सिन्धु के तल में

प्यासी मछली-सी आँखें

थी विकल रूप के जल में।

 

बुलबुले सिन्धु के फूटे

नक्षत्र मालिका टूटी

नभ मुक्त कुन्तला धरणी

दिखलाई देती लूटी।

 

छिल-छिल कर छाले फोड़े

मल-मल कर मृदुल चरण से

धुल-धुल कर वह रह जाते

आँसू करुणा के जल से।

 

इस विकल वेदना को ले

किसने सुख को ललकारा

वह एक अबोध अकिंचन

बेसुध चैतन्य हमारा।

 

अभिलाषाओं की करवट

फिर सुप्त व्यथा का जगना

सुख का सपना हो जाना

भींगी पलकों का लगना।

 

इस हृदय कमल का घिरना

अलि अलकों की उलझन में

आँसू मरन्द का गिरना

मिलना निश्वास पवन में।

 

मादक थी मोहमयी थी

मन बहलाने की क्रीड़ा

अब हृदय हिला देती है

वह मधुर प्रेम की पीड़ा।

 

सुख आहत शान्त उमंगें

बेगार साँस ढोने में

यह हृदय समाधि बना हैं

रोती करुणा कोने में।

 

चातक की चकित पुकारें

श्यामा ध्वनि सरल रसीली

मेरी करुणार्द्र कथा की

टुकड़ी आँसू से गीली।

 

अवकाश भला है किसको,

सुनने को करुण कथाएँ

बेसुध जो अपने सुख से

जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ

 

जीवन की जटिल समस्या

हैं बढ़ी जटा-सी कैसी

उड़ती हैं धूल हृदय में

किसकी विभूति है ऐसी?

 

जो घनीभूत पीड़ा थी

मस्तक में स्मृति-सी छाई

दुर्दिन में आँसू बनकर

वह आज बरसने आई।

 

मेरे क्रन्दन में बजती

क्या वीणा, जो सुनते हो

धागों से इन आँसू के

निज करुणापट बुनते हो।

 

रो-रोकर सिसक-सिसक कर

कहता मैं करुण कहानी

तुम सुमन नोचते सुनते

करते जानी अनजानी।

 

मैं बल खाता जाता था

मोहित बेसुध बलिहारी

अन्तर के तार खिंचे थे

तीखी थी तान हमारी

 

झंझा झकोर गर्जन था

बिजली सी थी नीरदमाला,

पाकर इस शून्य हृदय को

सबने आ डेरा डाला।

 

घिर जाती प्रलय घटाएँ

कुटिया पर आकर मेरी

तम चूर्ण बरस जाता था

छा जाती अधिक अँधेरी।

 

बिजली माला पहने फिर

मुसकाता था आँगन में

हाँ, कौन बरसा जाता था

रस बूँद हमारे मन में?

 

तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!

मेरे इस मिथ्या जग के

थे केवल जीवन संगी

कल्याण कलित इस मग के।

 

कितनी निर्जन रजनी में

तारों के दीप जलाये

स्वर्गंगा की धारा में

उज्जवल उपहार चढायें।

 

गौरव था , नीचे आए

प्रियतम मिलने को मेरे

मै इठला उठा अकिंचन

देखे ज्यों स्वप्न सवेरे।

 

मधु राका मुसकाती थी

पहले देखा जब तुमको

परिचित से जाने कब के

तुम लगे उसी क्षण हमको।

 

परिचय राका जलनिधि का

जैसे होता हिमकर से

ऊपर से किरणें आती

मिलती हैं गले लहर से।

 

मै अपलक इन नयनों से

निरखा करता उस छवि को

प्रतिभा डाली भर लाता

कर देता दान सुकवि को।

 

निर्झर-सा झिर झिर करता

माधवी कुँज छाया में

चेतना बही जाती थी

हो मन्त्रमुग्ध माया में।

 

पतझड़ था, झाड़ खड़े थे

सूखी-सी फूलवारी में

किसलय नव कुसुम बिछा कर

आए तुम इस क्यारी में।

 

शशि मुख पर घूँघट डाले,

अँचल मे दीप छिपाए।

जीवन की गोधूली में,

कौतूहल से तुम आए।

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रचनाएँ
आँसू
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इस कविता में कवि अपने जीवन में घटित सूख दुख अनुभूति के बारे में बताते हुए कहता है कि जीवन सुख और दुख की लीला भूमि है। यहां शोक और आनंद दोनों आते रहते हैं। कवि को हमेशा से अपनी वेदना पर विश्वास है। एक प्रेमी के लिए सूख दुख दोनों नियती का दान है और दोनों सामान्य है।
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आँसू (भाग 4)

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आँसू (भाग 5)

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