" बृद्धाआश्रम "ये शब्द सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते है। कितना डरावना है ये शब्द और कितनी डरावनी है इस घर यानि "आश्रम" की कल्पना। अपनी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में दो पल ढहरे और सोचे, आप भी 60 -65 साल के हो चुके है ,अपनी नौकरी और घर की ज़िम्मेदारियों से आज़ाद हो चुके है। आप के बच्चो के पास फुर्सत नहीं है कि वो आप के लिए थोड़ा समय निकले और आप की देखभाल करे।(कृपया ये लेख पूरा पढ़ेगे )
वो करेंगे भी कैसे ? उनकी लाइफ तो हम सब के लाइफ से भी ज्यादा बिजी होगी हम अपने जवानी के दिनों में अपने सारे काम -काज करते हुए भी अपने अपनों के लिए खासतौर पर अपने माँ -बाप के लिए थोड़ा वक़्त निकल ही लेते थे। लेकिन हमारे बच्चो के शब्दों में उनकी लाइफ हमसे ज्यादा टफ यानि मुश्किल है। अरे भाई ,उन्हें अपने जॉब के बाद जो वक़्त मिलता है वो वक़्त तो वो अपने बीवी बच्चो और दोस्तों को देंगे की आप को देंगे। आप तो उनके लिए उनकी थर्ड पयोरिटी यानि त्रियतिये स्तर के ज़िम्मेदारी होंगे न। कहाँ से निकलेंगे आप के लिए वक़्त। ऐसी हालत में आप कल्पना कीजिये वो आप के साथ क्या करेंगे।
अगर वो मिडिल क्लास के है तो वो अपने घर में एक छोटा कमरा आप को दे देगे और समय समय अपर आप के खाने पिने की व्यवस्था कर देंगे बस हो गई उनकी ज़िम्मेदारी पूरी। अगर पैसे वाले है या उनकी नौकरी विदेश में या किसी बड़े शहर में है तो उनके लिए आप को अपने साथ रखना थोड़ा मुश्किल होगा। वो कहेगे -"आप को साथ तो रख नहीं सकते और आप को अकेले भी नहीं छोड़ सकते तो अच्छा है हम आप को" बृद्धाआश्रम "भेज दे,वहां आप की देखभाल हो जायेगी और हम साल -छह महीने में आप से मिलने आते रहेंगे ,फ़ोन रोज करेंगे आप परेशान ना हो "
अरेरे दोस्तों , "आप तो डर गए है न "यकीनन इन सारी बातो की कल्पना भी बेहद डरावनी लगती है। लेकिन डरने से क्या होगा आज की युग की हक़ीक़त ही यही है। " घर "की संख्या घटती जा रही है और बृद्धाआश्रम की संख्या बढ़ती जा रही है। मेरी समझ से इसके पीछे दो बड़ी वजह है एक तो वाकई आज की पीढ़ी की लाइफ स्टाइल बड़ी टफ हो गई है। उनकी अपनी नौकरी, बीवी -बच्चो की बेहिसाब फ़रमाइसे,दोस्त ,सोशल मिडिया पर उनकी एक्टिविटी और उससे भी बड़ी बात उनके लिए उनकी खुशिया ही सर्वोपरि हो गई है. और दूसरी वजह वही है जिसका जिक्र हम ने अपने पहले के लेख में किया है कि "बेटियाँ बहु नहीं बन पा रही है "लोग तो यु ही कहते है की बेटे बुढ़ापे की लाठी होते है। मेरा मानना है की असली लाठी बहुये होती है। क्युकी सारी ज़िम्मेदारी तो वही उठती है।
खैर ,जो भी हो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज की दौड की ये भयावह सच्चाई हैं। चलिये,अब इन सारी समस्याओ को एक अलग नज़रिये से देखते हैं। मेरे नज़रिये से " बृद्धाआश्रम "शब्द को हमारी मानसिकता ने डरावना बना दिया है। अगर बृद्धाआश्रम को हम अपने जीवन के " दूसरी पारी का घर "समझे तो वो उतना डरावना नहीं लगेगा बल्कि शायद हमे आत्मिक सुकून भी देगा। यकीनन देगा।
अब आदि काल में चलते है,हमने अपने दादी -नानी की कहानियो में " वानप्रस्थ "का जिक्र जरूर सुना होगा राजा-महाराजा जब अपना उत्तराधिकारी घोसित कर उसे राजगद्दी सौप देते थे और अपनी जिमेदारियो से मुक्त हो कर खुद के लिए ज़ीने,भगवत भजन कर अपना परलोक सुधारने,अपना आत्मज्ञान बढ़ाने और मोह माया से दूर होने के लिए वन में जा कर निवास करते थे.जिसे " वानप्रस्थ " कहते थे। (राजा ही नहीं उस वक़्त के आम जन भी यही करते थे) याद कीजिये, उस वक़्त ये नहीं कहा जाता था कि -" राजगदी मिलने के बाद बेटे ने माँ बाप को वन भेज दिया " नहीं ,ऐसा कोई नहीं कहता था क्युकी उन्हें जबरदस्ती नहीं भेजा जाता था बल्कि माँ बाप स्वेच्छा से जाते थे। बाद के समय में भी जब बुजुर्ग अपनी जिमेदारियो से मुक्त हो जाते थे (खास कर के पुरुष ) तो गांव के बाहर एक चौपाल बना लेते थे जहाँ वो अपने हमउम्र के साथ रहते ,अपना समय अपनी मर्ज़ी से बिताते थे।
लेकिन जैसे जैसे समय बदला लोग नौकरी पेशा वाले होने लगे जो 60 के उम्र में रिटायर्ड होने के बाद खुद ही अपने आप को खाली और बेकार समझने लगे। फिर संतान से सेवाभाव की अपेक्षा और उससे भी ज्यादा पोते -पोतियो का मोह ने उन्हें घर की चार दीवारी में जकड़ दिया। बच्चो से अपेक्षा के बदले जब उन्हें उपेक्षा मिली तो वो और कुंठित हो गए। और जब उन्हे बृद्धाआश्रम की तरफ रवाना होने के लिए कहा गया तो वो अपने आप को नाकारा ,बोझ ,घर से निकला हुआ ,तरस्कृत और उपेक्षित महसूस करने लगे। बृद्धाआश्रम उनके लिए एक जेल,एक सजा की जगह बन गई। अक्सर बुजुर्गो को ये कहते सुना गया है कि-" मेरे बेटे बहु के पास कुत्ते को रखने तक का एक दरबा तो होता है लेकिन हम तो कुत्ते से भी गये गुजरे है जिसके लिए घर ना बाहर कही भी जगह नहीं है "
"इंसान अपने दुखो का कारण स्वयं होता है "ये सत्य है ,हम क्यों अपने आप को दयनीय बनाते है ,सारी उम्र हम उनकी देखभाल करते आये है वो हमारी क्या खाक करेंगे। हम ऐसी अवस्था ही क्यों आने दे कि हम उनकी रहमो कर्म पर रहे। मेरे नज़रिये से वानप्रस्थ की जो प्रथा थी बिलकुल सही थी। अगर बुजुर्ग अपनी जिम्मेदारिया पूरा कर ,बाल - बच्चो का मोह त्याग खुद के लिए ,खुद की मर्ज़ी से ज़ीने के लिए एक घर खुद तैयार कर ले तो वो कभी बच्चो पर बोझ नहीं बनेगे।
अब एक बार फिर से आप खुद को 60 साल की उम्र में इमेजिन कर सोचिये ,सारी उम्र तो आपने घर की जिम्मेदारी निभाने में गुजर दी ,कभी जीया है खुद के लिए। अब एक ऐसा घर हो जहां कोई रोक टोक नहीं,कोई ज़िम्मेदारी नहीं हो अपने हमउम्र दोस्त हो ,उनके साथ एक मस्ती भरा दिन जैसे बचपन का होता है कोई चिंता फ़िक्र नहीं। अरे ,करे भी क्यों चिंता हमने अपने बच्चो को अपने पैरो पर खड़ा कर दिया अब वो अपनी जिम्मेदारी संभाले और जहा तक बात है पोते-पोतियो की तो हां यार ,वो प्यारे तो है लेकिन आज कल के दौड में वे बच्चे बेचारे खुद ही ढाई साल की उम्र से स्कूल के बोझ तले दबे है उनके पास कहा समय है आप के लिए जो वो आप के साथ खेलेगे । तो उनसे रविवार या छुटियो में मिल लगे। जब छुट्टी के दिन वो अपने मम्मी पापा के साथ आप से मिलने आएंगे तो उनके लिए भी आप स्पेसल होंगे और उनके मम्मी पापा के लिए भी।
तो आये ,हमारी पीढ़ी बृद्धाआश्रम को एक उपेक्षित जेल का रूप न देकर एक ऐसा घर बनाये जहां हम अपनी लाइफ का second innings यानि दूसरी पारी खेले।अपने हमउम्र के साथ रहे ,अपने सुख दुःख बांटे ,हसी ठहाको की महफिल जमाये,वो सब करे जो जवानी में वक़्त के अभाव के कारण नहीं किया ,जैसे मर्जी हो वैसे जिए रोकर नहीं हस कर।
ये सत्य है कि आज कल के समय में घर में माँ बाप की जरुरत किसी को नहीं है जो की एक सामाजिक,वैचारिक और भावनात्मक पतन है। इस बदलते दौर को बदलना हमारे वश में नहीं तो आये हम खुद को बदल ले,अपनी सोच को बदल ले। इस समाज में बहुत से माँ बाप के बच्चे नहीं है और बहुतो को बच्चे होते हुए भी वो अकेले है.वैसे ही बहुत से बच्चो के माँ बाप नहीं अनाथ है। अगर बृद्धाआश्रम और अनाथ आश्र्म को जोड़ दे तो कितने बच्चो को माँ बाप, दादा दादी का प्यार मिल जायेगा और बुजुर्गो को अपने पोते पोतियो के रूप में बच्चे सँभालने का सुख मिल जाये। दोस्तों ,मैं तो अपनी तैयारी इसी सोच के आधार पर कर रही हूँ कि एक दिन बृद्धाआश्रम + अनाथआश्रम को जोड़ कर एक ऐसा खुशनुमा घर की रचना करू जहाँ सब स्वार्थ से परे हो। खुशहाल वातावरण में गैरो के साथ अपनों से बढ़ कर रिश्तो में पिरोया मेरा " second innings home" ये मेरे जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत होगी।