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आँसू (भाग 6)

20 अप्रैल 2022

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आशा का फैल रहा है

यह सूना नीला अंचल

फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे

उसमें करुणा हो चंचल

 

मधु संसृत्ति की पुलकावलि

जागो, अपने यौवन में

फिर से मरन्द हो

कोमल कुसुमों के वन में।

 

फिर विश्व माँगता होवे

ले नभ की खाली प्याली

तुमसे कुछ मधु की बूँदे

लौटा लेने को लाली।

 

फिर तम प्रकाश झगड़े में

नवज्योति विजयिनि होती

हँसता यह विश्व हमारा

बरसाता मंजुल मोती।

 

प्राची के अरुण मुकुर में

सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा

उस अलस ऊषा में देखूँ

अपनी आँखों का तारा।

 

कुछ रेखाएँ हो ऐसी

जिनमें आकृति हो उलझी

तब एक झलक! वह कितनी

मधुमय रचना हो सुलझी।

 

जिसमें इतराई फिरती

नारी निसर्ग सुन्दरता

छलकी पड़ती हो जिसमें

शिशु की उर्मिल निर्मलता

 

आँखों का निधि वह मुख हो

अवगुंठन नील गगन-सा

यह शिथिल हृदय ही मेरा

खुल जावे स्वयं मगन-सा।

 

मेरी मानसपूजा का

पावन प्रतीक अविचल हो

झरता अनन्त यौवन मधु

अम्लान स्वर्ण शतदल हो।

 

कल्पना अखिल जीवन की

किरनों से दृग तारा की

अभिषेक करे प्रतिनिधि बन

आलोकमयी धारा की।

 

वेदना मधुर हो जावे

मेरी निर्दय तन्मयता

मिल जाये आज हृदय को

पाऊँ मैं भी सहृदयता।

 

मेरी अनामिका संगिनि!

सुन्दर कठोर कोमलते!

हम दोनों रहें सखा ही

जीवन-पथ चलते-चलते।

 

ताराओं की वे रातें

कितने दिन-कितनी घड़ियाँ

विस्मृति में बीत गईं वें

निर्मोह काल की कड़ियाँ

 

उद्वेलित तरल तरंगें

मन की न लौट जावेंगी

हाँ, उस अनन्त कोने को

वे सच नहला आवेंगी।

 

जल भर लाते हैं जिसको

छूकर नयनों के कोने

उस शीतलता के प्यासे

दीनता दया के दोने।

 

फेनिल उच्छ्वास हृदय के

उठते फिर मधुमाया में

सोते सुकुमार सदा जो

पलकों की सुख छाया में।

 

आँसू वर्षा से सिंचकर

दोनों ही कूल हरा हो

उस शरद प्रसन्न नदी में

जीवन द्रव अमल भरा हो।

 

जैसे जीवन का जलनिधि

बन अंधकार उर्मिल हो

आकाश दीप-सा तब वह

तेरा प्रकाश झिलमिल हो।

 

हैं पड़ी हुई मुँह ढककर

मन की जितनी पीड़ाएँ

वे हँसने लगीं सुमन-सी

करती कोमल क्रीड़ाएँ।

 

तेरा आलिंगन कोमल

मृदु अमरबेलि-सा फैले

धमनी के इस बन्धन में

जीवन ही हो न अकेले।

 

हे जन्म-जन्म के जीवन

साथी संसृति के दुख में

पावन प्रभात हो जावे

जागो आलस के सुख में ।

 

जगती का कलुष अपावन

तेरी विदग्धता पावे

फिर निखर उठे निर्मलता

यह पाप पुण्य हो जावे।

 

सपनों की सुख छाया में

जब तन्द्रालस संसृति है

तुम कौन सजग हो आई

मेरे मन में विस्मृति है!

 

तुम! अरे, वही हाँ तुम हो

मेरी चिर जीवनसंगिनि

दुख वाले दग्ध हृदय की

वेदने! अश्रुमयि रंगिनि!

 

जब तुम्हें भूल जाता हूँ

कुड्मल किसलय के छल में

तब कूक हूक-सू बन तुम

आ जाती रंगस्थल में।

 

बतला दो अरे न हिचको

क्या देखा शून्य गगन में

कितना पथ हो चल आई

रजनी के मृदु निर्जन में!

 

सुख तृप्त हृदय कोने को

ढँकती तमश्यामल छाया

मधु स्वप्निल ताराओं की

जब चलती अभिनय माया।

 

देखा तुमने तब रुककर

मानस कुमुदों का रोना

शशि किरणों का हँस-हँसकर

मोती मकरन्द पिरोना।

 

देखा बौने जलनिधि का

शशि छूने को ललचाना

वह हाहाकार मचाना

फिर उठ-उठकर गिर जाना।

 

मुँह सिये, झेलती अपनी

अभिशाप ताप ज्वालाएँ

देखी अतीत के युग की

चिर मौन शैल मालाएँ।

 

जिनपर न वनस्पति कोई

श्यामल उगने पाती है

जो जनपद परस तिरस्कृत

अभिशप्त कही जाती है।

 

कलियों को उन्मुख देखा

सुनते वह कपट कहानी

फिर देखा उड़ जाते भी

मधुकर को कर मनमानी।

 

फिर उन निराश नयनों की

जिनके आँसू सूखे हैं

उस प्रलय दशा को देखा

जो चिर वंचित भूखे हैं।

 

सूखी सरिता की शय्या

वसुधा की करुण कहानी

कूलों में लीन न देखी

क्या तुमने मेरी रानी?

 

सूनी कुटिया कोने में

रजनी भर जलते जाना

लघु स्नेह भरे दीपक का

देखा है फिर बुझ जाना।

 

सबका निचोड़ लेकर तुम

सुख से सूखे जीवन में

बरसों प्रभात हिमकन-सा

आँसू इस विश्व-सदन में ।

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रचनाएँ
आँसू
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इस कविता में कवि अपने जीवन में घटित सूख दुख अनुभूति के बारे में बताते हुए कहता है कि जीवन सुख और दुख की लीला भूमि है। यहां शोक और आनंद दोनों आते रहते हैं। कवि को हमेशा से अपनी वेदना पर विश्वास है। एक प्रेमी के लिए सूख दुख दोनों नियती का दान है और दोनों सामान्य है।
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आँसू (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती?   मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती कुछ विस्मृत बीती बातें?   आती हैं शू

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आँसू (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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घन में सुंदर बिजली-सी बिजली में चपल चमक सी आँखो में काली पुतली पुतली में श्याम झलक सी प्रतिमा में सजीवता-सी बस गयी सुछवि आँखों में थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही लाखों में।   माना कि रूप सी

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आँसू (भाग 3)

20 अप्रैल 2022
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हीरे-सा हृदय हमारा कुचला शिरीष कोमल ने हिमशीतल प्रणय अनल बन अब लगा विरह से जलने।   अलियों से आँख बचा कर जब कुंज संकुचित होते धुँधली संध्या प्रत्याशा हम एक-एक को रोते।   जल उठा स्नेह, दीपक-सा

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आँसू (भाग 4)

20 अप्रैल 2022
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यह पारावार तरल हो फेनिल हो गरल उगलता मथ डाला किस तृष्णा से तल में बड़वानल जलता।   निश्वास मलय में मिलकर छाया पथ छू आयेगा अन्तिम किरणें बिखराकर हिमकर भी छिप जायेगा।   चमकूँगा धूल कणों में सौ

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आँसू (भाग 5)

20 अप्रैल 2022
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सपनों की सोनजुही सब बिखरें, ये बनकर तारा सित सरसित से भर जावे वह स्वर्ग गंगा की धारा   नीलिमा शयन पर बैठी अपने नभ के आँगन में विस्मृति की नील नलिन रस बरसो अपांग के घन से।   चिर दग्ध दुखी यह

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आँसू (भाग 6)

20 अप्रैल 2022
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आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अंचल फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे उसमें करुणा हो चंचल   मधु संसृत्ति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन में फिर से मरन्द हो कोमल कुसुमों के वन में।   फिर विश्व माँगता हो

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