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आँसू (भाग 3)

20 अप्रैल 2022

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हीरे-सा हृदय हमारा

कुचला शिरीष कोमल ने

हिमशीतल प्रणय अनल बन

अब लगा विरह से जलने।

 

अलियों से आँख बचा कर

जब कुंज संकुचित होते

धुँधली संध्या प्रत्याशा

हम एक-एक को रोते।

 

जल उठा स्नेह, दीपक-सा,

नवनीत हृदय था मेरा

अब शेष धूमरेखा से

चित्रित कर रहा अँधेरा।

 

नीरव मुरली, कलरव चुप

अलिकुल थे बन्द नलिन में

कालिन्दी वही प्रणय की

इस तममय हृदय पुलिन में।

 

कुसुमाकर रजनी के जो

पिछले पहरों में खिलता

उस मृदुल शिरीष सुमन-सा

मैं प्रात धूल में मिलता।

 

व्याकुल उस मधु सौरभ से

मलयानिल धीरे-धीरे

निश्वास छोड़ जाता हैं

अब विरह तरंगिनि तीरे।

 

चुम्बन अंकित प्राची का

पीला कपोल दिखलाता

मै कोरी आँख निरखता

पथ, प्रात समय सो जाता।

 

श्यामल अंचल धरणी का

भर मुक्ता आँसू कन से

छूँछा बादल बन आया

मैं प्रेम प्रभात गगन से।

 

विष प्याली जो पी ली थी

वह मदिरा बनी नयन में

सौन्दर्य पलक प्याले का

अब प्रेम बना जीवन में।

 

कामना सिन्धु लहराता

छवि पूरनिमा थी छाई

रतनाकर बनी चमकती

मेरे शशि की परछाई।

 

छायानट छवि-परदे में

सम्मोहन वेणु बजाता

सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में

कौतुक अपना कर जाता।

 

मादकता से आये तुम

संज्ञा से चले गये थे

हम व्याकुल पड़े बिलखते

थे, उतरे हुए नशे से।

 

अम्बर असीम अन्तर में

चंचल चपला से आकर

अब इन्द्रधनुष-सी आभा

तुम छोड़ गये हो जाकर।

 

मकरन्द मेघ माला-सी

वह स्मृति मदमाती आती

इस हृदय विपिन की कलिका

जिसके रस से मुसक्याती।

 

हैं हृदय शिशिरकण पूरित

मधु वर्षा से शशि! तेरी

मन मन्दिर पर बरसाता

कोई मुक्ता की ढेरी।

 

शीतल समीर आता हैं

कर पावन परस तुम्हारा

मैं सिहर उठा करता हूँ

बरसा कर आँसू धारा

 

मधु मालतियाँ सोती हैं

कोमल उपधान सहारे

मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर

गिनता अम्बर के तारे।

 

निष्ठुर! यह क्या छिप जाना?

मेरा भी कोई होगा

प्रत्याशा विरह-निशा की

हम होगे औ' दुख होगा।

 

जब शान्त मिलन सन्ध्या को

हम हेम जाल पहनाते

काली चादर के स्तर का

खुलना न देखने पाते।

 

अब छुटता नहीं छुड़ाये

रंग गया हृदय हैं ऐसा

आँसू से धुला निखरता

यह रंग अनोखा कैसा!

 

 

कामना कला की विकसी

कमनीय मूर्ति बन तेरी

खिंचती हैं हृदय पटल पर

अभिलाषा बनकर मेरी।

 

मणि दीप लिये निज कर में

पथ दिखलाने को आये

वह पावक पुंज हुआ अब

किरनों की लट बिखराये।

 

बढ़ गयी और भी ऊँठी

रूठी करुणा की वीणा

दीनता दर्प बन बैठी

साहस से कहती पीड़ा।

 

यह तीव्र हृदय की मदिरा

जी भर कर-छक कर मेरी

अब लाल आँख दिखलाकर

मुझको ही तुमने फेरी।

 

नाविक! इस सूने तट पर

किन लहरों में खे लाया

इस बीहड़ बेला में क्या

अब तक था कोई आया।

 

उम पार कहाँ फिर आऊँ

तम के मलीन अंचल में

जीवन का लोभ नहीं, वह

वेदना छद्ममय छल में।

 

प्रत्यावर्तन के पथ में

पद-चिह्न न शेष रहा है।

डूबा है हृदय मरूस्थल

आँसू नद उमड़ रहा है।

 

अवकाश शून्य फैला है

है शक्ति न और सहारा

अपदार्थ तिरूँगा मैं क्या

हो भी कुछ कूल किनारा।

 

तिरती थी तिमिर उदधि में

नाविक! यह मेरी तरणी

मुखचन्द्र किरण से खिंचकर

आती समीप हो धरणी।

 

सूखे सिकता सागर में

यह नैया मेरे मन की

आँसू का धार बहाकर

खे चला प्रेम बेगुन की।

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रचनाएँ
आँसू
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इस कविता में कवि अपने जीवन में घटित सूख दुख अनुभूति के बारे में बताते हुए कहता है कि जीवन सुख और दुख की लीला भूमि है। यहां शोक और आनंद दोनों आते रहते हैं। कवि को हमेशा से अपनी वेदना पर विश्वास है। एक प्रेमी के लिए सूख दुख दोनों नियती का दान है और दोनों सामान्य है।
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आँसू (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती?   मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती कुछ विस्मृत बीती बातें?   आती हैं शू

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आँसू (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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घन में सुंदर बिजली-सी बिजली में चपल चमक सी आँखो में काली पुतली पुतली में श्याम झलक सी प्रतिमा में सजीवता-सी बस गयी सुछवि आँखों में थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही लाखों में।   माना कि रूप सी

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आँसू (भाग 3)

20 अप्रैल 2022
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आँसू (भाग 4)

20 अप्रैल 2022
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यह पारावार तरल हो फेनिल हो गरल उगलता मथ डाला किस तृष्णा से तल में बड़वानल जलता।   निश्वास मलय में मिलकर छाया पथ छू आयेगा अन्तिम किरणें बिखराकर हिमकर भी छिप जायेगा।   चमकूँगा धूल कणों में सौ

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आँसू (भाग 5)

20 अप्रैल 2022
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सपनों की सोनजुही सब बिखरें, ये बनकर तारा सित सरसित से भर जावे वह स्वर्ग गंगा की धारा   नीलिमा शयन पर बैठी अपने नभ के आँगन में विस्मृति की नील नलिन रस बरसो अपांग के घन से।   चिर दग्ध दुखी यह

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आँसू (भाग 6)

20 अप्रैल 2022
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आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अंचल फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे उसमें करुणा हो चंचल   मधु संसृत्ति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन में फिर से मरन्द हो कोमल कुसुमों के वन में।   फिर विश्व माँगता हो

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