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आँसू (भाग 5)

20 अप्रैल 2022

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सपनों की सोनजुही सब

बिखरें, ये बनकर तारा

सित सरसित से भर जावे

वह स्वर्ग गंगा की धारा

 

नीलिमा शयन पर बैठी

अपने नभ के आँगन में

विस्मृति की नील नलिन रस

बरसो अपांग के घन से।

 

चिर दग्ध दुखी यह वसुधा

आलोक माँगती तब भी

तम तुहिन बरस दो कन-कन

यह पगली सोये अब भी।

 

विस्मृति समाधि पर होगी

वर्षा कल्याण जलद की

सुख सोये थका हुआ-सा

चिन्ता छुट जाय विपद की।

 

चेतना लहर न उठेगी

जीवन समुद्र थिर होगा

सन्ध्या हो सर्ग प्रलय की

विच्छेद मिलन फिर होगा।

 

रजनी की रोई आँखें

आलोक बिन्दु टपकाती

तम की काली छलनाएँ

उनको चुप-चुप पी जाती।

 

सुख अपमानित करता-सा

जब व्यंग हँसी हँसता है

चुपके से तब मत रो तू

यब कैसी परवशता है।

 

अपने आँसू की अंजलि

आँखो से भर क्यों पीता

नक्षत्र पतन के क्षण में

उज्जवल होकर है जीता।

 

वह हँसी और यह आँसू

घुलने दे-मिल जाने दे

बरसात नई होने दे

कलियों को खिल जाने दे।

 

चुन-चुन ले रे कन-कन से

जगती की सजग व्यथाएँ

रह जायेंगी कहने को

जन-रंजन-करी कथाएँ।

 

जब नील दिशा अंचल में

हिमकर थक सो जाते हैं

अस्ताचल की घाटी में

दिनकर भी खो जाते हैं।

 

नक्षत्र डूब जाते हैं

स्वर्गंगा की धारा में

बिजली बन्दी होती जब

कादम्बिनी की कारा में।

 

मणिदीप विश्व-मन्दिर की

पहने किरणों की माला

तुम अकेली तब भी

जलती हो मेरी ज्वाला।

 

उत्ताल जलधि वेला में

अपने सिर शैल उठाये

निस्तब्ध गगन के नीचे

छाती में जलन छिपाये

 

संकेत नियति का पाकर

तम से जीवन उलझाये

जब सोती गहन गुफा में

चंचल लट को छिटकाये।

 

वह ज्वालामुखी जगत की

वह विश्व वेदना बाला

तब भी तुम सतत अकेली

जलती हो मेरी ज्वाला!

 

इस व्यथित विश्व पतझड़ की

तुम जलती हो मृदु होली

हे अरुणे! सदा सुहागिनि

मानवता सिर की रोली।

 

जीवन सागर में पावन

बड़वानल की ज्वाला-सी

यह सारा कलुष जलाकर

तुम जलो अनल बाला-सी।

 

जगद्वन्द्वों के परिणय की

हे सुरभिमयी जयमाला

किरणों के केसर रज से

भव भर दो मेरी ज्वाला।

 

तेरे प्रकाश में चेतन-

संसार वेदना वाला,

मेरे समीप होता है

पाकर कुछ करुण उजाला।

 

उसमें धुँधली छायाएँ

परिचय अपना देती हैं

रोदन का मूल्य चुकाकर

सब कुछ अपना लेती हैं।

 

निर्मम जगती को तेरा

मंगलमय मिले उजाला

इस जलते हुए हृदय को

कल्याणी शीतल ज्वाला।

 

जिसके आगे पुलकित हो

जीवन है सिसकी भरता

हाँ मृत्यु नृत्य करती है

मुस्क्याती खड़ी अमरता ।

 

वह मेरे प्रेम विहँसते

जागो मेरे मधुवन में

फिर मधुर भावनाओं का

कलरव हो इस जीवन में।

 

मेरी आहों में जागो

सुस्मित में सोनेवाले

अधरों से हँसते-हँसते

आँखों से रोनेवाले।

 

इस स्वप्नमयी संसृत्ति के

सच्चे जीवन तुम जागो

मंगल किरणों से रंजित

मेरे सुन्दरतम जागो।

 

अभिलाषा के मानस में

सरसिज-सी आँखे खोलो

मधुपों से मधु गुंजारो

कलरव से फिर कुछ बोलो।

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रचनाएँ
आँसू
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इस कविता में कवि अपने जीवन में घटित सूख दुख अनुभूति के बारे में बताते हुए कहता है कि जीवन सुख और दुख की लीला भूमि है। यहां शोक और आनंद दोनों आते रहते हैं। कवि को हमेशा से अपनी वेदना पर विश्वास है। एक प्रेमी के लिए सूख दुख दोनों नियती का दान है और दोनों सामान्य है।
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आँसू (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती?   मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती कुछ विस्मृत बीती बातें?   आती हैं शू

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आँसू (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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घन में सुंदर बिजली-सी बिजली में चपल चमक सी आँखो में काली पुतली पुतली में श्याम झलक सी प्रतिमा में सजीवता-सी बस गयी सुछवि आँखों में थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही लाखों में।   माना कि रूप सी

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आँसू (भाग 3)

20 अप्रैल 2022
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हीरे-सा हृदय हमारा कुचला शिरीष कोमल ने हिमशीतल प्रणय अनल बन अब लगा विरह से जलने।   अलियों से आँख बचा कर जब कुंज संकुचित होते धुँधली संध्या प्रत्याशा हम एक-एक को रोते।   जल उठा स्नेह, दीपक-सा

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आँसू (भाग 4)

20 अप्रैल 2022
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यह पारावार तरल हो फेनिल हो गरल उगलता मथ डाला किस तृष्णा से तल में बड़वानल जलता।   निश्वास मलय में मिलकर छाया पथ छू आयेगा अन्तिम किरणें बिखराकर हिमकर भी छिप जायेगा।   चमकूँगा धूल कणों में सौ

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आँसू (भाग 5)

20 अप्रैल 2022
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सपनों की सोनजुही सब बिखरें, ये बनकर तारा सित सरसित से भर जावे वह स्वर्ग गंगा की धारा   नीलिमा शयन पर बैठी अपने नभ के आँगन में विस्मृति की नील नलिन रस बरसो अपांग के घन से।   चिर दग्ध दुखी यह

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आँसू (भाग 6)

20 अप्रैल 2022
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आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अंचल फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे उसमें करुणा हो चंचल   मधु संसृत्ति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन में फिर से मरन्द हो कोमल कुसुमों के वन में।   फिर विश्व माँगता हो

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