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आँसू छंद "कल और आज"

20 अक्टूबर 2019

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आँसू छंद "कल और आज"


भारत तू कहलाता था, सोने की चिड़िया जग में।

तुझको दे पद जग-गुरु का, सब पड़ते तेरे पग में।

तू ज्ञान-ज्योति से अपनी, संपूर्ण विश्व चमकाया।

कितनों को इस संपद से, तूने जीना सिखलाया।।1।।


तेरी पावन वसुधा पर, नर-रत्न अनेक खिले थे।

बल, विक्रम और दया के, जिनको गुण खूब मिले थे।

अपनी मीठी वाणी से, वे जग मानस लहराये।

सन्देश धर्म का दे कर, थे दया-केतु फहराये।।2।।


प्राणी में सम भावों की, वीणा-लहरी गूँजाई।

इस जग-कानन में उनने, करुणा की लता खिलाई।

अपने इन पावन गुण से, तू जग का गुरु कहलाया।

जग एक सूत्र में बाँधा, अपना सम्मान बढ़ाया।।3।।


तू आज बता क्यों भारत, वह गौरव भुला दिया है।

वह भूल अतीत सुहाना, धारण नव-वेश किया है।

तेरी दीपक की लौ में, जिनके थे मिटे अँधेरे।

वे सिखा रहें अब तुझको, बन कर के अग्रज तेरे।।4।।


तूने ही सब से पहले, उनको उपदेश दिया था।

तू ज्ञान-भानु बन चमका, जग का तम दूर किया था।

वह मान बड़ाई तूने, अपने मन से बिसरा दी।

वह छवि अतीत की पावन, उर से ही आज मिटा दी।।5।।


तेरे प्रकाश में जग का, था आलोकित हृदयांगन।

तूने ही तो सिखलाया, जग-जन को वह ज्ञानांकन।

वह दिव्य जगद्गुरु का पद, तू पूरा भूल गया है।

हर ओर तुझे अब केवल, दिखता सब नया नया है।।6।।


अपना आँचल फैला कर, बन कर के दीन भिखारी।

थे कृपा-दृष्टि के इच्छुक, जो जग-जन कभी तिहारी।

अब दया-दृष्टि का उनकी, रहता सदैव तू प्यासा।

क्या भान नहीं है इसका, कैसे पलटा यह पासा।।7।।


अपने रिवाज सब छोड़े , बिसराया खाना, पीना।

त्यज वेश और भूषा तक, छोड़ा रिश्तों में जीना।

अपने कुल, जाति, वर्ण का, मन में अभिमान न अब है।

अपनाना रंग विदेशी, तूने तो ठाना सब है।।8।।


कण कण में व्याप्त हुई है, तेरे भीषण कृत्रिमता।

बस आज विदेशी की ही, तुझ में दिखती व्यापकता।

ये दृष्टि जिधर को जाती, हैं रंग नये ही दिखते।

नव रंग रूप ये तेरी, हैं भाग्य-रेख को लिखते।।9।।

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आँसू छंद विधान


14 - 14 मात्रा (चरण में कुल 28 मात्रा। दो दो चरण सम तुकांत)

मात्रा बाँट:- 2 - 8 - 2 - 2 प्रति यति में।

मानव छंद में किंचित परिवर्तन कर प्रसाद जी ने पूरा 'आँसू' खंड काव्य इस छंद में रचा है, इसलिए इस छंद का नाम ही आँसू छंद प्रचलित हो गया है।

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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

तिनसुकिया

https://nayekavi.blogspot.com

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