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कहानी सोना की

24 अक्टूबर 2018

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"सोना "हाँ ,यही नाम था घुंघट में लिपटी उस दुबली पतली काया का। जैसा नाम वैसा ही रूप और गुण भी। कर्म तो लौहखंड की तरह अटल था बस तक़दीर ही ख़राब थी बेचारी की। आज भी वो दिन मुझे अच्छे से याद है जब वो पहली बार हमारे घर काम करने आई थी। हाँ ,वो एक काम करने वाली बाई थी। पहली नज़र मे देख कर कोई उन्हें काम वाली कह ही नहीं सकता था। कोई उन्हें कामवाली की नज़र से देखता भी नहीं था वो तो सबके घर के एक सदस्य जैसी थी। बच्चे बूढ़े सब उन्हें सोना ही बुलाते थे बस हम भाई बहन उन्हें प्यार से ताई या अम्मा कह के बुलाते थे। प्यार और इज्जत तो सब उनकी करते थे पर हमारे परिवार को उनसे और उन्हें हम सब से एक अलग ही लगाव था।

सुबह 5 बजे ही वो आ जाती थी मेरे घर, फिर माँ उनके लिए और अपने लिए चाय बनती थी। दोनों चाय पीते पीते बीते दिन की अपनी सारी दुःख सुख बाट लेती थी, फिर सोना काम में लग जाती थी और माँ स्नान और पूजा में। फिर 10 बजे तक सोना जब बाकी घरो का काम करके आती थी तो माँ और सोना फिर साथ साथ नास्ता करते और चाय पीते थे। माँ के लिए वो एक सखी जैसी थी। इतना प्यार करने के वावजूद सोना इतनी स्वभिमानी थी की कभी भी मुँह खोल के माँ से कुछ नहीं मांगती थी।


मैं शायद 9 -10 साल की थी , जब पापा का तबादला होकर हम एक नये शहर में रहने आये थे जहाँ हमे गवर्मेंट क्वॉटर रहने को मिला था। पापा इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में काम करते थे। सबडिवीज़न में ही साहब से लेकर वर्कर तक के क्वाटर बने थे। ये वो जगह है जहाँ बचपन गुजर कर हम जवान भी हुए थे। वहाँ की हर यादे हमारे दिल में बसी है। कुछ अलग ही था वहाँ का माहौल , अफसर के परिवार से लेकर वर्कर के परिवार वाले तक एक दूसरे से काफी घुल मिल के रहते थे बिलकुल एक परिवार के जैसे।


मुझे याद है , हमारे आने के अगले दिन ही एसक्यूटिव इंजीनिअर की बीवी हमारे घर आई थी और बड़े ही आत्मीयता से हम सब से मिली थी और माँ से पूछा था कि" कोई मदद चाहिए तो बेझिझक कहिये हम सब एक परिवार जैसे है। " फिर उन्होंने माँ से कहा कि -आप सोना को काम पर रख ले। माँ ने कहा कि -हम अपना काम खुद कर लेते है हमे काम वाली की जरुरत नहीं है। तो उन्होंने कहा कि -" ये आप की जरुरत नहीं ये सोना की जरुरत है वो बहुत स्वभिमानी है ऐसे कोई मदद नहीं लेती तो हम सबने उसे मदद देने के लिए काम पर रख लिया है,मेरे घर तो गॉवर्मेँट ने कई कर्मचारी दिए है काम करने के लिए फिर भी हमने उन्हें काम पर रखा है। "माँ ने पूछा - ऐसा क्यूँ,? कौन है ये सोना और क्या परेशानी है उनकी ?


तब उन्होंने सोना की कहानी बताई। जिसे सुन के हम सब की आखे नम हो गई और माँ ने उन्हें अगले ही दिन से काम पर रख लिया। तनख्वाह कितनी मात्र 15 रूपये ,इससे ज्यादा सोना नहीं लेती थी। लेकिन उनकी सादगी ,सच्चई और ईमानदारी कारण 15 रुपये से कई गुना ज्यादा सभी उन्हें यु ही देदेते थे। खाना -पीना ,कपडे -लते और साथ में ढेर सारा प्यार और सम्मान भी।


सोना सात बहने थी लगभग सबकी शादी अच्छे खाते -पीते परिवार में हुई थी। सोना का ससुराल भी अच्छा था कोई तकलीफ नहीं थी उन्हें। लेकिन उनकी किस्मत में ज्यादा दिन का सुख नहीं लिखा था। सोना की शादी 14 -15 साल की उम्र में ही हो गई थी और फिर एक एक कर पांच बच्चे भी हो गए थे। जैसा की उस ज़माने में कम पढ़े लिखे और खेतिहर समाज में हो ही जाता था। लेकिन कम उम्र में ही सोना के पति को कई बीमारियों ने घेर लिया था जिस कारण वो धीरे धीरे बिस्तर के ही हो के रह गए थे। कमाने वाला पुरुष जब बिस्तर पर पड़ जाये तो परिवार का क्या होगा। धीरे धीरे उनके घर की आर्धिक हालत ख़राब होने लगी। पांच बच्चे ,पति और सास -स्वसुर की ज़िम्मेदारी सोना पर आ गई थी। सब का पेट भरने के लिए उन्हें घर से बाहर कदम निकलना पड़ा।


सोना नाई जाती की थी, उनकी की माँ का हमारे कलोनी में आना जाना था और एजुकुटीव इंजीनियर के बीवी पर उनका पूरा भरोसा था। उन्होंने सोना का सारा हाल बता उनके घर सोना को काम पर रखवा दिया। सोना 30 -32 साल से ज्यादा की नहीं थी,जवान थी,खूबसूरत थी इसलिए उनकी माँ उन्हें किसी भरोसे की जगह काम पर रखना चाहती थी। और हमारा कलोनी उनके इस भरोसे के लायक था। धीरे धीरे सोना अपने काम और व्यवहार से सब का दिल जीत ली और पावर हॉउस कलोनी के हर घर की प्रिये सदस्य बन गई। वो हमारी कलोनी के अलावा कही और काम नहीं करती थी।


सोना नाई जाति की गरीब और अनपढ़ औरत थी लेकिन उनके संस्कार और विचार काफी उच्च थे। वो अनजाने में ही वो मेरे बल मन को इतनी शिक्षाऐ दे जाती थी जो शायद किसी पाद्य पुस्तक को पढ़ कर मेरी समझ में नहीं आती। एक दिन की बात है -सोनपापड़ी बेचने वाला आया था वैसे तो मैं कभी ज़िद नहीं करती थी लेकिन उस दिन मैं माँ से सोनपापड़ी खरीदने की ज़िद करने लगी। माँ के पास पैसे नहीं थे इसलिए वो मना कर रही थी ,तभी सोना आई उन्होंने अपनी आँचल के गांठ से एक रूपया निकल कर मुझे दिया ,मैं मना करती रही लेकिन जबरदस्ती दे दिया। मैंने कहा -25 पैसे में ही हो जायेगा तो बोली चारो भाई बहन ले लो। मैं तो खुश हो गई।

अगले दिन माँ को किसी से पता चला कि सोना के बच्चे कल रात भूखे ही सो गए। वो सयोग की बात थी कि कल उन्हें किसी घर से कुछ नहीं मिला और जो पैसा था शायद सोना उससे कुछ तो खरीद कर अपने बच्चो को खिलाती वो तो मैंने ले लिया था। ये सुन मैं आत्मग्लानि से भर गई कि मेरे छोटी सी ख़ुशी को पूरा करने के वजह से सोना के बच्चे भूखे सो गए। जब सोना आई तो मैं उनसे लिपट कर रोने लगी और बोली -"ताई ,अब कभी भी किसी भी चीज़ के लिए मैं ज़िद नहीं करुँगी मुझे माफ़ कर दो। वो बड़े प्यार से बोली -"मुनिया तू भी तो मेरी ही बेटी है न। " वो मुझे प्यार से मुनिया ही बुलाती है अभी तक। लेकिन मैं उस दिन के बाद से आज तक कभी ज़िद नहीं की।

ऐसी ही एक और घटना है -मेरी माँ हमेशा बीमार रहा करती थी जिस कारण मैं छोटी उम्र से ही घर का काम -काज शुरू कर दी थी जिसमे सोना हमेशा मेरी मदद भी किया करती थी। एक दिन रोटी बनाते वक़्त रोटी के बर्तन में मैं रुमाल रखना भूल गई जिस कारण नीचे की रोटी गल गई मैंने सोचा माँ देखेगी तो डाटेगी इसलिए मैंने वो रोटी किचन की खिड़की से बाहर फेक दिया। जिसे सोना ने देख लिया और उस रोटी को उठा कागज में लपेट अपने घास की टोकरी में रख घर ले कर चली गई।


अगले दिन सोना आई तो दुखी थी माँ के पूछने पर उन्होंने बताया कि उनकी बेटी को फ़ूड पॉइज़निंग हो गया है। माँ ने पूछा- कैसे ? तो उन्होंने बताया कि - मुनिया ने कल एक रोटी बाहर फेक दिया था मैं वो उठा कर ले गई कि बकरियों को देदूगी। मेरी बेटी भूखी थी उसने जब वो रोटी देखा तो मुझसे बिना पूछे उस रोटी को खा गई,रोटी ख़राब हो गई थी इसलिए वो नुकसान कर गई। मालकिन ,जब भूख लगती है तो इंसान मिट्टी तक खा लेता है वो तो बासी रोटी थी। मेरी आत्मा एक बार फिर से दहल गई ,मैं फिर से आत्मग्लानि से भर गई.मैंने सोना का हाथ पकड़ा और बोली -"ताई मैं कसम खाती हूँ ,आज से अन्न का एक दाना भी नहीं फेकूगी। " वो मुझे गले लगा कर बोली -मुनिया अन्न का एक एक दाना कीमती है ना जाने हर रोज कितने लोग अन्न के एक दाने के लिए तरसते है। मैं आज भी उनकी सीख याद रखी हूँ। ना जाने ऐसे कितने ही सीख सोना हमे दे जाती थी।


हम लोग के घर आते उन्हें 4 -5 साल ही हुए थे कि उनके पति चल बसे। इस बीच एजुकुटीव इंजीनियर का भी तबादला हो गया था और सोना हमरे परिवार के और करीब हो गए थी। पापा ने सब से चन्दा इकठा कर उनके पति का बिधिवत सस्कार करवाया था । उनकी दोनों बेटियों का ब्याह भी पापा ने ही करवाया। सहयोग सब करते थे लेकिन सब ने पापा को प्रधान बना दिया था इसलिए ज़िम्मेदारी सारी पापा ही निभाते थे। उनका बड़ा बेटा नाइ का काम करने लगा तो सोना की स्थिति थोड़ी सुधरने लगी।


एक दिन सोना घर आई तो वो बहुत उदास थी माँ ने जब कारण जानना चाहा तो वो माँ को पकड़ रोने लगी और बोली -"मेरा मझला बेटा आज चार दिन से खाना पीना छोड़ रखा है, वो आगे पढ़ना चाहता है आप ही बताये मालकिन मैं कहाँ से उसे पढ़ाऊ,मेरी औकात है उसे I.A--B.A करने की। " सोना का मझला बेटा जिसे बचपन से ही पढ़ने की चाह थी और वो मेघावी भी था। सोना ने उसे बचपन में ही अपनी बहन जो की टीचर थी उसके घर रख दी थी जहां से वो 10 वी पास किया। अभी आठ दिन पहले ही तो सोना पुरे कॉलोनी में मिठाई बाटी थी कि -उनका बेटा पुरे स्कूल में टॉप किया है।


ये सोना के पुरे जीवन सघर्ष की कहानी है तो इसे संक्षिप्त में नहीं कह पाऊंगी तो इसे जानने के लिए आप को मेरे साथ अभी रहना होगा।तो ,सोना के बेटे का आगे क्या हुआ ये जानने के लिए पढ़े - सोना के बेटे की-" हीरा" बनने की कहानी



रेणु

रेणु

प्रिय कामिनी -- आपका ये लेख दो भागों में पढ़ा और सोना की मार्मिक सत्य कथा मन को छू गई| सोना जसी जीवट महिलाएं सलाम की अधिकारी हैं जो समाज में अपनी इमानदारी और मेहनत से उंचा मकाम पाती हैं | हमारी पीढ़ी के लोगों ने ऐसे लोगों के आचरण से अतुल्य संस्कार पाए हैं जिसके लिए हमें ईश्वर का आभारी होना चाहिए | आपके परिवार विशेषकर माँ - पिताजी का सहयोग अतुलनीय और प्रशंसनीय हैं जिन्होंने अपने प्रेरक चिंतन और सहयोग से एक विपन्नता से | जूझते परिवार को स्वाभिमान का जीवन जीने में सहयोग किया और अपने बच्चों में| सुसंस्कार रोपित किये | बहुत बेहतरीन और ईमानदारी से लिखा अपने | सस्नेह बधाई और शुभकामनायें |

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