कहते हैं कि मां- बाप हमेशा औलाद का भला ही सोचते हैं।
जिन माता- पिता ने छः साल पहले साधना को अपने प्रेमी आर के नय्यर से विवाह करने की अनुमति ये कह कर नहीं दी थी कि प्यार से भी ज़रूरी कई काम हैं, प्यार सब कुछ नहीं ज़िन्दगी के लिए... उन्होंने ही अब कह दिया "मियां बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी?"
और उनके द्वार पर शहनाइयां बजने लगीं।
सफ़लता के जिस सुनहरे फर्श पर साधना चल रही थी, सहसा उसे लगा... आंच देने लगा कदमों के तले बर्फ़ का फर्श, आज जाना कि मोहब्बत में है गर्मी कितनी, संगेमरमर की तरह सख़्त बदन में मेरे, आ गई है तेरे छू लेने से नर्मी कितनी...!
ज़ोर - शोर से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं।
उस दौर की सबसे सफल हीरोइन और एक फ़िल्म निर्माता का प्रेम विवाह था। फ़िल्म जगत में चर्चा का बड़ा विषय बना।
हालांकि न तो होने वाले पति की ओर से ऐसी कोई बंदिश थी कि दुल्हन शादी के बाद फ़िल्में नहीं करेगी, और न ही होने वाली दुल्हन, साधना ने ऐसा कोई संकेत दिया था कि अब वो काम नहीं करना चाहती, फ़िर भी आख़िर शादी की चहल- पहल और हनीमून के लिए वक़्त तो निकालना ही था।
साधना को फ़िल्म "दो बदन" इसीलिए छोड़नी पड़ी, जिसे बाद में मनोज कुमार के साथ आशा पारेख ने किया। फ़िल्म काफ़ी सफल रही।
उन्नीस सौ छियासठ साल की होली के दिन मुंबई में भारतीय पद्धति से साधना का विवाह संस्कार संपन्न हो गया।
पत्र- पत्रिकाओं ने इसे "स्क्रीन लैंड के ताज़ा इतिहास की सबसे बड़ी घटना का सबसे भव्य समारोह" निरूपित किया।
शादी के अगले ही दिन टर्फ क्लब का रोशनी से नहाया हुआ लॉन फ़िल्म जगत के तमाम सितारों से जगमगा उठा, जब शादी का आलीशान रिसेप्शन दिया गया।
शादी की मेहंदी और हल्दी जैसी रस्मों को निभाने में दुल्हन साधना का साथ दिया अभिनेत्री नरगिस, निम्मी, नाज़, आशा पारेख, सायरा बानो, श्यामा,श्रीमती कृष्णा राजकपूर ने, और फेरे, पायल आदि रस्मों में इन सब के साथ - साथ बी आर चोपड़ा, महेंद्र कपूर, मुकरी, सुबि राज, नन्हे बालक संजय दत्त ने भी भागीदारी निभाई।
साधना की शादी के फोटोग्राफ्स में उसके किसी हीरो का न होना लोगों को अखरता रहा और दर्शक मानो मन ही मन इन नायकों से पूछते रहे - किस बात पे नाराज़ हो, किस बात का है गम???
साधना शादी के बाद अब रहने के लिए अपने माता - पिता के घर से अपने पति नय्यर साहब के घर चली आईं।
एक और विचित्र तथा मज़ेदार बात उनके विवाह पर फ़िल्म जगत के गलियारों में गूंजी। कहते हैं कि साधना की शादी की रात पुणे के एक प्रतिष्ठित आर्मी इंस्टीट्यूट के युवा लड़कों ने शराब पीते हुए नशे में अपने को डुबो कर मनाई।
वैसे इसके पीछे कारण ये बताया जाता है कि साधना ने सन उन्नीस सौ पैंसठ में नई दिल्ली में एक ऐसे कार्यक्रम "ए डेट विथ स्टार्स" में हिस्सा लिया था जो राष्ट्रीय रक्षा फंड के लिए धन जमा करने के मकसद से आयोजित किया गया था। इसमें फ़िल्म कलाकार डेविड, जयराज, और मदन मोहन ने उनका साथ दिया था। मदन मोहन ने साधना की कई फ़िल्मों को सुरीले संगीत से सजाया था।
तो हमारे नव सैनिक साधना जी के इस उपकार को भूले नहीं थे, और विवाह करके उनके पराए हो जाने का दुख उन युवाओं ने भी मनाया था।
इतना ही नहीं, गत वर्ष साधना ने सत्तर हज़ार रुपए और अपने ढेर सारे गहनों का उपहार खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री से मिल कर राष्ट्रीय रक्षा कोष के लिए उन्हें दिया था।
शायद उनकी उदारता और सेना के प्रति उनके सम्मान की भावना को देख कर ही एक फ़िल्म के लिए किसी शायर ने ऐसे गीत लिखे होंगे -" सिपाही देते हैं आवाज़ माताओं को बहनों को... हमें हथियार ले दो बेच डालो अपने गहनों को।"
साधना अपना घर संसार छोड़ कर देश के विभाजन के समय कराची से हिंदुस्तान आई थीं इसलिए शायद मन में कहीं न कहीं ये कसक सी थी कि कभी कोई युद्ध भारत और पाकिस्तान को फ़िर से एक करके उन्हें अपने बचपन से जोड़ दे।
इस साल फिल्मफेयर अवार्ड्स समारोह में बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नॉमिनेट होने पर भी उन्हें ये पुरस्कार मिला तो नहीं था, किन्तु फ़िल्म "दोस्ती" के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पुरस्कार की ट्रॉफ़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को उनके हाथ से ही दिलवाई गई थी। उन्होंने इस अवसर पर अपनी फ़िल्म "अनीता" का एक गीत भी गाया।
उनकी ब्लॉकबस्टर फ़िल्म "आरज़ू" का चैरिटी प्रीमियर भी इस साल निर्माता - निर्देशक रामानंद सागर ने आयोजित किया जिसकी पूरी आय नेवल डॉकयार्ड टी बी फंड को दान दी गई। साधना इस समारोह में भी खुद मौजूद रहीं।
उन्हें सुपर हिट फ़िल्म "वक़्त" की सिल्वर जुबली ट्रॉफ़ी पृथ्वी राज कपूर ने अपने हाथों से प्रदान की।
वे अपनी फ़िल्म "मेरे मेहबूब" के तंजानिया में हुए प्रीमियर पर भी स्वयं उपस्थित हुई थीं।
जो लोग ये सोचते थे कि साधना सोशल और मनोरंजक गेदरिंग्स में नहीं पहुंचती हैं, वे शायद इतना नहीं जानते हों कि इस बुद्धिमान महिला के लिए सोशल गेदरिंग्स का क्या मतलब था।
बेहद सफ़ल व्यावसायिक फ़िल्मों की ये ग्लैमरस नायिका नाचगाने और शराब की चलताऊ फिल्मी पार्टियों में शिरकत करने से ज़रूर बचती थी।
दिलीप कुमार के साथ साधना ने कभी स्क्रीन शेयर तो नहीं किया था लेकिन उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध के समय सेना के रक्षा फंड हेतु धन जमा करने के अभियान में उन्होंने दिलीप कुमार, वहीदा रहमान, मीना कुमारी और मोहम्मद रफ़ी के साथ बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया था।
उनकी शादी वाले इस वर्ष में ही एक सुखद घटना और घटी कि वर्षों पहले मुंशी प्रेमचंद की कहानी "गबन" पर जो फ़िल्म बनते बनते रह गई थी, उसे ऋषिकेश मुखर्जी ने सुनील दत्त और साधना जैसे व्यस्त और सफल सितारों को लेकर पूरा किया।
हिंदी फ़िल्मों की उस वक़्त की सबसे मंहगी हीरोइन साधना ने मुंशी प्रेमचंद के नाम पर "गबन" फ़िल्म के लिए अपना पारिश्रमिक निर्माता की मनमर्ज़ी पर छोड़ कर न्यूनतम कर दिया जबकि इसी समय वो समय न होने के चलते "दो बदन" जैसी बड़े बजट की व्यावसायिक फ़िल्म छोड़ चुकी थीं।
गबन के साथ ही उनकी एक बेहद सफल और प्रशंसित फ़िल्म "मेरा साया" भी इसी साल रिलीज़ हुई। इस फ़िल्म में उनकी दोहरी भूमिका थी। फ़िल्म का संगीत भी बहुत खूबसूरत था।
राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी इस फ़िल्म को दर्शकों की ज़बरदस्त सराहना मिली। इसमें भी उनके साथ सुनील दत्त थे, जिन्होंने गबन में नायक की अविस्मरणीय भूमिका अदा की थी।
इस फ़िल्म का एक गीत "झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में" तो इतना लोकप्रिय हुआ कि आज तक लोग बरेली को उसी तरह झुमकों के निर्माण का शहर समझते हैं जैसे फ़िरोज़ाबाद को चूड़ी के निर्माण का।
पिछले कुछ सालों ने बीते दशक की कालजयी अभिनेत्रियों की चाल को कुछ मंथर कर दिया था और वो एक एक करके रजत पट पर धूमिल या ओझल होने लगी थीं। ये युवाओं का नया दौर था और इस दौर को साधना, आशा पारेख, सायरा बानो, शर्मिला टैगोर जैसी हीरोइनें अपने नाम कर रही थीं।
इसी दौर का एक दिलचस्प किस्सा है, दो प्रोड्यूसर्स शाम के समय किसी मशहूर मदिरालय में बैठे जाम भी टकरा रहे थे और अपने आने वाले प्रोजेक्ट्स भी डिस्कस कर रहे थे। एक निर्माता ने दूसरे से कहा- तुम्हारी क्या राय है, अपने अगले ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए किस हीरोइन को एप्रोच करना चाहिए?
सामने बैठे अनुभवी और सफल प्रोड्यूसर ने जवाब दिया- अपनी स्क्रिप्ट देखो, यदि केवल खूबसूरत सजावटी गुड़िया चाहिए तो सायरा बानो को ले लो, यदि तुम्हारी हीरोइन ख़ूबसूरती के साथ - साथ नाचने- थिरकने वाली भी है तो आशा पारेख से बात करो, और अगर खूबसूरती व डांस के साथ - साथ कोई सोचने- समझने वाली भूमिका है तो साधना का खर्च उठाओ!
लोग यूं ही नहीं कहते कि होश की बात नशे में ही की जाती है।
अब तक साधना की छवि एक आभिजात्य में पली, शहरी पढ़ी - लिखी लड़की की बन चुकी थी, जो अपने फ़ैसले खुद लेती है, अपने साथियों को सलाह- मशवरा भी देती है और अपना सोचा हुआ कर गुजरने का माद्दा भी रखती है।
साठ के दशक के युवा लड़कियों के तमाम पहनने- ओढ़ने के फैशन साधना के बदन से गुज़र कर ही अवाम तक पहुंचे।
कभी कभी तो किसी विवशता ने उनके हाथों किसी नए फैशन का चमत्कार गढ़ दिया।
साधना के एक पैर की एक अंगुली दूसरी अंगुली पर प्राकृतिक रूप से चढ़ी हुई थी। पैर में चप्पल पहनकर चलने पर ये अजीब सी दिखाई देती थी। उनका लंबा कद होने के कारण फ्लैट चप्पल पहनकर चलना ज़रूरी हो जाता था क्योंकि कुछ मामलों में सह कलाकार की हाइट का ख्याल भी रखना जरूरी होता था।
अपनी इस उलझन को सुलझाने के लिए उन्होंने एक बार सुन्दर कलात्मक जूतियां, जिन्हें मोजड़ी कहा जाता है, पहनी। उनके नज़ाकत और नफासत भरे व्यक्तित्व पर ये चमकती सुनहरी जूतियां ऐसी फ़बीं कि ये भी दौर का फैशन बन गईं।
चूड़ीदार पायजामा और कुर्ता पहनने वाली लड़कियां ही नहीं, लड़के भी जूतियां पहने दिखाई देने लगे।
पठान सूट, पंजाबी सलवार सूट आदि के साथ यही पहनी जाने लगीं।
इस तरह ग्रामीण परिधान का हिस्सा माने जाने वाली जूतियां शहरी कलात्मक फैशन से जुड़ गईं।
एक और बात में साधना अपने दौर की अन्य अभिनेत्रियों तथा अन्य फिल्मी लोगों से अलग थीं। वे अपने प्रचार या केवल मिलने- जुलने को पसंद नहीं करती थीं। उनकी अपनी राय ये थी कि फिल्म कलाकारों को लोगों के बीच बहुत ज़्यादा आने- जाने या घुलने- मिलने से बचना चाहिए। शायद यही कारण हो कि फ़िल्म के पर्दे पर उन्हें देखते समय दर्शक और भी अधिक उत्सुकता या चाव से देखते हों।
फ़िल्म "अनीता" ने साधना की "मिस्ट्री गर्ल" की छवि को और भी पुष्ट किया। हालांकि फ़िल्म कोई बड़ी हिट साबित नहीं हुई पर इसमें उनकी चार भूमिकाओं ने एक अलग तरह का आकर्षण पैदा किया। वास्तव में ये चार रोल नहीं थे बल्कि एक ही व्यक्तित्व की चार अलग- अलग परिस्थितियां थीं लेकिन साधना जैसी वर्सेटाइल एक्ट्रेस के लिए इसमें अपनी प्रतिभा दर्शाने की एक विस्तृत रेंज निकली और उनकी भूमिका को सराहा गया।
इसमें साधना के साथ मनोज कुमार थे। इसमें उनकी खूबसूरत आंखों को लेकर बेहद आकर्षक गीत राजा मेहंदी अली खान ने लिखे।
साधना की शादी का हनीमून पीरियड कितना रहा, इस बात का जवाब खुद साधना ने एक महिला पत्रकार को एक बार अपने आप दिया। साधना का कहना था कि ये एक बार शुरू होने के बाद कभी खत्म नहीं हुआ।
लेकिन दुनिया की कोई दास्तान चढ़ाव उतार के बिना कभी पूरी नहीं हुई।
साधना की कहानी की लहराती - महकती बगिया में भी पछुआ हवाएं चलती देखी गईं।
एक वाकया ऐसा था जिसकी कड़वाहट इस उद्दाम वेग से बहती नदी के पानी को कसैला कर रही थी।
ये बात कुछ पुरानी ज़रूर थी, पर अब तक राख में छिपी चिंगारी की तरह किसी को दिखाई नहीं दी थी, खुद साधना को भी नहीं।
हां, इसकी एक हल्की सी झलक बहुत सोचने पर साधना को कुछ समय पूर्व घटी एक घटना में दिखाई दी थी। पर इसे दिल से न लगा कर साधना ने अपने जेहन से निकाल फेंका था।
इसका कोई असर न उन्होंने अपने जीवन पर आने दिया और न ही काम पर।
कभी- कभी आप सीधे- सीधे अपने रास्ते पर चल रहे होते हैं और बादल छा जाते हैं। वो न केवल छा जाते हैं, बल्कि बेमौसम बरसने भी लग जाते हैं।
इसमें आपकी कोई गलती नहीं होती, लेकिन आपकी राह में, आपके इरादे में बाधा आ जाती है और आपके कदम अनायास रुक जाते हैं या फ़िर मुड़ जाते हैं।
सन उन्नीस सौ चौंसठ में साधना की एक फ़िल्म आई थी, दूल्हा दुल्हन। इसमें साधना का डबल रोल था। फ़िल्म के हीरो थे राजकपूर।
मज़े की बात ये थी कि साधना सबसे पहले शशि कपूर के साथ फ़िल्म "प्रेमपत्र" में काम कर चुकी थीं, जो कि राजकपूर के सबसे छोटे भाई थे। साधना ने राजकपूर के दूसरे भाई शम्मी कपूर के साथ भी हिट फ़िल्म "राजकुमार" कर ली थी। और अब सबसे बाद में वो राजकपूर के साथ दूल्हा दुल्हन फ़िल्म कर रही थीं।
इसकी शूटिंग ज़ारी थी।
शूटिंग के बीच लंच का समय था।
साधना प्रायः अपना खाना सेट पर अपनी महिला सहकर्मियों के साथ ही खाती थीं। वो चाहे कोई सहायक अभिनेत्री हो, कोई तकनीकी स्टाफ हो या मेकअप करने वाला स्टाफ ही क्यों न हो।
जबकि दूसरी हीरोइनें प्रायः अपना स्टेटस मेंटेन करने की धुन में अक्सर हीरो, डायरेक्टर या अन्य बड़े स्टारों के साथ ही बैठना पसंद करती थीं।
उस दिन गाड़ी से राजकपूर के टिफिन का बैग लाकर रखने वाले स्पॉटब्वॉय ने जैसे ही उनके लिए पीने का पानी लाकर रखा, वे उससे बोल पड़े- मैडम कहां हैं?
लड़का बोला - उधर, खाना खा रही हैं।
राज कपूर को ज़रा आश्चर्य हुआ।