आराधना का मन आज बहुत व्यथित हो रहा था। वो फुट फुट कर रो रही थी और खुद को कोसे भी जा रही थी। अपने आप में ही बड़बड़ाये जा रही थी "क्या मिला मुझे सबको इतना प्यार करके,सब पर अपना आप लुटा के ,बचपन के सुख ,जवानी की खुशियाँ तक लुटा दी तुमने ,सबको बाटा ही कभी किसी से कुछ मांगा नहीं लेकिन आज फिर भी खाली हाथ हो,क्यों ?"वो खुद को कोसे जा रही थी और रोये जा रही थी। बेचारी रोती भी क्यों नहीं जिस बड़े भाई को उसने माँ बाप के बाद सबसे ज्यादा प्यार और सम्मान दिया था उसी ने उसके साथ इतना बुरा व्यवहार किया था कि वो टूट गई थी। जिस पापा को उसने भगवान् के स्थान पर बिठा रखा था और उनकी जी जान से सेवा की थी ,तन मन और धन सब न्योछावर किया था वो पापा तीन महीने के कठिन बीमारी के बाद उसे हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए थे। जिसे वो नियति मान अपने दिल पर पत्थर रख माँ ,छोटे भाई बहन और बच्चो को सँभालने में लग गई थी.
पापा ने उसे "आँगन की तुलसी "का नाम और सम्मान दिया था. उस तुलसी को पिता के जाने के साथ ही बड़े भाई ने एक झटके से उखाड़ फेका था। ऐसे जैसे उसमे कीड़े लग गये हो वैसे ही उस पर भी कई इलज़ाम लगा दिए थे। वो भी उससे सीधे सामने कहते तो वो अपनी सफाई में कुछ कहती भी। वो तो दुसरो से कह रहे थे और ऐसे ऐसे इलज़ाम लगा रहे थे कि जो उसके सोच से भी परे थे। आराधना के पास ससुराल के नाम पर सिर्फ पति का साथ ही था और पति अकेले संतान थे तो परिवार के नाम पर उसके पास मयके का ही परिवार था। वो ता उम्र माँ बाप की सेवा और भाई बहनो की देख भाल करती आई थी। 45 -46 साल की उम्र हो चुकी थी लेकिन कभी अपने कर्तव्य से मुँह नहीं मोड़ी थी।
आज आराधना के अंदर अंतर्दन्द मचा था। क्यूँ मैंने अपनी खुशियाँ लुटाई ?क्यूँ इनके पीछे जान देती आई ?अचानक उसके अंतर्मन में सवाल उठा "खुशियाँ " कैसी खुशियाँ लुटाई ?उसके दिल ने कहा "मेरी खुशियाँ ",तुरंत अगला सवाल उठा "मेरी खुशियाँ क्या थी या है?" अचानक से उसका दिमाग उस दुःख से निकल इस सवाल पर अटक गया कि "मेरी खुशियाँ है क्या?"आराधना अपने सवाल का जबाब तलाश ने के लिए अपने जीवन के अन्दर झांकती हुई अतीत में पहुंच गई। बचपन की कोई बात खास मायने नहीं रखती। हाँ ,13 -14 साल की उम्र से अपने कर्म और यादे साथ होती है। आराधना उस उम्र में पहुंच गई और याद करने की कोशिश करने लगी कि ऐसी क्या चीज़ थी जिसे पा कर मैं बहुत खुश होती थी या ऐसी क्या चीज़ थी जिसे पाने की चाहत थी मुझे ?मुझे तो जो खाने को मिल गया मैं उसमे खुश,जो पहनने को मिल जाये मैं खुश ,कहि घूमने जाना हुआ तो मैं खुश, नहीं गए तब भी मैं खुश।
हाँ 15 -16 साल की उम्र में दिल में एक चाहत ने जन्म लिया था। सिर्फ और सिर्फ एक चाहत,एक ख़्वाहिश,एक तमन्ना जो नाम देदे उसे। वो ही मेरी पहली और आखिरी चाहत थी। ना उससे पहले मैंने कुछ चाहा था ना उसके बाद किसी चीज़ की चाहत रही और उस चीज़ को खोने के बाद ना कुछ पाने की ख़ुशी रही ना खोने का दर्द। जैसे एक छोटा बच्चा चाँद को देख मचलता है उसे पाना चाहता है और ना पा कर रोता है। उसके लिए चाँद को देखना ही उसकी सबसे बड़ी ख़ुशी होती है और उस चाँद को अपने हाथो में ना ले पाना ही उसका सबसे बड़ा गम। तो मेरे लिए भी मेरी वो ख़ुशी बच्चे के चाँद पाने की चाहत जैसी थी। आराधना सोचने लगी कि इस ख़ुशी को तो मैं अपने ख़ुशी के लिस्ट से निकल ही देती हूँ तो और क्या है जो मुझे ख़ुशी देता है बहुत मंथन करने पर उससे एहसास हुआ कि -जब मैं दुसरो को खुश करती हूँ तब मैं खुश होती हूँ। किसी ने कुछ खाने की फ़रमाइस की और मैंने बना कर खिलाया और वो खुश हुआ तो मैं खुश हुई,कोई बीमार है और मैंने उसकी सेवा की वो ठीक हुआ तो मैं खुश,कोई परेशान है और मैंने उसकी सहायता की और वो खुश हुआ तो मैं खुश। वो चाहे अपना हो या पराया ये सारे काम मैं बचपन से करती आई हूँ।
आराधना के अन्दर फिर सवाल उठा कि -मैंने क्यूँ किया था ,क्यों करती आ रही हु अब तक.क्या किसी ने मुझे से ये सब करने को कहा था? क्या माँ -पापा ने कहा था कि मेरी सेवा करो ? क्या भाई बहनो ने कहा था कि तुम मेरा ख्याल रखो ? क्या पड़ोसियों ने कहा आओ मेरी मदद करो ?क्या मेरे पति ने कहा कि तुम मेरी सुख दुःख की साथी बनो ?क्या मेरी बेटी ने मुझसे कहा कि तुम मेरी हर ख़ुशी हर फ़रमाइश को पूरा करो ? नहीं ,इनमे से किसी ने मुझे कोई आज्ञा नहीं दी,कोई खवाहिश या फरमाइश नहीं की,कोई मदद नहीं मांगी। ये सब मैं अपने खुद की मर्ज़ी से,खुद की ख़ुशी से करती आई हूँ। किसी ने मुझसे अपनी खुशियों का त्याग करने को भी नहीं कहा। वो त्याग भी मैंने खुद से किया। ये सच है कि अपनी खुशियों का त्याग कर दुसरो को खुशियों देना बहुत कठिन होता है। बहुत दर्द बहुत तकलीफ सहनी होती है।मुझे भी असहनीय पीड़ा सहनी पड़ी। तो ये सब करके मुझे भी कही न कही ख़ुशी मिली होगी न तो क्या थी "मेरी वो ख़ुशी"
क्या तारीफ पाना,यश नाम कमाना,पुण्य कमाना या दुसरो की नज़रो में सुर्खरू होना? नहीं,ये सब सोच के तो मैंने कभी कुछ किया ही नहीं। मैं तो वही सब करती रही जो मेरा दिल करने को कहता रहा और तो मेरी कोई लालसा नहीं थी। आराधना को खुद के अन्दर सुकून महसूस होने लगा। उससे एहसास हुआ कि -जब ये सब मैंने अपनी ख़ुशी से किया तो फिर शिकवा-शिकायत कैसा ,नहीं मैं किसी बात का दुःख नहीं करुँगी। खुद को समझाते हुए वो सोने की कोशिश करने लगी। लेकिन अगले ही पल उसके दिलो दिमाग में फिर हलचल हुई "तो क्या सचमुच मेरी कोई लालसा नहीं थी "?मेरे इन सारे अच्छाइयों के लिए कभी किसी अपने ने मुझे सराहा नहीं लेकिन बदनामी जरूर दी ,जब भी किसी को खुशिया दी उसने मुझ पर इलज़ाम लगा मुझे दर्द दिया। लेकिन मैं फिर भी करती आई तो कुछ तो मेरी भी ख्वाहिश होगी,कोई तो अपेक्षा होगी ? इतनी निस्वार्थ तो मैं भी नहीं हो सकती। अगर निस्वार्थ होती तो संत -महात्माओ की क्षेणी में होती।
मैं तो एक आम इंसान हूँ मेरी भी सब से अपेक्षा है। अगर नहीं होती तो आज मैं इतनी दुखी नहीं होती मेरे अन्दर शुकुन होता। मैंने ये सब निस्वार्थ नहीं किया था। मेरी अपेक्षा सिर्फ इतनी थी कि -जैसे मैं सब को प्यार करती हूँ,सब की परवाह करती हूँ सब मेरी भी करे। प्यार का दूसरा नाम परवाह है अगर आप किसी की परवाह नहीं करते तो आप लाख उसे प्यार करने की कसमे खाये मगर वो प्यार नहीं होता। मुझे भी सब की परवाह चाहिए थी। दुनिया में कोई निस्वार्थ नहीं है सब कही न कही, किसी न किसी स्वार्थ से बंधे है। फर्क इतना है कि -किसी को सिर्फ और सिर्फ सब से पाने की चाह होती है देने की नहीं और किसी को सिर्फ थोड़ी सी "परवाह" की चाहत होती है। आराधना ने अपने मन को समझाया कि -तुमने जो किया वो तुम्हारा "धर्म" था जो लोगो ने किया वो उनका "कर्म "है तो फिर दुःख किस बात की। किसी शायर ने कहा है -किसी की मुस्कुराहटो पे हो निसार ,किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार ,किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार ,जीना इसी का नाम है।
और आराधना सुकून से सो गई उसकी अगली सुबह खिली हुए नई रौशनी से भरी हुए थी। उसने अपना आत्ममंथन कर लिया था।