- आप बाहर बैठिए, बच्ची को क्लास में भेज दीजिए। चिंता मत कीजिए, इतनी छोटी भी नहीं है। हैड मिस्ट्रेस ने कहा।
बच्ची ने हाथ हिला कर मां को "बाय" कहा और क्लास की ओर दौड़ गई।
हैड मिस्ट्रेस फ़िर मां से मुखातिब हुईं - आप लोग बात की गंभीरता को क्यों नहीं समझते? बताइए, बच्ची इतनी बड़ी हो गई और आपने अभी तक इसे पढ़ने ही नहीं भेजा। स्कूल क्या फ़ैशन के लिए खोल रखे हैं सरकार ने? आठ साल की होने जा रही है, क्या सीखा होगा इसने घर में बैठे - बैठे...अब पहली क्लास के बच्चों के साथ बैठेगी तो क्या इसे लाज नहीं आयेगी? घर में कोई पढ़ा - लिखा नहीं है क्या?
- जी, फिलहाल तो घर ही नहीं था!
- क्या मतलब? लड़- झगड़ कर घर छोड़ दिया क्या बाबा? कोई लफड़े वाला काम तो नहीं? ये स्कूल है बाबा, बच्चा लोग के पढ़ने के वास्ते! घर कायकू छोड़ा?
- जी, वो मुल्क छूटा तो घर भी...
- अरे बाप रे ! रिफ्यूजी है क्या?
- जी, झगड़ा हमारा नहीं था, नेताओं का था। हमें कराची छोड़ना पड़ा।
- ओह, आय एम सॉरी! कहां रहते हैं?
- सिंधी कॉलोनी। मैं भी टीचर हूं।
- ओके, देन इट्स फाइन, नो प्रॉब्लम, शी विल एडजेस्ट। हैड मिस्ट्रेस ने कहा।
बच्ची की मां उन्हें हाथ जोड़ कर बाहर वेटिंग लाउंज में आकर बैठ गई।
लगभग एक घंटा बीता होगा कि हैड मिस्ट्रेस खुद चल कर बाहर आई। साथ में एक टीचर थी, और पीछे - पीछे मुस्कुराती हुई बच्ची भी।
हैड मिस्ट्रेस ने ख़ुश होकर कहा- वाह, बच्ची तो ब्रिलिएंट है, इतना कुछ जानती है? लगता ही नहीं, कि कभी स्कूल नहीं गई। हम इसे फर्स्ट में नहीं, सीधे फिफ्थ क्लास में प्रवेश देंगे। ये पांचवीं में पढ़ेगी।
मां "लाली" की आंखों में जैसे खुशी के आंसू आ गए। उन्हें यक़ीन ही नहीं हुआ कि घर में ही उनके बच्ची को पढ़ाने से उसने इतना कुछ पढ़ लिया है कि उसे एक अच्छे नामी स्कूल में अपने से भी बड़े बच्चों के साथ क्लास में प्रवेश मिल रहा है।
उनकी मुराद पूरी हो गई। बच्ची पढ़ने जाने लगी।
उधर सिंधी कॉलोनी में दो कमरे का छोटा सा घर भी मिल गया। पाकिस्तान के कराची से देश के विभाजन के बाद भारत आजाने पर अब कुछ न कुछ तो करना ही था इस परिवार को।
अपना सब कुछ तो वहीं छूट गया था। फ़िर कुछ समय इस ऊहापोह में निकल गया था कि हिंदुस्तान के किस शहर में अपना स्थाई ठिकाना बनाया जाए।
और इस तरह घूमते- घामते, रिश्तेदारों से मिलते हुए वो लोग मुंबई चले आए।
मुंबई अब उनका अपना शहर हो गया। मुंबई के सायन इलाक़े में ये परिवार बस गया। परिवार में दो बेटियां और पति पत्नी ही थे, पर चार लोगों का पेट पालने के लिए भी कोई न कोई कमाई का जरिया तो चाहिए ही।
पिता ने घर के पास ही किराने की एक छोटी सी दुकान कर ली। मां मोंटेसरी प्रशिक्षित अध्यापिका तो थीं ही, पर पति का हाथ बंटाने के लिए घर से ही सौदे की बिक्री का काम संभाल कर घर की आय में भी अपनी मेहनत से इज़ाफ़ा करने लगीं ताकि बच्चियां अच्छी तरह पढ़ - लिख सकें।
छोटी बेटी को अब तक स्कूल न भेज पाने का दंश तो किसी तरह बेटी ने अपनी बुद्धिमत्ता से धो ही दिया था, और अब वो अपनी उम्र से कहीं अधिक ऊंची क्लास में प्रवेश पा गई थी।
बड़ी - बेटी पढ़ने - लिखने में तो साधारण ही थी पर दोनों बहनों के चेहरे- मोहरे में समानता अवश्य थी।
छोटी बेटी वडाला के ऑग्जिलियम कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने लगी। बच्ची पढ़ाई में तो तेज़ थी ही, उसे स्कूल की अन्य गतिविधियों में शामिल होने का भी बेहद शौक़ था। डांस के कार्यक्रमों में भाग लेती, नाटकों में भी आगे रहती और पढ़ाई में भी।
खुद बच्ची के पिता भी मन ही मन एक्टिंग का शौक़ रखते थे जो कभी पूरा तो नहीं हो पाया पर उनके इस शौक़ की छाया उनकी बिटिया पर ज़रूर पड़ी।
हां, बच्चों के चाचा ज़रूर एक एक्टर थे और फ़िल्मों में छोटी - मोटी भूमिकाएं निभाते रहते थे। मुंबई में आ बसने के पीछे शायद परिवार की इस ख्वाहिश का हाथ भी रहा हो।
इस छोटी बेटी का नाम अंजलि था।
पढ़ने में तेज़ लेकिन चुलबुली और शरारती ये लड़की स्कूल की हर गतिविधि में आगे रहती थी। किसी शैतानी पर जब टीचर की डांट पड़ती तो झट कह देती - सर, मेरी एक जुड़वां हमशक्ल बहन भी है, शरारत उसने की होगी। टीचर हैरान रह जाते।
सुन्दर,गोरी और लंबी ये लड़की जल्दी ही विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय हो गई।
इसे नाटकों में भाग लेने का बड़ा शौक था। अभिनय में ख़ूब मन रमता। लड़की चालाक भी थी। अपने पापा से कहती, मैं आपका हाथ बंटाने के लिए कोई नौकरी करूंगी, आप और मम्मी पैसा कमाने में बहुत मेहनत करते हैं।
पापा खुश हो जाते।
लड़की ने पापा को बताया कि उसे कोलाबा में टाइपिस्ट की पार्ट टाइम नौकरी मिली है, और पापा ने उसे वहां जाने की इजाज़त दे दी। इससे दो फ़ायदे हुए, हाथ में अपने खर्च के लायक पैसे आने लगे और इस बहाने घर से बाहर जाकर नाटकों में काम करने और रिहर्सल करने का मौक़ा भी मिलने लगा।
उधर लड़की के चाचा तो फ़िल्मों में छोटे - मोटे रोल कर ही रहे थे, लड़की के पापा को भी फ़िल्मों का क्रेज़ था। मुंबई में रहने वालों के लिए फिल्में कोई अजूबा नहीं होती थीं और फ़िल्मों से जुड़े लोगों से भी जान पहचान हो जाना साधारण सी बात थी।
अंजलि के पापा उन दिनों बांग्ला अभिनेत्री साधना बोस से काफी प्रभावित थे और उन्हें पसंद भी करते थे।
बिटिया की एक्टिंग के प्रति तड़प और रुझान देख उन्होंने उसका नाम भी बदल कर साधना ही रख दिया।
साधना बोस को उनके बंगाली होने के चलते साधोना बोला जाता था, तो पिता ने पाकिस्तान से आने के बाद जब बिटिया का नाम बदला तो साधोना ही लिखवा दिया।
लेकिन पूछने पर वह अपना नाम साधना ही बताती, और यही नाम प्रचलित हो गया। बेटी की सहेलियां उसे साधना ही कहती थीं।
उन दिनों दो नाटकों में भी उसे काम मिला। एक नाटक था "औरत का इत्र" और दूसरा "मान न मान"। साधना का कद बचपन से ही बहुत अच्छा ऊंचा था, और बदन गोरा चिट्टा। उसकी छवि सैकड़ों लड़कियों के बीच भी अलग ही नज़र आती। खास कर लंबी लड़कियों के मामले में ये देखा जाता है कि उनकी टांगें ही ज़्यादा लंबी होती हैं जिससे उनकी हाइट अच्छी दिखाई देती है। लेकिन साधना का मामला ही अलग था। उसकी कद काठी ही लंबी थी जो दूर से भी देखने पर, या उसके बैठने पर भी व्यक्तित्व में चार चांद लगा देती थी।
एक दिन उनके विद्यालय में पता चला कि किसी फ़िल्म कम्पनी के लोग आए हैं, और उन्हें एक पिक्चर के गाने की शूटिंग के समय हीरोइन के साथ ग्रुप के रूप में कुछ छोटी लड़कियों की ज़रूरत है।
साधना सुन्दर और लंबी ज़रूर थी पर उसकी उम्र अभी बहुत कम ही थी।
लड़कियों के किसी समूह को देखने यदि कुछ पुरुषों या युवा लड़कों का झुण्ड खड़ा हो तो ये संभव ही नहीं था कि वो लड़कियों के बीच खड़ी साधना की अनदेखी कर दे। बल्कि उन युवकों ने तो उन्हें वहां भेजने वाले प्रोड्यूसर की बात की अनदेखी कर दी। उन्हें कहा गया था कि छोटी लड़कियों का ही चयन करें,पर उन्होंने सबसे पहले साधना की ओर ही इशारा कर दिया।
निर्माता के उन्हें ऐसा कहने के पीछे शायद ये भावना थी कि फ़िल्म की हीरोइन कुछ छोटे कद की थी, और वो ये नहीं चाहता था कि समूह में कोई हीरोइन को छोड़ कर किसी और लड़की की ओर देखे।
फ़िल्मों की शूटिंग के दौरान इस बात का ध्यान डायरेक्टर द्वारा बहुत बारीकी से रखा जाता था कि चाहे लड़के हों या लड़कियां, वे किसी भी दृश्य में हीरो या हीरोइन से ज़्यादा दिलकश और हसीन न दिखें।
ऐसा होने पर हीरो या हीरोइन उन्हें शूटिंग से निकलवा देते थे, और फ़िर बाद में डायरेक्टर को अपने स्टारों के कारण जूनियर कलाकारों की यूनियन के विरोध या क्रोध का सामना करना पड़ता था।
एक्स्ट्रा कलाकारों का ये दुर्भाग्य होता था कि बड़े स्टारों की इसी ईर्ष्या के चलते कई सुन्दर लड़कियों और लड़कों को काम से हाथ धोना पड़ जाता था। जबकि कैमरे का फोकस पूरी तरह बड़े कलाकारों पर ही केन्द्रित रहता था।
किन्तु चयन करने के लिए आए लोग इस लड़की के सौंदर्य और चंचलता से इतने अभिभूत हुए कि बिना कोई आगा पीछा सोचे एक समूह गीत के फिल्मांकन के लिए अन्य लड़कियों के साथ - साथ साधना को भी चुन कर चले गए।
अगले दिन घर पर बिना बताए साधना सेट पर पहुंची। लेकिन वहां जाकर साधना को पता चला कि चाचा हरि शिवदासानी भी इस फ़िल्म में एक छोटा सा किरदार निभा रहे हैं।
एक बार उसे डर लगा कि वो यहां देख लेंगे तो डांटेंगे। वो घर से पूछ कर भी तो नहीं आई थी। कहीं चाचा ने पापा को बता दिया तो? पापा कहीं नाराज़ न हों।
लेकिन पापा की लाडली बेटी को मन ही मन ये भरोसा भी था कि पापा अपनी साधोना बिटिया से गुस्सा नहीं हो सकते। फ़िर फ़िल्म के सेट पर आई लड़की जो एक्टिंग का सपना देखती थी, वापस कैसे लौट जाती। साधना ने मन से डर को निकाल दिया।
वहां उनका सामना अपने चाचा से भी हुआ पर वो तब वापस जाने के लिए निकल ही रहे थे।
साधना को और कुछ लड़कियों के साथ देख कर वो यही समझे कि बच्चियां शायद शूटिंग देखने चली आई हैं। वे मुस्कराते हुए बाहर निकल गए।
साधना ने राहत की सांस ली।
असल में स्टूडियो में जिस फ़िल्म के प्रोडक्शन का काम चल रहा था उसका नाम था श्री चार सौ बीस! फ़िल्म के हीरो थे राज कपूर।
इसी फ़िल्म में एक समूह गीत फिल्माया जाना था और कलाकारों का अंतिम रूप से चयन हो जाने के बाद डांस का लंबा रिहर्सल होना था।
साधना को भय था कि पापा को अगर कहीं से इस बात की खबर लग गई तो वो नाराज़ होंगे। हालांकि वो ये भी जानती थी कि यदि वो खुद ही पहले जाकर इस बारे में पापा को बता देगी, और उनसे अनुमति मांगेगी तो वो कभी मना नहीं करेंगे।
साधना ने डांस डायरेक्टर के निर्देशन में गाने का रिहर्सल किया और उन्हें अपने स्टेप्स व छवि से इतना प्रभावित किया कि साधना को काफ़ी आगे हीरोइन के एकदम करीब खड़े होने की जगह दी गई।
इस जगह खड़े होने से कैमरे में प्रमुखता से आने का पूरा मौक़ा था और हीरोइन के फ़्रेम में होने पर तो सीन काटे जाने का खतरा भी नहीं था। अलबत्ता ये खतरा ज़रूर था कि हीरोइन इतनी ख़ूबसूरत लड़की को अपने इतना नज़दीक खड़े करने पर बिदक न जाए, और उसकी जगह बदलवा न दे।
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि इस फ़िल्म में नायिका के रूप में नरगिस के होते हुए भी ये गाना फ़िल्म की सहनायिका नादिरा पर फिल्माया गया। नादिरा के बारे में कहा जाता था कि वे खिलंदड़ी तबीयत की बेहद दरिया दिल एक्ट्रेस थीं और जूनियर कलाकारों के लिए बहुत ही कॉपरेटिव थीं। उन्होंने किसी को सेट से हटवाना नहीं सीखा था, बल्कि वो नए कलाकारों को प्रोत्साहित करके उनका हौसला ही बढ़ाती थीं। मज़े की बात ये कि फ़िल्मों में नादिरा ने ज़्यादातर तुनकमिजाज, कुटिल और ईर्ष्यालु खलनायिका के रोल निभाए।
कहावत है कि जल में रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं करना चाहिए, पर नादिरा ने ज़्यादातर जल में रहकर मगर से ही बैर पाला। मतलब वो अधिकांश फ़िल्मों में हीरोइनों से ही टक्कर लेकर चाल चलती थीं।
गीत कोरस था। शूटिंग हो गई। ये फ़िल्म के पर्दे पर साधना को मिला ज़िन्दगी का पहला मौक़ा सिद्ध हुआ।
साधना के ताज़ा फूल से चेहरे ने कोरस में भी लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
साधना बाल सुलभ चंचलता से फ़िल्मों में काम करने की अपनी ख्वाहिश को और भी शिद्दत से पोसती रही। देखते- देखते साधना की स्कूली शिक्षा पूरी हुई। इसी बीच उसे एक और गीत में समूह डांस में खड़े होने का मौक़ा मिला, लेकिन उसमें फ़िल्म के संपादन के दौरान वो दृश्य हटा दिया गया जिसमें साधना थी।
वो गीत था "रमैया वस्तावैया, मैंने दिल तुझको दिया"।
लेकिन साधना को इस बात का मलाल ज़रूर हुआ क्योंकि बाद में वो गीत बहुत पॉपुलर हुआ और फ़िल्म भी ज़बरदस्त हिट हुई।
साधना कॉलेज में आ गई। उसने मुंबई, जो तब बंबई के नाम से दुनिया भर में जाना जाता था, के जय हिन्द कॉलेज में प्रवेश ले लिया।
साधना शिद्दत से इस सपने को पाल कर जीवन में आगे बढ़ने लगी कि उसे फ़िल्म एक्ट्रेस ही बनना है।