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आँसू (भाग 2)

20 अप्रैल 2022

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घन में सुंदर बिजली-सी

बिजली में चपल चमक सी

आँखो में काली पुतली

पुतली में श्याम झलक सी

प्रतिमा में सजीवता-सी

बस गयी सुछवि आँखों में

थी एक लकीर हृदय में

जो अलग रही लाखों में।

 

माना कि रूप सीमा हैं

सुन्दर! तव चिर यौवन में

पर समा गये थे, मेरे

मन के निस्सीम गगन में।

 

लावण्य शैल राई-सा

जिस पर वारी बलिहारी

उस कमनीयता कला की

सुषमा थी प्यारी-प्यारी।

 

बाँधा था विधु को किसने

इन काली जंजीरों से

मणि वाले फणियों का मुख

क्यों भरा हुआ हीरों से?

 

काली आँखों में कितनी

यौवन के मद की लाली

मानिक मदिरा से भर दी

किसने नीलम की प्याली?

 

तिर रही अतृप्ति जलधि में

नीलम की नाव निराली

कालापानी वेला-सी

हैं अंजन रेखा काली।

 

अंकित कर क्षितिज पटी को

तूलिका बरौनी तेरी

कितने घायल हृदयों की

बन जाती चतुर चितेरी।

 

कोमल कपोल पाली में

सीधी सादी स्मित रेखा

जानेगा वही कुटिलता

जिसमें भौं में बल देखा।

 

विद्रुम सीपी सम्पुट में

मोती के दाने कैसे

हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यों

चुगने की मुद्रा ऐसे?

 

विकसित सरसिज वन-वैभव

मधु-ऊषा के अंचल में

उपहास करावे अपना

जो हँसी देख ले पल में!

 

मुख-कमल समीप सजे थे

दो किसलय से पुरइन के

जलबिन्दु सदृश ठहरे कब

उन कानों में दुख किनके?

 

थी किस अनंग के धनु की

वह शिथिल शिंजिनी दुहरी

अलबेली बाहुलता या

तनु छवि सर की नव लहरी?

 

चंचला स्नान कर आवे

चंद्रिका पर्व में जैसी

उस पावन तन की शोभा

आलोक मधुर थी ऐसी!

 

छलना थी, तब भी मेरा

उसमें विश्वास घना था

उस माया की छाया में

कुछ सच्चा स्वयं बना था।

 

वह रूप रूप था केवल

या रहा हृदय भी उसमें

जड़ता की सब माया थी

चैतन्य समझ कर मुझमें।

 

मेरे जीवन की उलझन

बिखरी थी उनकी अलकें

पी ली मधु मदिरा किसने

थी बन्द हमारी पलकें।

 

ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी

बस शान्ति विहँसती बैठी

उस बन्धन में सुख बँधता

करुणा रहती थी ऐंठी।

 

हिलते द्रुमदल कल किसलय

देती गलबाँही डाली

फूलों का चुम्बन, छिड़ती

मधुपोन् की तान निराली।

 

मुरली मुखरित होती थी

मुकुलों के अधर बिहँसते

मकरन्द भार से दब कर

श्रवणों में स्वर जा बसते।

 

परिरम्भ कुम्भ की मदिरा

निश्वास मलय के झोंके

मुख चन्द्र चाँदनी जल से

मैं उठता था मुँह धोके।

 

थक जाती थी सुख रजनी

मुख चन्द्र हृदय में होता

श्रम सीकर सदृश नखत से

अम्बर पट भीगा होता।

 

सोयेगी कभी न वैसी

फिर मिलन कुंज में मेरे

चाँदनी शिथिल अलसायी

सुख के सपनों से मेरे।

 

लहरों में प्यास भरी है

है भँवर पात्र भी खाली

मानस का सब रस पी कर

लुढ़का दी तुमने प्याली।

 

किंजल्क जाल हैं बिखरे

उड़ता पराग हैं रूखा

हैं स्नेह सरोज हमारा

विकसा, मानस में सूखा।

 

छिप गयी कहाँ छू कर वे

मलयज की मृदु हिलोरें

क्यों घूम गयी है आ कर

करुणा कटाक्ष की कोरें।

 

विस्मृति हैं, मादकता हैं

मूर्च्छना भरी है मन में

कल्पना रही, सपना था

मुरली बजती निर्जन में।

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रचनाएँ
आँसू
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इस कविता में कवि अपने जीवन में घटित सूख दुख अनुभूति के बारे में बताते हुए कहता है कि जीवन सुख और दुख की लीला भूमि है। यहां शोक और आनंद दोनों आते रहते हैं। कवि को हमेशा से अपनी वेदना पर विश्वास है। एक प्रेमी के लिए सूख दुख दोनों नियती का दान है और दोनों सामान्य है।
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आँसू (भाग 1)

20 अप्रैल 2022
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इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती?   मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती कुछ विस्मृत बीती बातें?   आती हैं शू

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आँसू (भाग 2)

20 अप्रैल 2022
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घन में सुंदर बिजली-सी बिजली में चपल चमक सी आँखो में काली पुतली पुतली में श्याम झलक सी प्रतिमा में सजीवता-सी बस गयी सुछवि आँखों में थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही लाखों में।   माना कि रूप सी

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आँसू (भाग 3)

20 अप्रैल 2022
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हीरे-सा हृदय हमारा कुचला शिरीष कोमल ने हिमशीतल प्रणय अनल बन अब लगा विरह से जलने।   अलियों से आँख बचा कर जब कुंज संकुचित होते धुँधली संध्या प्रत्याशा हम एक-एक को रोते।   जल उठा स्नेह, दीपक-सा

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आँसू (भाग 4)

20 अप्रैल 2022
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यह पारावार तरल हो फेनिल हो गरल उगलता मथ डाला किस तृष्णा से तल में बड़वानल जलता।   निश्वास मलय में मिलकर छाया पथ छू आयेगा अन्तिम किरणें बिखराकर हिमकर भी छिप जायेगा।   चमकूँगा धूल कणों में सौ

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आँसू (भाग 5)

20 अप्रैल 2022
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सपनों की सोनजुही सब बिखरें, ये बनकर तारा सित सरसित से भर जावे वह स्वर्ग गंगा की धारा   नीलिमा शयन पर बैठी अपने नभ के आँगन में विस्मृति की नील नलिन रस बरसो अपांग के घन से।   चिर दग्ध दुखी यह

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आँसू (भाग 6)

20 अप्रैल 2022
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आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अंचल फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे उसमें करुणा हो चंचल   मधु संसृत्ति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन में फिर से मरन्द हो कोमल कुसुमों के वन में।   फिर विश्व माँगता हो

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