लंबी बीमारी के इलाज के बाद अमेरिका के बॉस्टन शहर से साधना जब से लौटीं, तब से उनका थायराइड तो नियंत्रण में आ गया था पर आखों के रोग के बाद दवाओं की अधिकता ने अब बढ़ती उम्र के साथ सेहत का तालमेल बैठा पाना ज़रा मुश्किल कर दिया था।
उनकी नियमित देखभाल करने वाले फ़ैमिली डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें अपना हवा - पानी बदलने के लिए कुछ दिन किसी हिल स्टेशन पर जाकर रहना चाहिए।
साधना को हिल स्टेशनों पर रहने वाली भीड़- भाड़ पसंद नहीं थी। लेकिन कश्मीर उन्हें हमेशा से पसंद रहा था जहां अपनी शूटिंग के सिलसिले में उनका कई बार जाना हुआ था।
उनके पति को अस्थमा की तकलीफ़ के चलते वो पहाड़ों पर जाने से बचते थे।
हां, कश्मीर का लद्दाख लेह वाला हिस्सा ऐसा था जहां शांत पहाड़ों के बीच रहने का अपना एक अलग आनंद था।
साधना ने डॉक्टर की सलाह पर कुछ दिन वहां जाकर रहने का मन बनाया।
वैसे भी श्रीनगर की वादियों में तो अब जाकर रहना भावनात्मक रूप से बहुत ही मुश्किल था। वहां उन्होंने झील के मंज़र और किरणों की जो बरसातें देखी थीं उनकी इनायतें और उनके करम किस तरह भुलाए जा सकते थे। और अब तो बेदर्दी बालमा का साथ भी नहीं था।
साधना कुछ दिनों के लिए अज्ञातवास में लेह चली आईं।
यहां अपने होटल से निकल कर सुबह ख़ाली सड़क पर टहलते हुए चारों ओर बर्फ़ से ढके पहाड़ों के बीच उगते सूरज की मंद उनाई का लुत्फ़ सहज ही उठाया जा सकता था।
वे रोज़ सुबह इस सैर का अपरिमित आनंद लेती हुई घंटों बिताती थीं। तबीयत भी मानो इन वादियों में आते ही आप ही संवरने लगी।
एक दिन रोज़ की तरह साधना सफ़ेद फ़र का कोट पहने चली जा रही थीं कि एक मिलिट्री रंग की लंबी सी कार धीरे से आकर उनके करीब ही रुकी।
उसमें से तीन - चार युवक उतर कर उनकी ओर बढ़े।
एक पल को साधना ज़रा ठिठकी और फ़िर ठहर गईं।
जवानों ने आकर उन्हें ज़ोरदार सैल्यूट मारा और बताया कि उन्होंने उन्हें पहचान लिया है।
वे सभी सेना के बड़े अफ़सर थे और उन्हें पता चल गया था कि वो कौन थी।
अगले ही दिन छावनी एरिया में शाम को साधना का एक भव्य सम्मान समारोह और डिनर आयोजित किया गया। इस समारोह में पहले तो बड़े अफ़सरों द्वारा उन्हें उनके वज़न के बराबर का एक गुलदस्ता भेंट किया गया, फ़िर सैनिकों ने खुद साधना के मुंह से उनके अनुभव सुने। कई युवाओं ने उनके ऑटोग्राफ लिए।
कुछ सैनिकों ने उनकी फ़िल्मों के गाने भी सुनाए। और बाद में सामूहिक डिनर हुआ।
वर्षों पहले आकाशवाणी द्वारा एक विशेष कार्यक्रम "जयमाला" प्रसारित किया जाता था, जिसमें कोई फिल्मी हीरो या हीरोइन फ़ौजी भाइयों के लिए अपने मनपसंद गाने सुनवाते थे। कार्यक्रम का नाम था मनचाहे गीत!
कई साल पहले एक बार साधना ने भी इस कार्यक्रम में शिरकत करते हुए सैनिक भाइयों को अपने मनपसंद गीत सुनवाए थे।
एक सैनिक ने उस कार्यक्रम के अपने अनुभवों के संस्मरण सुनाते हुए बताया कि आज वो अपनी मनपसंद हीरोइन को प्रत्यक्ष देख रहे हैं, और आज उनके मनचाहे गीत उन्हें हम सुनाएंगे।
ये कहते हुए उन्होंने सचमुच साधना की फरमाइश पर उनकी फिल्म का गीत "अहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो, ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो" गाकर सुनाया।
खाने के बाद कुछ लोगों ने साधना के साथ फ़ोटो लेने चाहे जिसके लिए साधना ने बहुत विनम्रता और विवशता से मना कर दिया।
बाद में उनकी फ़िल्म "मेरे मेहबूब" का शो भी वहां रखा गया, जिसमें कुछ देर साधना भी वहां रहीं।
अगले दिन स्थानीय अख़बार में ये खबर छप जाने के बाद साधना ने जल्दी ही वापसी का प्रोग्राम भी बना लिया।
ये समाचार देश के कई अन्य पत्र- पत्रिकाओं में भी तरह - तरह से छपा। मुंबई के एक अख़बार ने लिखा कि देश की सीमा पर सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए एक फ़िल्म हीरोइन सैनिकों के बीच बर्फ़ और खराब मौसम के बावजूद हज़ारों फीट की ऊंचाई पर पहुंचीं।
साधना ने इस समारोह के चित्र तो सैनिकों को नहीं लेने दिए फ़िर भी कुछ साल बाद आए एक बहुचर्चित उपन्यास "अकाब" में ये घटना विस्तार से दर्ज़ हो गई क्योंकि उपन्यास के राइटर को उसी होटल के कमरे में ठहरने पर वर्षों बाद एक रूमब्वॉय से इसका पूरा विवरण उपलब्ध हुआ, जो अपनी किशोरावस्था में छावनी में चाय ले जाने का कार्य करते हुए पूरी घटना का चश्मदीद गवाह बना था।
साधना के लिए सेना के लगाव, या सेना के लिए साधना के लगाव का ये वाकया कोई पहला नहीं था।
इससे पहले भी साधना की शादी वाले दिन पुणे के मिलिट्री इंस्टीट्यूट में जवानों द्वारा सामूहिक मदिरापान अख़बारों की सुर्खियां बन कर चर्चा में आया था।
कुछ लोग इन घटनाओं को इस बात से जोड़ कर भी देखते थे कि उन्नीस सौ पैंसठ में पाकिस्तान से युद्ध के समय सेना के लिए धन जुटाने की मुहिम में साधना ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था।
साधना लद्दाख से लौट कर फ़िर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गईं।
साधना सुबह जल्दी उठने की अभ्यस्त नहीं थीं। सुबह साढ़े नौ बजे के बाद उठने के बाद चाय पी कर अख़बारों से फारिग होने के बाद वो तैयार होती थीं फिर कुछ देर टीवी के साथ बिता कर खाना खाती थीं। यदि लंच कहीं बाहर होता तो उससे निबट क्लब में ताश खेलने के लिए जाती थीं।
शाम को जल्दी ही घर लौटना पसंद करती थीं।
ये दिनचर्या कोई बहुत रचनात्मक नहीं थी, किन्तु वो कोई समाज सेविका नहीं, वरन् हिंदी सिनेमा की चोटी से निवृत्त हुई मशहूर फ़िल्म एक्ट्रेस थीं।
कहते हैं कि सुख- दुःख हर एक की ज़िन्दगी में आते हैं।
बस फर्क ये है कि सुख ढूंढने के लिए हम निकलते हैं और दुःख हमें ढूंढ़ते हुए खुद आते हैं।
साधना सांताक्रुज के जिस बंगले में वर्षों से रह रही थीं वो आशा भोंसले के ससुराल पक्ष की मिल्कियत था। आशा भोंसले का अपने पति से तलाक़ हो जाने के बाद उनका वहां आना जाना तो नहीं था पर उनके पूर्व पति की मृत्यु के बाद उसकी सार संभाल उन्हीं के जिम्मे थी।
साधना इस बंगले के ग्राउंड फ्लोर पर रहती थीं और ऊपर के तल पर दूसरे लोग रहते थे।
कभी- कभी ये विवाद सुनने में आता था कि बंगले के अन्य लोग बंगले के गार्डन पर केवल साधना के हक़ को लेकर आपत्ति जताते थे।
साधना का कहना था कि जब उन्होंने ये बंगला किराए से लिया था तब उसके एग्रीमेंट में ये साफ़ लिखवाया गया था कि बंगले का ये गार्डन या लॉन केवल साधना के परिवार के लिए रहेगा। एक आभिजात्य फिल्मी परिवार होने के चलते उनकी प्राइवेसी के लिए ये निहायत जरूरी भी था।
किन्तु उनके पति की मृत्यु के बाद उनके अकेले रह जाने पर अन्य कुछ लोगों के मन में ये लालच आ गया कि इस बग़ीचे पर भी अपना कुछ हक़ जमाया जाए।
जबकि साधना की दृष्टि से अकेली महिला के लिए ये और भी जरूरी हो गया था कि उनकी प्राइवेसी और सुरक्षा बनी रहे। लिहाज़ा औरों का आना- जाना उनके लिए निरापद नहीं था।
उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी, और ऊपर रहने वाली एक महिला इस बात के लिए जब तब विवाद उठाने लगी।
उस महिला का परिवार, खासकर उसका दामाद साधना के लिए असुविधा और परेशानी पैदा करने लगा।
धीरे- धीरे ये झगड़ा इतना बढ़ा कि उस परिवार ने तरह- तरह से साधना को तंग करना शुरू कर दिया।
यहां तक कि बात आशा भोंसले तक भी पहुंची ! उनके दखल देने पर साधना ने उनसे कहा कि वो जिन लोगों को अनुमति देकर अधिकृत करें उन्हें तो साधना वहां आने देंगी, पर उसे हर ट्रेस्पासर (आने जाने वाले) के लिए आम रास्ता नहीं बनाया जा सकता।
ऊपर रहने वाले परिवार का दामाद वास्तव में एक प्रॉपर्टी बिल्डर था और उसका इरादा किसी भी तरह बंगला खाली कराने का था।
उसने अब साधना को काफ़ी तंग करना शुरू किया और एक दिन घर आकर धमकी दे डाली, कि वो किसी भी हद तक जा सकता है और उसके रास्ते में आने वाले के वो टुकड़े- टुकड़े करवा देगा।
अकेली महिला, वो भी देश की प्रख्यात अभिनेत्री को मिली ये धमकी अख़बारों की सुर्खियां बन गई।
इस धमकी पर साधना ने उसे डांट कर घर से निकल जाने के लिए कहा और हिम्मत कर के तुरंत पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी। इस बीच स्थिति और भी विकट हो गई जब आशा भोंसले की ओर से भी ये शिकायत दर्ज़ हो गई कि साधना वहां उनके आने - जाने वालों को आने से रोक रही हैं।
लेकिन मीडिया में बात उछल जाने से कई लोग साधना की मदद को आ गए। यहां तक कि अभिनेता सलमान खान तक ने ट्विटर पर ये मुद्दा उठाया और कहा कि साधना फ़िल्म जगत की लीजेंड हैं और उनकी सहायता की जानी चाहिए।
इसके कुछ ही दिन बाद उस प्रॉपर्टी बिल्डर का वकील आकर साधना से मिला और कहा कि उसके मुवक्किल आपसे माफ़ी मांगने के लिए यहां आना चाहते हैं।
साधना ने इसके लिए अनुमति दी और कहा कि ये मामला पुलिस तक पहुंच चुका है इसलिए वो माफी लिखित रूप में मांगें। ऐसा ही हुआ और देश के करोड़ों लोगों के दिलों पर कभी राज करने वाली उस महान शख्सियत को अपने बग़ीचे का राज वापस मिला।
आशा भोंसले ने वो बंगला बेच दिया।
जो आशा भोंसले कभी फ़िल्म के सुनहरे पर्दे पर साधना की आवाज़ बनती थीं, वो ख़ामोश हो गईं।
लेकिन इसके साथ ही एक बात और उभर कर लोगों के सामने आई कि आज पैसे के पीछे पागल होकर अमानवीय बर्ताव करना और पशुवत तौर - तरीकों का प्रयोग करना हमारी फ़िल्में ही शायद लोगों को सिखाती रही हैं।
एक साक्षात्कार के दौरान साधना से पूछा गया कि अगर आपको फिर से सोलह साल का बना कर खुदाई आपसे ये पूछे कि लो, दोबारा जी लो, तो आप इस जीवन और अपने नए जीवन में क्या बदलाव करना चाहेंगी?
साधना ने बिना एक पल भी गवाए कहा- कुछ नहीं!
उनका कहना था कि मुझे जो कुछ मिला वो इतना भरपूर है कि दूसरे जीवन में मैं और क्या मांगू?
बचपन, अपना सपना, प्यार, पैसा, शौहरत, काम,नाम सब तो मिला। और क्या चाहिए। हां, कभी- कभी सोचती हूं कि क्या अगर मेरे बच्चे होते तो मैं ज़्यादा सुखी होती?
हो भी सकती थी, नहीं भी। अपने कई परिचितों को उनके बच्चों के लिए रोता देखती हूं कि इसने ऐसा किया, उसने वैसा कर दिया, वो ऐसे नहीं करता, वो वैसे नहीं सुनता, तो सोचती हूं कि जो होता है ठीक ही होता है।
दुनिया में ऐसा कुछ नहीं है कि ये हो जाए तो सब ठीक हो जाए। और ऐसा भी कुछ नहीं है कि ये नहीं हुआ तो अब कुछ नहीं हो सकता।
मैं एक परफेक्ट संतुष्ट महिला हूं, जिसने ज़िन्दगी को भरपूर जिया है, साधना कहती हैं।
- अच्छा मैडम, ये बताइए कि आप दुनिया में अपने को किस तरह याद किया जाना चाहेंगी? किस रूप में? ये दिलचस्प सवाल भी एक बार साधना से किया गया था।
साधना ने कहा- जिस रूप में मैं हूं। लोग याद करें कि मैं कैसी थी। मेरी फ़िल्में कैसी थीं। मैंने कैसा काम किया। मेरे व्यक्तित्व की ताज़गी, मेरी मेहनत की लगन, अपना सपना सच करने की मेरी जिजीविषा याद की जाए तो मुझे अच्छा लगेगा। साधना ने उत्तर दिया।
- आप तो खुद एक अभिनेत्री के रूप में करोड़ों लोगों का आदर्श हैं, पर आप बताइए कि आप अपना आदर्श किस अभिनेत्री को मानती हैं? एक बार स्टार एंड स्टाइल की एक पत्रकार ने उनसे पूछा।
साधना बोलीं- मैं जानती हूं कि इस सवाल के जवाब में लोग हॉलीवुड के बड़े - बड़े एक्टर्स के नाम लेते हैं। पर मैं बताऊं, मुझे नूतन बहुत पसंद हैं। मेरा आदर्श वो हैं। मैं चाहती थी कि मैं उन जैसी एक्टिंग करूं।
- क्या कभी आपने ऐसी कोशिश की, कि आपको नूतन के साथ काम करने का मौक़ा मिले?
- ये मेरे हाथ में कहां था। शुरू में बिमल रॉय के साथ काम करते समय तो फ़िर भी ये संभावना थी कि कभी साथ में काम करते। बाद में तो सब कहने लगे कि हमारे रास्ते ही अलग हो गए। फ़िर भी, कभी - कभी मुझे लगता था कि यदि मैं बीमार नहीं हुई होती तो शायद "मैं तुलसी तेरे आंगन की" में नूतन के साथ आशा पारेख की जगह मैं ही होती। साधना ने जैसे कोई रहस्य खोला।
पत्रकार की आंखों में चमक आ गई। उसे साधना के इस कथन में सनसनी फैलाने की अपार संभावनाएं नज़र आईं। उसने साधना के इस कथन को और तीखा बनाने के लिए पूछा- यदि ऐसा होता तब भी क्या आपकी तारीफ़ नूतन से ज़्यादा होती, जैसे आशा पारेख की हुई? उन्हें इस फ़िल्म के लिए बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड भी मिला!
साधना मुस्करा कर रह गईं और बोलीं- क्या होगा, ये ऊपर से लिख कर आता है।
- लोग तो कहते हैं कि यदि आप बीमार नहीं होती तो शायद और अगले दस साल तक हिंदी फ़िल्मों की नंबर एक हीरोइन आप ही रहतीं। पत्रकार ने कहा।
इस सवाल के जवाब में साधना ख़ामोश रह गईं। फ़िर धीरे से इतना ही बोल सकीं- लोगों का काम है कहना!
किसी सोन चिड़िया और बेरहम अकाब की दास्तान ऐसी ही तो होती है। आसमान के ये खूनी परिंदे ज़मीन के भोले निर्दोष पंछियों पर ऐसे ही तो झपटते हैं, कभी लुटेरे बन कर तो कभी रोग बन कर। आजार बाज़ार को खा जाते हैं!