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ज़बाने यार मन तुर्की

4 अगस्त 2022

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जिस समय "महफ़िल" रिलीज़ हुई, ये वो समय था जब लोग कह रहे थे कि राजेश खन्ना का ज़माना गया, अब तो सुपरस्टार  अमिताभ बच्चन है।
जिस समय महफ़िल बननी शुरू हुई, वो समय था जब आराधना, दो रास्ते, दुश्मन जैसी फ़िल्मों के साथ राजेश खन्ना को फ़िल्म जगत का नया सुपरस्टार बताया जा रहा था।
इस रोज़ रंग बदलती दुनिया में हिचकोले खाती हुई कोई फ़िल्म अगर अपनी शुरुआत के एक दशक बाद सिनेमा घरों में पहुंचे तो उसका जो हाल होगा, वही महफ़िल का हुआ।
सिनेमा हॉल खाली रहे, समीक्षक चुप रहे, फ़िल्म पत्रिकाएं कुछ कहने से बचती दिखीं, ख़्वाजा अहमद अब्बास और इस्मत चुग़ताई के मुरीद कहते पाए गए कि ये अदब के लोग हैं, सिनेमा के नहीं!
और साधना के चाहने वाले मन ही मन उन काल्पनिक दुश्मनों को कोसते दिखे जो कभी खुल कर सामने तो नहीं आए, पर उन्होंने साधना के किसी फूल को सफ़लता के देव पर चढ़ने नहीं दिया।
उनका पंद्रह वर्ष पुराना कैरियर वापस लौट जाने के लिए अपना सामान समेटने लगा, लेकिन उन्हें फ़िल्म जगत ने कभी किसी सम्मान- पुरस्कार से नहीं नवाज़ कर दिया।
उनकी बहन बबीता की शादी भी तमाम प्रतिरोध - गतिरोध के बावजूद रणधीर कपूर से हो गई। वो राजकपूर की बहू बन गई।
ये बात और है कि साधना को शादी में आमंत्रित किया गया या नहीं।
राजकपूर का वो बहुत बड़े दिलवाला परिवार था। उसमें बहू बबीता ने अपने दादाश्वसुर पृथ्वीराज कपूर और श्वसुर राजकपूर के साथ तो काम किया ही, अपने चाचा श्वसुर शम्मी कपूर और शशि कपूर के साथ भी फ़िल्में की। उन्होंने पति रणधीर कपूर के साथ भी अपनी फिल्मी जोड़ी जमाई।
और फिर इस बड़े दिल वाले परिवार की बहू बन कर फ़िल्मों में काम करना छोड़ दिया।
क्योंकि इस महान परिवार में बेटियां और बहुएं फ़िल्मों में काम नहीं करती थीं!
इसके बाद साधना ने इस परिवार में किसी के साथ काम नहीं किया। अराउंड द वर्ल्ड में उनका काम राजश्री ने किया, मेरा नाम जोकर में उनकी जगह सिमी ग्रेवाल रहीं, राजकपूर की महत्वाकांक्षी फ़िल्म "बॉबी" में ऋषि कपूर की मां की भूमिका के लिए खुद साधना ने इनकार कर दिया और उसके बाद उनकी हर फ़िल्म की कहानी एक सी रही...शुरू हुईं तो पूरी नहीं हुईं, पूरी हुईं तो रिलीज़ नहीं हुईं, रिलीज़ हुईं तो देखने वाले नहीं मिले।
उनके दौर के फ़िल्म पुरस्कारों की कहानी भी उनकी ख़ुद की कहानी की तरह रही। जिस साल उनकी कोई व्यावसायिक फ़िल्म हिट होती, उस साल सारे पुरस्कार कला फ़िल्मों को मिलते। और जिस साल उनकी किसी फ़िल्म की कलात्मकता की प्रशंसा दर्शक और समीक्षक करते, उस साल सारे पुरस्कार व्यावसायिक फ़िल्मों को चले जाते।
अगर किसी पत्रिका ने उन्हें बड़ा बताया तो उस पत्रिका को छोटा बता दिया गया।
जब वो सादगी से बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी के साथ काम करतीं तो मीना कुमारी, वैजयंती माला, सायरा बानो की खूबसूरती की मिसाल दी जाती, जब वो अपनी खूबसूरती का जलवा बिखेर कर देश भर की फैशन आइकन बन गई तो लोग सादगी को अदा बता कर नूतन और वहीदा रहमान का गुणगान करने लगे।
सीधे - सीधे एक वाक्य में यही कहा जा सकता है कि साधना "चाल" की शिकार एक प्रतिभाशाली महान अभिनेत्री थी। अब चाहे ये चाल नक्षत्रों की हो, या क्षत्रपों की!
उन्नीस सौ अठहत्तर में अपनी फ़िल्म "महफ़िल" की इस बेरौनक रिलीज़ के बाद साधना ने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया और अपनी प्रतिभा तथा ख़ूबसूरती के इस दुनियावी मेले का पर्दा हमेशा के लिए गिरा दिया।
आर के नय्यर फ़िल्म निर्माण या निर्देशन कर ज़रूर रहे थे पर उनका भी काम कोई बहुत संतोषजनक ढंग से चल नहीं रहा था। वे निर्देशक बनने से पहले कुछ लोगों के सहायक निर्देशक भी रहे थे। अब साधना के पूरी तरह काम छोड़ देने के बाद वे अपने ढेर सारे मित्रों के बीच अपना रास्ता बनाने का प्रयास कर रहे थे।
साधना ने ज़िन्दगी के इस मोड़ पर फ़िल्मों में अपनी सफल पारी का महोत्सव मनाने के बाद अब कुछ आराम करने की बात सोची।
एक संकल्प तो ये लिया कि अब फ़िल्म में काम नहीं करेंगी, और अन्य समकालीन अभिनेत्रियों की तरह सहायक भूमिकाएं निभाने का तो सवाल ही नहीं उठता।
उस समय नूतन, आशा पारेख, वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, नंदा, तनुजा, माला सिन्हा फ़िल्मों में मां, भाभी या बहन के छोटे किरदारों में दिखाई दे रही थीं। लेकिन शायद इन सबके भी अलग - अलग अपने कारण थे।
आशा पारेख,नंदा, वहीदा रहमान की शादी नहीं हुई थी और वो किसी पारिवारिक दायित्व से मुक्त थीं। इसलिए उनके लिए फ़िल्में अच्छा टाइम पास था।
माला सिन्हा अपनी बेटी प्रतिभा को, शर्मिला टैगोर अपने बच्चों सैफ़ और सोहा को, नूतन अपने बेटे मोहनीश को और तनुजा अपनी बेटी काजोल को फ़िल्मों में लाना चाहती थीं, इसलिए उनके आने और स्थापित हो जाने तक कैमरे के सामने अपना बाज़ार बनाए रखना चाहती थीं।
साधना की एक अन्य समकालीन तारिका सायरा बानो ने दिलीप कुमार से शादी की थी और सायरा बानो के "साहब" उनके लिए फुलटाइम जॉब थे।
साधना की स्थिति इन सब से अलग थी। आर के नय्यर के निर्देशक होने के नाते वो फिल्मी दुनिया के पार्श्व में अपनी भूमिका निभा रही थीं और कोई दायित्व न होने के कारण उससे प्रत्यक्ष रूप से जुड़े भी नहीं रहना चाहती थीं।
कुछ समय आराम से गुजरा और फ़िर उन्नीस सौ तिरासी में कुदरत ने उन्हें स्त्री जीवन की सबसे बड़ी भूमिका सौंपी। वो मां बनने की राह पर आगे बढ़ीं। जीवन एक बार फिर नए एहसासों की हरीतिमा में चहचहाने लगा।
लेकिन यहां भी नक्षत्रों ने चाल चल दी।
पैदा हुआ पुत्र उन्हें एक झलक दिखा कर तुरंत सामने से हटा लिया गया, क्योंकि वह मृत ही जन्मा था।
बॉलीवुड की वो प्रख्यात फ़िल्मतारिका जिसे फ़िल्म वर्ल्ड की ग्रेटा गार्बो कहा जाता था, अपनी आंखों को तीन बार झपका कर हैरानी से देखती हुई ये भी नहीं समझ पाई कि ये किसी फ़िल्म की शूटिंग है या कुदरत का उसके साथ खेला हुआ कोई छल!
और डॉक्टरों से ये सुन कर तो वो जैसे फ़िर किसी धुंध के बादल में मिस्ट्री गर्ल की तरह अकेली चली गई कि थायरॉइड के फ़िर न उखड़ आने के खौफ से उसे दी गई दवाएं अब उसे कभी मां नहीं  बनने देंगी।
उसने इस आस को भी अलविदा कहने का मन बना लिया।
पति पत्नी ने एक बार इस सारे झमेले को भुलाने की गरज से कहीं घूमने जाने का प्लान बनाया और वो दोनों दुनिया भर में घूमने निकल गए। घूमना -फिरना -खाना और संसार भर की फैली रौनकें देखना, यही दिनचर्या लेकर दोनों ने जम कर सैर सपाटा किया।
जब व्यस्तताएं होती हैं तो कुछ पता नहीं चलता, कि वक़्त कैसे गुज़र जाता है। लेकिन जब इंसान कुछ फुरसत में हो, तो हर बात का सियाह - सफ़ेद दिखाई देने लगता है।
नय्यर साहब का काम भी कुछ ख़ास नहीं चल रहा था और साधना तो ये तय करके ही बैठी थीं कि बस, बहुत हुआ, अब काम नहीं करना है।
लेकिन कभी इतनी बड़ी फिल्मी हस्ती रहीं साधना आसपास वालों की नज़र में तो रहती ही थीं कि अब मैडम कहां हैं, क्या कर रही हैं। उनके इंटरव्यू भी फ़िल्म मैग्जीन्स में जब तब आते ही रहते थे।
एक मुंह लगी पत्रकार ने एक साक्षात्कार में साधना से पूछ ही लिया - हमें पता चला है कि आपका भी कभी - कभी अपने पतिदेव से झगड़ा हो जाता है, तो आप बताएंगी कि झगड़े का कारण क्या रहता है?
यानी ये नहीं पूछा जा रहा था, कि क्या आपका अपने पति से झगड़ा होता है या नहीं। सीधे ये पूछा जा रहा था कि झगड़ा किस बात पर होता है?
अब साधना जैसी इंटेलीजेंट एक्ट्रेस ये तो कर नहीं सकती थी कि पूछा कुछ जाए, और बताया कुछ जाए। साधना ने भोलेपन से यही बताना शुरू किया कि झगड़ा किस बात पर होता है।
बोलीं- अरे बाबा, हमारी तो शादी ही तूफ़ान लेकर आई है। पहले मेरे माता -पिता नहीं माने, उन्हें मनाया, और अब इन्हें लगता है कि मैं बहुत डॉमिनेटिंग हूं, इन पर हुकुम चलाती हूं।
- आपको क्या लगता है? क्या आप वाकई हुकुम चलाती हैं? महिला ने पूछा।
- पहले तो हुकुम चलाना इन्हीं ने मुझे सिखाया। मुश्किल से सीखी। और अब सीख गई तो कहते हैं कि मैं हुकुम चलाती हूं। कह कर साधना ज़ोर से हंसीं, और बताने लगीं कि जब मैं अपनी फ़िल्म "गीता मेरा नाम" कर रही थी, तो इनका ही प्रस्ताव था कि फ़िल्म को डायरेक्ट तुम करो, मैं असिस्टेंट डायरेक्टर रहूंगा। अब असिस्टेंट पर तो हुकुम चलाना ही पड़ेगा न। कह कर साधना फ़िर खिलखिला पड़ीं।
लेकिन तुरंत ही संजीदा होकर कहने लगीं - सच बताऊं, ये ज़रूरत से ज़्यादा सोशल हैं, जब घर आयेंगे तो साथ में ढेर सारे दोस्तों को लेकर आ जाएंगे। अब बताओ, ये कोई बात हुई? पहले से प्लान बनाए बिना कोई घर में इस तरह आ जाए तो मुश्किल तो होगी न?
- अच्छा, तो आपको मेहमान नवाज़ी करनी पड़ जाती होगी। एक बात बताइए कि क्या आपको कुकिंग का शौक़ है या नहीं? पत्रकार ने पूछा।
- बहुत, इनके खाने- पीने का मैंने हमेशा बहुत ख़्याल रखा है, महीने में बीस तरह की तो दाल बना कर परोस दी इन्हें! साधना गर्व से बोलीं।
- अच्छा, नय्यर साहब भी आपका इतना ही ध्यान रखते हैं? सवाल किया पत्रकार ने।
- केवल तब, जब चैक पर साइन लेने आते हैं। कह कर साधना फ़िर हंस पड़ीं।
- चलिए,पैसे आपके कब्ज़े में रहते हैं, इसका मतलब ध्यान रखना ही हुआ न ! महिला ने कहा।
साधना फ़िर गंभीर होकर धीरे से बोलीं- पहले मैं इस बात से बहुत चिढ़ती थी कि ये शख़्स हमेशा दोस्तों से घिरा रहता है, इसे बीवी की प्राइवेसी का ज़रा ख़्याल नहीं है, आख़िर मेरा भी मन है, मूड है, वैसे ही दस झमेले लगे रहते थे।
- तब, आपने कुछ कहा नहीं इनसे?
- कहा न, कहती ही थी, मेरे भी मिलने जुलने वाले आते हैं, मेरा भी सर्कल है...
- जी बिल्कुल, फ़िर कोई रास्ता निकाला उन्होंने। आपके पतिदेव ने?
- हां, अब हम एक दूसरे को पर्याप्त स्पेस देते हैं, अपने रूटीन में भी, और लिट्रली घर में भी। हमने अपना सांताक्रुज वाला बंगला रिटेन कर लिया है । अब मैं कार्टर रोड वाले फ्लैट और इस बंगले के बीच शंटिंग कर लेती हूं। साधना ने बताया।
साधना सांताक्रुज के जिस "संगीता" बंगले में रहती थीं, वो दरअसल आशा भोंसले का बंगला था जो उन्होंने किराए पर नय्यर परिवार को दिया हुआ था।
अपनी शादी के बाद वो कार्टर रोड पर अपने आलीशान फ्लैट में रहने आई थीं।
ऐसे ही एक इंटरव्यू में एक पत्रकार ने उनसे पूछा - ज़िन्दगी के कई बेहतरीन साल कैमरे के सामने स्पॉटलाइटों में बिताने के बाद क्या आपका मन नहीं करता कि अब फ़िर से आप फ़िल्मों का रुख करें। जबकि कई अभिनेत्रियों ने विराम लेने के बाद अपनी शानदार वापसी की है और प्रशंसा पाई है।
- नहीं, मैंने हमेशा से यही चाहा है कि फ़िल्मों से उसी समय संन्यास लूं जब मेरी मांग बनी हुई हो। साधना ने जवाब दिया।
लेकिन युवा पत्रकार शायद इस जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ। उसने कहा- ये ज़रूरी तो नहीं कि जीवन में युवावस्था ही सब कुछ हो, कई बार बड़ी उम्र के लोग ऐसे काम कर जाते हैं जिन्हें पर्दे पर उतारना गर्व की बात हो। कई बार मां का रोल इतना दमदार होता है कि संतान के लिए वही नायिका बन जाती है। आपने देखा होगा कि हाल में आशा पारेख ने "मैं तुलसी तेरे आंगन की" में जो रोल किया है, वो उनकी अब तक की सभी भूमिकाओं में सबसे दमदार माना जा रहा है।
शायद इस सवाल ने साधना की किसी दुखती रग को छू दिया। वो दो पल के लिए खामोश हुईं और फ़िर बोलीं- हां, यदि अपनी डिग्निटी को बनाए रख कर लिखी गई कोई विशेष भूमिका मुझे मिले तो मैं भी सोच सकती हूं कि कैमरा फेस करूं।
इन्हीं दिनों कभी साधना के सबसे सफल जोड़ीदार रहे राजेन्द्र कुमार फ़िल्म निर्माता बन गए थे। उनकी अपने बेटे को लेकर बनाई गई फ़िल्म "लव स्टोरी" बेहद कामयाब रही थी, और वो फिर किसी दमदार पटकथा की तलाश में थे। वे चाहते थे कि कहानी में खुद उनके लिए भी कोई चुनौती पूर्ण भूमिका हो ताकि वो बेटे के साथ फ़िर काम करने का अवसर पाएं।
इन्हीं दिनों राजेन्द्र कुमार को एक कहानी मिली, जो पहली नज़र में ही उनके दिल को छू गई।
कहानी एक ऐसे युवक की थी, जो अपनी मां के मरने के बाद पिता के साथ रहता है। पिता अपने अकेलेपन से त्रस्त होकर एक सुबह जॉगिंग के लिए पार्क में आई प्रौढ़ महिला से दोस्ती कर बैठता है जो बाद में प्यार में बदलने लगती है।
लड़का अपनी मां को याद करते हुए ऐसा नहीं चाहता कि कोई उसके पिता के दिल में उसकी मां की जगह लेने की कोशिश करे। वह पिता से कुछ कह कर उनका दिल भी नहीं दुखाना चाहता। ऐसे में वो अपनी प्रेमिका के साथ मिल कर एक प्लान बनाता है कि वो अपने पिता को उस प्रौढ़ महिला से दूर रखने के लिए उस महिला से प्यार का नाटक करेगा और उसे व्यस्त रख कर अपने पिता से मिलने का मौक़ा ही नहीं देगा।
इस कोशिश में वो महिला के साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त बिताता है और उसके पिता और उसकी प्रेमिका अलग- अलग उन दोनों को देखकर जलते रहते हैं। लड़के की प्रेमिका एक डांस टीचर है अतः वो हर मौक़े पर अपने को डांस में व्यस्त रख कर अपनी जलन मिटाती है। लड़के का पिता मायूस होकर घर बैठ जाता है और महिला का ख्याल दिल से निकाल देता है।
राजेन्द्र कुमार ने इस कहानी को पसंद करके इस पर पटकथा लिखवाने का आदेश दे दिया। कहानी का शीर्षक था "निस्बत"।


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रचनाएँ
ज़बाने यार मन तुर्की (अभिनेत्री साधना की कहानी)
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