हे! जगजननी करुणामयी माता
द्वार तुम्हारे आई हूँ।
अक्षत-रोली, धूप-दीप नहीं
बस,श्रद्धा सुमन संग लाई हूँ।
अपने अश्रु की धारा से
तेरे चरण पखारुँगी।
प्रेम-समर्पण की माला से
तेरी छवि संवारुँगी।
पूजा की मैं रीत ना जानू
जप-तप का नहीं कोई ज्ञान।
अर्पण तुझको तन-मन माता
मैं ना जानू विधि-विधान।
धन-वैभव ना सुख अपार
ना मांगू मैं ये संसार।
पावन कर दो आत्म मेरी
होगा "माँ" तेरा उपकार।
ये जग तो है रैन बसेरा
पल दो पल का डेरा है।
तेरी शरण तक आ पाऊँ
खोल दो "माँ" हृदय के द्वार।
सुख-दुःख तज तेरी हो जाऊँ
दे दो, मुझको ऐसा ज्ञान।
अन्तर्मन में तेरी छवि निहारुँ
दे दो बस, ऐसा वरदान।