आल्हा छंद "आलस्य"
कल पे काम कभी मत छोड़ो, आता नहीं कभी वह काल।
आगे कभी नहीं बढ़ पाते, देते रोज काम जो टाल।।
किले बनाते रोज हवाई, व्यर्थ सोच में हो कर लीन।
मोल समय का नहिं पहचाने, महा आलसी प्राणी दीन।।
बोझ बने जीवन को ढोते, तोड़े खटिया बैठ अकाज।
कार्य-काल को व्यर्थ गँवाते, मन में रखे न शंका लाज।
नहीं भरोसा खुद पे रखते, देते सदा भाग्य को दोष,
कभी नहीं पाते ऐसे नर, जीवन का सच्चा सन्तोष।।
आलस ऐसा शत्रु भयानक, जो जर्जर कर देता देह।
मान प्रतिष्ठा क्षीण करे यह, अरु उजाड़ देता है गेह।।
इस रिपु से जो नहीं चेतते, बनें हँसी के जग में पात्र।
बन कर रह जाते हैं वे नर, इसके एक खिलौना मात्र।।
कुकड़ू कूँ से कुक्कुट प्रतिदिन, देता ये पावन संदेश।
भोर हुई है शय्या त्यागो, कर्म-क्षेत्र में करो प्रवेश।।
चिड़िया चहक चहक ये कहती, गौ भी कहे यही रंभाय।
वातायन से छन कर आती, प्रात-प्रभा भी यही सुनाय।।
पर आलस का मारा मानस, इस सब से रह कर अनजान।
बिस्तर पे ही पड़ा पड़ा वह, दिन का कर देता अवसान।।
ऊहापोह भरी मन स्थिति के, घोड़े दौड़ा बिना लगाम।
नये बहाने नित्य गढ़े वह, टालें कैसे दैनिक काम।।
मानव की हर प्रगति-राह में, खींचे आलस उसके पाँव।
अकर्मण्य रूखे जीवन पर, सुख की पड़ने दे नहिं छाँव।।
कार्य-क्षेत्र में नहिं बढ़ने दे, हर लेता जो भी है पास।
घोर व्यसन यह तन मन का जो, जीवन में भर देता त्रास।।
बासुदेव अग्रवाल 'नमन,
तिनसुकिया