पहले 👇🏻 मात्राओं की बंदिश मुझसे सही नहीं जाती इसलिये छंद मुक्त कविता मुझे खूब है भाती अब👇🏻 काव्य मेरे मन को मोहे, हायकू हो या दोहे लेखन बड़ा भाता मोहे, छन्द भी मुझको सोहे
घनाक्षरी
राजनीति युद्ध नीति भेदनीति में प्रवीण
ध्रुव के समान धीरवान होना चाहि
(भृंग छंद)सँभल सँभल चरण धरत, चलत जिमि मराल।बरनउँ किस विध मधुरिम, रसमय मृदु चाल।।दमकत तन-द्युति लख कर, थिर दृग रह जात।तड़क तड़ित सम चमकत, बिच मधु बरसात।।शशि-मुख छवि अति अनुपम, निरख बढ़त प्यास।रसिक हृदय मँह यह लख, जगत मिलन आस।।विरह विकल अति अब यह, कनक वरण नार।दिन निशि कटत न समत न, तरुण-वयस भार।।अँखियन थक
भुजंगप्रयात छंदहुई नोट बन्दी ठगा सा जमाना।किसी को रुलाना किसी को हँसाना।।कहीं आँसुओं की झड़ी सी लगी है।कहीं पे खुशी की दिवाली जगी है।।इकट्ठा जिन्होंने किया वित्त काला।उन्हीं का पिटा आज देखो दिवाला।।बसी थी
उड़ियाना छंद "विरह"क्यों री तू थमत नहीं, विरह की मथनिया।मथत रही बार बार, हॄदय की मटकिया।।सपने में नैन मिला, हँसत है सजनिया।छलकावत जाय रही, नेह की गगरिया।।गरज गरज बरस रही, श्यामली बदरिया।झनकारै हृदय-तार, कड़क के बिजुरिया।।ऐसे में कुहुक सुना, वैरन कोयलिया।विकल करे कबहु मिले, सजनी दुलहनिया।।तेरे बिन शुष्
उल्लाला छंद (माँ और उसका लाल)एक भिखारिन शीत में, बस्ते में लिपटाय के।अंक लगाये लाल को, बैठी है ठिठुराय के।।ममता में माँ मग्न है, सोया उसका लाल है।माँ के आँचल से लिपट, बेटा मालामाल है।।चिथड़ों में कुछ काटते, रक्त जमाती रात को।या फिर ताप अलाव को, गर्माहट दे गात को।।कहीं रिक्त हैं कोठियाँ, सर पे कहीं न
आल्हा छंद "आलस्य"कल पे काम कभी मत छोड़ो, आता नहीं कभी वह काल।आगे कभी नहीं बढ़ पाते, देते रोज काम जो टाल।।किले बनाते रोज हवाई, व्यर्थ सोच में हो कर लीन।मोल समय का नहिं पहचाने, महा आलसी प्राणी दीन।।बोझ बने जीवन को ढोते, तोड़े खटिया बैठ अकाज।कार्य-काल को व्यर्थ गँवाते, मन म
रोचक छंद "फागुन मास"फागुन मास सुहावना आया।मौसम रंग गुलाल का छाया।।पुष्प लता सब फूल के सोहे।आज बसन्त लुभावना मोहे।।ये ऋतुराज बड़ा मनोहारी।दग्ध करे मन काम-संचारी।।यौवन भार लदी सभी नारी।फागुन के रस भीग के न्यारी।।आज छटा ब्रज में नई राचे।खेलत फाग सभी यहाँ नाचे।।गोकुल ग्राम उछाह में झूमा।श्याम यहाँ हर राह
मनोज्ञा छंद "होली"भर सनेह रोली।बहुत आँख रो ली।।सजन आज होली।व्यथित खूब हो ली।।मधुर फाग आया।पर न अल्प भाया।।कछु न रंग खेलूँ।विरह पीड़ झेलूँ।।यह बसंत न्यारी।हरित आभ प्यारी।।प्रकृति भी सुहायी।नव उमंग छायी।।पर मुझे न चैना।कटत ये न रैना।।सजन य
धुनी छंद "फाग रंग"फागुन सुहावना।मौसम लुभावना।चंग बजती जहाँ।रंग उड़ते वहाँ।बालक गले लगे।प्रीत रस हैं पगे।नार नर दोउ ही।नाँय कम कोउ ही।।राग थिरकात है।ताल ठुमकात है।झूम सब नाचते।मोद मन मानते।।धर्म अरु जात को।भूल सब बात को।फाग रस झूमते।एक सँग खेलते।।===========लक्षण छंद:-"भाजग" रखें गुनी।'छंद' रचते 'धुन
इधर चलती जनता कछुए सी धीमी चाल, मचा भीषण आर्तनाद हमारे अंतर को जगाते; पर हाथों में हाथ धरे हम रह गए सोचते, क्यों कैसे की उलझन में हिचकोले खाते। उधर वे सजा काफ़िले ए.सी.कारों के, सड़कों पे दौड़े सरपट
ग्रंथि छंद (गीतिका, देश का ऊँचा सदा, परचम रखें)2122 212, 2212देश का ऊँचा सदा, परचम रखें,विश्व भर में देश-छवि, रवि सम रखें।मातृ-भू सर्वोच्च है, ये भाव रख,देश-हित में प्राण दें, दमखम रखें।विश्व-गुरु भारत रहा, बन कर कभी,देश फिर जग-गुरु बने, उप-क्रम रखें।देश का गौरव सदा, अक्षुण्ण रख,भारती के मान को, चम-
ताटंक छंद "नारी की पीड़ा"सदियों से भारत की नारी, पीड़ा सहती आयी हो।सिखलाया बचपन से जाता, तुम तो सदा परायी हो।बात बात में टोका जाता, दूजे घर में जाना है।जन्म लिया क्या यही लिखा कर? केवल झिड़की खाना है।।1।।घोर उपेक्षा की राहों की, तय करती आयी दूरी।नर-समाज में हुई नहीं थी,
हरिणी छंद "राधेकृष्णा नाम-रस"मन नित भजो, राधेकृष्णा, यही बस सार है।इन रस भरे, नामों का तो, महत्त्व अपार है।।चिर युगल ये, जोड़ी न्यारी, त्रिलोक लुभावनी।भगत जन के, प्राणों में ये, सुधा बरसावनी।।जहँ जहँ रहे, राधा प्यारी, वहीं घनश्याम हैं।परम द्युति के, श्रेयस्कारी, सभी पर
सहज वचन बोली कर जोरी।चञ्चल चितवन चन्द्र चकोरी।मन अनंग रति प्रेम पियासा।भाव विभाव सहज दुर्वासा।चन्द्र योग द्वय लखि विज्ञानी।पूर्वोत्तर साहित्य भवानी।।अकथनीय गुण बरनि न जाई ।शब्द विशेष समय प्रभुताई।अवसर परम पुनीत सुहावन lशब्द विशेष शेष मनभावन llपावन दिवस सुहावन कैसे ?प्रेम सुमित्र चित्र लखि जैसे ।lशंख
रोला- रोला छंद दोहा का उलटा होता है l विषम चरण में ग्यारह मात्रा एवं सम चरण में तेरह मात्रा के संयोग सेनिर्मित [११+१३=२४ मात्रिक ] लोकप्रिय रोला छंद है l रोला छंद में ११,१३ यति २४ मात्रिक छंद है दो क्रमागत चरण तुकांत होते हैं काव्य रम