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आँसू (भाग 4)

20 अप्रैल 2022

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यह पारावार तरल हो

फेनिल हो गरल उगलता

मथ डाला किस तृष्णा से

तल में बड़वानल जलता।

 

निश्वास मलय में मिलकर

छाया पथ छू आयेगा

अन्तिम किरणें बिखराकर

हिमकर भी छिप जायेगा।

 

चमकूँगा धूल कणों में

सौरभ हो उड़ जाऊँगा

पाऊँगा कहीं तुम्हें तो

ग्रहपथ मे टकराऊँगा।

 

इस यान्त्रिक जीवन में क्या

ऐसी थी कोई क्षमता

जगती थी ज्योति भरी-सी।

तेरी सजीवता ममता।

 

हैं चन्द्र हृदय में बैठा

उस शीतल किरण सहारे

सौन्दर्य सुधा बलिहारी

चुगता चकोर अंगारे।

 

बलने का सम्बल लेकर

दीपक पतंग से मिलता

जलने की दीन दशा में

वह फूल सदृश हो खिलता!

 

इस गगन यूथिका वन में

तारे जूही से खिलते

सित शतदल से शशि तुम क्यों

उनमे जाकर हो मिलते?

 

मत कहो कि यही सफलता

कलियों के लघु जीवन की

मकरंद भरी खिल जायें

तोड़ी जाये बेमन की।

 

यदि दो घड़ियों का जीवन

कोमल वृन्तों में बीते

कुछ हानि तुम्हारी है क्या

चुपचाप चू पड़े जीते!

 

सब सुमन मनोरथ अंजलि

बिखरा दी इन चरणों में

कुचलो न कीट-सा, इनके

कुछ हैं मकरन्द कणों में।

 

निर्मोह काल के काले-

पट पर कुछ अस्फुट रेखा

सब लिखी पड़ी रह जाती

सुख-दुख मय जीवन रेखा।

 

दुख-सुख में उठता गिरता

संसार तिरोहित होगा

मुड़कर न कभी देखेगा

किसका हित अनहित होगा।

 

मानस जीवन वेदी पर

परिणय हो विरह मिलन का

दुख-सुख दोनों नाचेंगे

हैं खेल आँख का मन का।

 

इतना सुख ले पल भर में

जीवन के अन्तस्तल से

तुम खिसक गये धीरे-से

रोते अब प्राण विकल से।

 

क्यों छलक रहा दुख मेरा

ऊषा की मृदु पलकों में

हाँ, उलझ रहा सुख मेरा

सन्ध्या की घन अलकों में।

 

लिपटे सोते थे मन में

सुख-दुख दोनों ही ऐसे

चन्द्रिका अँधेरी मिलती

मालती कुंज में जैसे।

 

अवकाश असीम सुखों से

आकाश तरंग बनाता

हँसता-सा छायापथ में

नक्षत्र समाज दिखाता।

 

नीचे विपुला धरणी हैं

दुख भार वहन-सी करती

अपने खारे आँसू से

करुणा सागर को भरती।

 

धरणी दुख माँग रही हैं

आकाश छीनता सुख को

अपने को देकर उनको

हूँ देख रहा उस मुख को।

 

इतना सुख जो न समाता

अन्तरिक्ष में, जल थल में

उनकी मुट्ठी में बन्दी

था आश्वासन के छल में।

 

दुख क्या था उनको, मेरा

जो सुख लेकर यों भागे

सोते में चुम्बन लेकर

जब रोम तनिक-सा जागे।

 

सुख मान लिया करता था

जिसका दुख था जीवन में

जीवन में मृत्यु बसी हैं

जैसे बिजली हो घन में।

 

उनका सुख नाच उठा है

यह दुख द्रुम दल हिलने से

ऋंगार चमकता उनका

मेरी करुणा मिलने से।

 

हो उदासीन दोनों से

दुख-सुख से मेल कराये

ममता की हानि उठाकर

दो रूठे हुए मनाये।

 

चढ़ जाय अनन्त गगन पर

वेदना जलद की माला

रवि तीव्र ताप न जलाये

हिमकर को हो न उजाला।

 

नचती है नियति नटी-सी

कन्दुक-क्रीड़ा-सी करती

इस व्यथित विश्व आँगन में

अपना अतृप्त मन भरती।

 

सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा

कह चलती कुछ मनमानी

ऊषा की रक्त निराशा

कर देती अन्त कहानी।

 

"विभ्रम मदिरा से उठकर

आओ तम मय अन्तर में

पाओगे कुछ न,टटोलो

अपने बिन सूने घर में।

 

इस शिथिल आह से खिंचकर

तुम आओगे-आओगे

इस बढ़ी व्यथा को मेरी

रोओगे अपनाओगे।"

 

वेदना विकल फिर आई

मेरी चौदहो भुवन में

सुख कहीं न दिया दिखाई

विश्राम कहाँ जीवन में!

 

उच्छ्वास और आँसू में

विश्राम थका सोता है

रोई आँखों में निद्रा

बनकर सपना होता है।

 

निशि, सो जावें जब उर में

ये हृदय व्यथा आभारी

उनका उन्माद सुनहला

सहला देना सुखकारी।

 

तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी

नन्दन तमाल के तल से

जग छा दो श्याम-लता-सी

तन्द्रा पल्लव विह्वल से।

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रचनाएँ
आँसू
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इस कविता में कवि अपने जीवन में घटित सूख दुख अनुभूति के बारे में बताते हुए कहता है कि जीवन सुख और दुख की लीला भूमि है। यहां शोक और आनंद दोनों आते रहते हैं। कवि को हमेशा से अपनी वेदना पर विश्वास है। एक प्रेमी के लिए सूख दुख दोनों नियती का दान है और दोनों सामान्य है।
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आँसू (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती?   मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती कुछ विस्मृत बीती बातें?   आती हैं शू

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आँसू (भाग 2)

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घन में सुंदर बिजली-सी बिजली में चपल चमक सी आँखो में काली पुतली पुतली में श्याम झलक सी प्रतिमा में सजीवता-सी बस गयी सुछवि आँखों में थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही लाखों में।   माना कि रूप सी

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आँसू (भाग 3)

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हीरे-सा हृदय हमारा कुचला शिरीष कोमल ने हिमशीतल प्रणय अनल बन अब लगा विरह से जलने।   अलियों से आँख बचा कर जब कुंज संकुचित होते धुँधली संध्या प्रत्याशा हम एक-एक को रोते।   जल उठा स्नेह, दीपक-सा

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आँसू (भाग 5)

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सपनों की सोनजुही सब बिखरें, ये बनकर तारा सित सरसित से भर जावे वह स्वर्ग गंगा की धारा   नीलिमा शयन पर बैठी अपने नभ के आँगन में विस्मृति की नील नलिन रस बरसो अपांग के घन से।   चिर दग्ध दुखी यह

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आँसू (भाग 6)

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आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अंचल फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे उसमें करुणा हो चंचल   मधु संसृत्ति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन में फिर से मरन्द हो कोमल कुसुमों के वन में।   फिर विश्व माँगता हो

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