ज़िंदगी हर पल एक चलचित्र की तरह अपना रंग रूप बदलती रहती है।है न , जैसे चलचित्र में एक पल सुख का होता है तो दुसरा पल दुःख का ,फिर अगले ही पल कुछ ऐसा जो हमे अचम्भित कर जाता है और एक पल के लिए हम सोचने पर मजबूर हो जाते है कि "क्या ऐसा भी होता है ?"ढाई तीन घंटे की चलचित्र में बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापे तक का सफर दिख जाता है। हमारा जीवन भी तो एक चलचित्र है फर्क इतना ही है कि चलचित्र में हमे "The end "देखने को मिल जाता है वो भी ज्यादा से ज्यादा खुशियों से भरा अंत। हमारे जीवन का The end क्या, आगे क्या होगा ये भी हमे नहीं पता होता है।हां ,बस इतना पता होता है कि "मृत्यु "जो की एक सनातन सत्य है वो तो एक दिन आएगी जरूर लेकिन ये नहीं पता की वो अंत सुखद तरीके से होगा या तकलीफो भरा।हां , एक और फर्क है कि- चलचित्र को जितनी बार चाहे देख सकते है लेकिन जीवन का वो हर एक पल जो गुजर गया वो गुजर गया दोबारा जीने को या देखने को नहीं मिलता। हां ,अपने ख्वाबो ख्यालो में उसे जरूर ढूंढ़ कर देख सकते है और थोड़ो देर के लिए ही सही दिल को सुकून दे सकते है।
जब कभी भी मुझे एकांत में रहने का अवसर मिलता है तो दिल- दिमाग खुद -ब -खुद ज़िंदगी के झरोखे से झांकता हुआ बीते हुए लम्हो में चला जाता है। यकीन ही नहीं होता कि जीवन के इतने सावन हमने देख लिये। सच यकीन ही नहीं होता ,ऐसा लगता है जैसे अभी अभी तो मैंने लड़कपन छोड़ जवानी के दहलीज़ पर कदम रखा था और मन ही मन दुखी भी हो रही थी,जब दसवीं पास करने पर पापा ने बड़े प्यार से कहा था --"बच्चे अब आप को भागना दौडना,खेलना कम करना होगा,अब आप कॉलेज में जाओगे आप को सलीके से बैठना ,चलना और बोलना सीखना होगा, अब आप बड़ी हो गई।" बहुत गुस्सा आया था उस वक़्त मुझे कि "कैसे मेरा बचपन इतनी जल्दी गुजर गया ?"फिर अगले ही पल खुश भी हो रही थी कि "अब मैं बड़ी हो गई. "वाकई 16 से 20 साल की उम्र काफी मनमोहक होती है। वो एक दिवा स्वप्न नगरी जैसी होती है जहाँ जवां दिल अपने ही ख्वाबो की दुनिया सजाये उसी में खोये रहते है। उन्हें लगता ही नहीं की ज़िंदगी की हक़ीक़त से कभी उनका सामना भी होगा। मैं भी उसी में खोई थी। पता ही नहीं चला कि ज़िंदगी के सपनो के वो चंद साल कब हाथो से रेत की तरह फिसल कर गायब हो गए। फिर पता नहीं कब और कैसे माँ बाप ने ये समझ लिया की मैं घर गृहस्ती बसाने के काबिल हो गई हूँ और उन्होंने मेरी शादी कर दी।
शादी होते ही ये एहसास हो गया कि अब मेरे सपनो के दिन गये। अब ज़िंदगी के हक़ीक़त से सामना होगा। घर गृहस्ती की ज़िम्मेदारी कंधे पर आते ही प्रकृति ने हर वो काम सीखा दिया जिसका इल्म तक बचपन में नहीं था और जवानी में सोच के भी डर लगता था। फिर वो दिन आया जब भगवान ने एक कीमती तोहफे के रूप में मुझे एक प्यारी सी बेटी दिया और मुझे माँ बनने का गौरव प्राप्त हुआ। और आज मेरी बेटी 20 साल की हो गई है। यकीन ही नहीं होता,वक़्त कैसे इतनी तेज़ी से बदल गया। कैसे मैं एक बेटी से माँ बनी और यकीनन चंद सालो में मेरी बेटी माँ बन जाएगी और मैं नानी।
अभी-अभी कल ही तो वो दिन गुजरा है जब मैं 20 साल की थी और अपनी माँ से लाढ़ लगाते हुए कहती थी- "मुझे नहीं करनी शादी मैं आप को छोड़ कभी नहीं जाऊगी ,कही नहीं जाऊगी "और माँ हँस कर कहती -"सब जाते है ,तुम भी जाओगी , मैं भी अपनी माँ को छोड़ कर नहीं आना चाहती थी लेकिन आई न तुम्हारे पापा के साथ,तुम भी जाओगी।"और मुझे गुस्सा आ जाता था। आज मेरी बेटी भी मुझसे यही कहती है -"मैं शादी नहीं करुँगी "और मैं हँस पड़ती हूँ और मैं भी उससे वही कहती हूँ जो मेरी माँ ने मुझसे कहा था -"सब जाते अपनी माँ को छोड़ कर आप भी जाओगी। "जब भी वो कुछ ऐसी बाते करती है, दोस्तों के किस्से सुनाती है , लड़के -लड़की के किस्से बताती है ,कपडे, फैशन या हेयर स्टाइल की बात करती है तो ऐसा लगता है जैसे मैं खुद को ही देख रही हूँ।कभी कभी किसी बात पर जब वो ये कहती है कि -"छोडो माँ आप नहीं समझोगे " तो मैं हँस पड़ती हूँ और कहती हूँ-" बेटा हम भी इस दौड से गुजरे है बस फर्क ये है कि आप को हमने बहुत आज़ादी दे रखी है और हम बहुत सारे संस्कारो के बंधन में बंधे थे।"
सच यकीन ही नहीं होता ,वक़्त इतनी तेज़ी से गुजर गया ,अभी कुछ ही साल पहले जब मेरी शादी की बात चल रही थी तो मैंने अपने माँ के बालो में सफेदी देखा और कहा था -"माँ इसे कलर कर लो अच्छा नहीं लग रहा है "और माँ हसने लगी बोली -"बेटा अब मैं बूढी हो रही हूँ बाल सफ़ेद होंगे ही."और आज आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो खुद के चेहरे पर बुढ़ापे की झलक देख सोचने लगती हूँ ,सच वक़्त कितनी तेज़ी से गुजर गया। बचपन ,जवानी सब गुजर गया बुढ़ापे की ओर चल पड़ी हूँ। कब हुआ ,कैसे हुआ ये सब?
अभी चंद दिनों पहले मेरा फुफेरा भाई मेरे घर आया था। हम सारे भाई बहन और हमारे बच्चे एक दिन के लिए इक्ठा हुए थे। काफी दिनों बाद हम मिले थे। खाने पीने और बात चित का दोड चल रहा था। उससे मिल कर मैंने महसूस किया कि ज़िंदगी की बेहिसाब थपेड़ो को झेलने के वावजूद उसने अपने अंदर के बच्चे को ज़िंदा रखा है। जब वो बचपन की सारी यादो की बखिये उधेड़ने लगा कि -कैसे हम सारे भाई बहन खाने पिने ,पढ़ने लिखने या खेलने में एक दूसरे को छेड़ते थे ,कैसे हम खेल खेल में फिल्मो की शूटिंग किया करते थे ,मैं उसके हीरोइन बनती थी,कैसे जब वो छुटियो में मेरे घर आता था तो मेरे पापा यानि अपने मामा को एक अर्ज़ी लिख कर देता था कि हम बस 15 दिनों के लिए आये है प्लीज हमे अपनी मर्जी का करने दे और मेरे पापा जो कभी भी हम भाई बहनो को ना डाटते थे ना कोई पावंदी ही लगते थे वो उस अर्ज़ी पर दस्तखत कर अपनी रज़ामंदी देते थे। कैसे हम रात रात भर जागते और बेवज़ह की बातो पर ठहाके लगते थे। कैसे जवानी के दिनों में दूसरे लड़के लड़कियों को देख एक दूसरे से उसका नाम जोड़ बेतकल्लुफी से हसते थे। किसी भी बात का कोई मायने मतलब हो न हो फिर भी हमारे ठहाके कैसे गुजते रहते थे। उन दिनों की सारी बातो को याद करते हुए हम सब हंसी ठहाके लगा रहे थे। इन सारी बातो ने बचपन और जवानी का कुछ इस तरह शमा बंधा की हम भूल ही गए कि "वो गालिया तो हम छोड़ आये है। "जब हमारे बच्चे जो हमारी बाते सुन रहे थेउन्हों ने हमे टोका -"अच्छा आप सब भी इतनी मस्ती करते थे "तब हम जैसे नींद से जगे और वर्तमान में लौटे,दिल को समझाया कि अब हमारे दिन गये। हमने बच्चो से कहा -हां ,बच्चो तुम जो महफिल अभी सजाये बैठो हो हम उस महफ़िल का लुफ्त उठा आगे बढ़ चुके है।
सच यकीन ही नहीं होता ,लेकिन एक बात का यकीन हो चूका है कि -"दिल तो बच्चा है जी "उसे जब कभी ,कही भी एक पल का भी अगर मौका मिलता है तो वो झट बच्चा बन जाता है। क्या हम इस बच्चे को हमेशा ज़िंदा नहीं रख सकते ? क्यूँ मरते है हम अपने अंदर के बच्चे को ? कौन रोकता है हमे इस बच्चे को ज़िंदा रखने से ? कोई नहीं रोकता जनाब आप को ,कोई रोक ही नहीं सकता ,किसने कहाँ आप से कि -आप इस बच्चे को मार दो। हम खुद उस बच्चे के मौत के जिम्मेदार होते है। एक बार इस बच्चे को ज़िंदा करके तो देखे जीवन की दशा और दिशा दोनों बदल जायेगी। आप देखते है न कैसे बच्चे अकेले में भी खुद को ब्यस्त रख लेते है ,खुद की ख़ुशी का कोई रास्ता ढूढ़ लेते है। बस ,अपने कर्म में लगे रहते है उन्हें फल की चिंता ही नहीं रहती। अगर हमने अपने अंदर के बच्चे को ज़िंदा रख लिया तो, ना तो हमे कोई दुःख सताएगा ,ना अकेलापन और ना ही कल की फ़िक्र। मेरा कहना भी यही है दोस्तों -क्यों ना हम अपने दिल को बच्चा ही रहने दे। सच , इस उलझन भरी जीवन में बड़ा सुकून दे जाता है ये" बचपना "और "बचपन की यादे "