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ज़बाने यार मन तुर्की

4 अगस्त 2022

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साधना को फ़िल्म जगत में "मिस्ट्री गर्ल" अर्थात रहस्यमयी युवती का खिताब तत्कालीन मीडिया ने दे दिया। ज़्यादातर लोग यही समझते हैं कि उन्हें ये खिताब उनकी बेहतरीन फ़िल्म "वो कौन थी" में एक रहस्यमयी लड़की की भूमिका निभाने के कारण मिला। इसमें कोई शक नहीं कि वो कौन थी एक बेहद सफल फ़िल्म थी। इसके लिए साधना को फिल्मफेयर अवार्ड्स में बेस्ट एक्ट्रेस का नॉमिनेशन भी मिला और उनके रोल की ज़बरदस्त सराहना भी हुई। लेकिन उन्हें मिस्ट्री गर्ल कहने के पीछे एक इससे भी बड़ी मिस्ट्री थी।
फिल्मी दुनिया में ऐसा कहा जाता है कि यहां आगे बढ़ने के लिए किसी न किसी गॉड फादर का होना बहुत ज़रूरी है।
कोई प्रभावशाली व्यक्ति ऐसा ज़रूर हो जो हर समय, हर जगह आपके हितों का ख़्याल रखे।
पार्टियों में सार्वजनिक तौर पर लोगों को लगे कि अच्छा,आप इनके आदमी हैं! वो प्रोड्यूसरों से आपके नाम की सिफ़ारिश करे। आपकी फ़िल्मों का प्रमोशन करे, उन्हें पुरस्कार दिलाए और इस बात का खास ख्याल रखे कि आपका नाम किसी न किसी तरह सुर्खियों में बना रहे।
मीडिया में धाक जमाने में आप उसके, और वो आपके काम आए।
यही कारण है कि फिल्माकाश में चमकने का ख्वाहिशमंद हर कलाकार किसी न किसी मज़बूत सहारे को ढूंढता है।
लेकिन संयोग से साधना के साथ नियति ने कुछ ऐसा गुल खिलाया कि वहां गॉडफादर्स खुद उनकी राहों में आए पर सीधी सरल साधना ने उन्हें अनजाने में अपने से दूर कर दिया। न केवल दूर बल्कि कहीं कहीं तो नाराज़ कर दिया।
कुछ लोग ऐसे एकांगी दबंग होते हैं कि उन्हें या तो दोस्त बनाइए, या फ़िर वो दुश्मन बनेंगे। बीच का कोई सामान्य रिश्ता उनके यहां नहीं होता। उनके लिए इस बात का भी कुछ महत्व नहीं होता कि आपने उनका क्या बिगाड़ा है? उनके बिदकने लिए तो यही काफ़ी है कि आपने उनका काम बनाया क्यों नहीं! आपने उनकी अंधभक्ति क्यों नहीं की?
साधना अपने काम से काम रखने वाली प्रतिभाशाली और बेहद खूबसूरत अभिनेत्री थी। उसने ये नहीं सीखा था कि ज़िन्दगी में अपने फ़ायदे के लिए दूसरों को कैसे इस्तेमाल किया जाता है। उल्टे ऐसे कई लोग थे, जिन्होंने उसके सीधेपन और उदारता का बेजा फायदा उठाया।
यदि आप गहराई से पड़ताल करें तो देख पाएंगे कि साधना के लिए फ़िल्मों में जो भूमिकाएं लिखी गईं वो भी पटकथाकारों ने उसे पूरी तरह जान - समझ कर ही लिखीं, और उसका निजी जीवन उसके रोल्स में अक्सर झलका।
कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि साधना अपने माता - पिता की इकलौती संतान थी और उसकी कोई और बहन नहीं थी, जिसका ज़िक्र कहीं - कहीं आ जाता है।
लेकिन उसके परिवार को निकट से जानने वाले कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि साधना की एक सगी बहन और भी थी जो देश के विभाजन के समय कराची पाकिस्तान से भारत आने के दौरान परिवार के साथ नहीं आ पाई। वो कैसे, किन परिस्थितियों में वहीं रह गई, ये ज्ञात नहीं था। क्या वो किसी हादसे का शिकार हुई, या वो अपने किसी आग्रह या संबंध के चलते वहीं रह गई, ये कोई नहीं जानता था।
ये एक दिलचस्प पराभौतिक तथ्य है कि साधना ने अपनी निजी ज़िन्दगी और फिल्मी भूमिकाओं में अपनी उस बहन को हमेशा अपनी याद, अपनी कल्पना या अपने विश्वास में महसूस किया।
एक बेहद खूबसूरत अभिनेत्री अपनी तमाम प्रतिभा और विलक्षणता के साथ अपनी भूमिकाओं में एक मिस्ट्री गर्ल बनी रही।
साधना ने कई फ़िल्मों में जुड़वां बहनों के रोल किए और हर फ़िल्म में ऐसा ही आभास दिया जैसे उसकी हमशक्ल दूसरी बहन से वो आश्चर्यजनक रूप से जुड़ाव रखती है।
वो कौन थी, असली- नक़ली, दूल्हा- दुल्हन आदि ऐसी ही फ़िल्में थीं।
हरि शिवदासानी की बेटी बबीता उनकी सगी नहीं चचेरी बहन थी। जिस तरह साधना को अपने चाचा और पिता से छिपा कर फ़िल्मों में कदम रखना पड़ा था, वैसी बबीता को कोई आशंका नहीं थी। क्योंकि बबीता के पिता खुद फ़िल्म जगत में थे, ये संभव था कि वो बबीता को कोई अच्छा ब्रेक दिलाने की कोशिश करें। दूसरे, राज कपूर से उनके अच्छे परिचय का लाभ भी बबीता को मिलने की पूरी संभावना थी।
साधना ने खुद अपने बल पर इतनी बड़ी सफ़लता अर्जित की थी कि उसके कारण उसकी बहन बबीता के स्वागत - सत्कार का सौहार्द्रपूर्ण वातावरण अपने आप बन जाने वाला था।
लेकिन फिर भी बात इतनी सहज नहीं थी जितनी बाहर से दिखाई देती थी।
यहां सबसे महत्व पूर्ण तथ्य ये था कि राजकपूर के बड़े सुपुत्र रणधीर कपूर से बबीता की मित्रता थी और वो दोनों मौक़े- बेमौके मिलते रहते थे।
अब फिल्मी दुनिया में रहने वाले दो परिवारों के जवान होते बच्चे आपस में दोस्त हों, इसमें तो कोई ऐतराज़ वाली बात कहीं से हो ही नहीं सकती।
लेकिन ये अंदाज़ न तो साधना को था, और न ही बबीता को, कि कपूर खानदान में रिवायत, रिवाज़ और फलसफे कुछ अलग ही थे। यहां सोच के पैमाने बेटे और बेटियों के लिए अलग - अलग रखे जाते थे।
साधना अपनी बहन से पहले भी बहुत कम मिलती रही थी और अब तो काम में इतनी व्यस्त थी कि मिलने -जुलने और रिश्ते निभाने के लिए वक़्त मिलना ही मुश्किल हो गया था।
दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल न होने का एक कारण ये भी था कि हरि शिवदासानी ने अंग्रेज़ महिला से शादी की थी। बबीता की मां बारबरा मुंबई में रहती ज़रूर रहीं पर उनका ज़्यादा मेलजोल किसी से कभी रहा नहीं। फिर उनकी ये रिजर्व रहने की प्रकृति कुछ असर तो बबीता पर भी डालती ही।
लिहाज़ा बबीता के प्लान्स का साधना को ज़्यादा कुछ पता नहीं रहता था।
साधना की फ़िल्मों के को- स्टार्स तो खुद ही ये शिकायत करते रहते थे कि साधना न तो फिल्मी पार्टियों के लिए समय निकालती है और न ही सोशल विजिट्स के लिए।
बस, सुबह साढ़े नौ बजे से दिनभर शूटिंग और शाम साढ़े छः बजे पैकअप के बाद सीधे घर आना, तथा मेकअप उतार कर अपने घर परिवार में रम जाना। यही रूटीन था।
लेकिन इस नियमितता और काम की लगन का भी कुछ फ़ायदा तो होना ही था।
साधना की उन्नीस सौ पैंसठ में दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं- वक़्त और आरज़ू।
दोनों सुपर- डूपर हिट। फ़िल्में क्या थीं, मानो सिनेमा हॉल में चलने वाले त्यौहार ही थे।
वक़्त बी आर चोपड़ा की फ़िल्म थी जिसे यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था। इसमें राजकुमार, साधना, सुनील दत्त, शशि कपूर और शर्मिला टैगोर के साथ बलराज साहनी भी थे। ये फ़िल्म साल की सबसे बड़ी हिट साबित हुई। फ़िल्म काफ़ी लंबी भी थी जिसमें आठ गाने थे। गीत - संगीत भी ज़बरदस्त हिट। फ़िल्म में आठ में से चार गाने साधना के जिम्मे आए। जिनमें दो उसके सोलो गीत थे और दो सुनील दत्त के साथ। फ़िल्म ने रिकार्ड तोड़ बिज़नेस किया। साधना को एक बार फिर फ़िल्मफेयर अवॉर्ड्स में बेस्ट एक्ट्रेस का नॉमिनेशन मिला।
दूसरी फ़िल्म थी रामानंद सागर की आरज़ू। ये भी सफ़लता की नज़र से ब्लॉकबस्टर फ़िल्म साबित हुई। इसमें साधना, राजेन्द्र कुमार और फिरोज़ खान थे। ये कश्मीर की वादियों में फिल्माई गई बेहद खूबसूरत फ़िल्म थी जिसने देश भर में सफलता के झंडे गाढ़ दिए।
साधना का जादू देश भर में छा गया। उसने सिद्ध कर दिया कि वो सबसे ज़्यादा पैसा लेने वाली हीरोइन यूं ही नहीं है।
उसकी इस सफ़लता ने उसे हर मोर्चे पर समृद्ध बनाया। वो पार्टियों और समारोहों में तो वैसे भी ज़्यादा आना- जाना पसंद नहीं करती थी, किन्तु उसकी रुचि अपना प्रचार करने, अपनी पीआरशिप  बढ़ाने और फ़िल्म वर्ल्ड की राजनीति में दखल देने में भी कभी नहीं रही थी।
शायद यही कारण रहा हो कि दूसरी बार बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नॉमिनेट होने पर भी उसे ये पुरस्कार नहीं मिला।
अलबत्ता ये पुरस्कार दिया गया फ़िल्म "काजल" में मीना कुमारी को, जो उन दिनों अपने कैरियर के उतार पर थीं। मीना कुमारी के लिए ये रोल लिखा था गुलशन नंदा ने, जो नंदा के एक उपन्यास "माधवी" से लिया गया था।
साधना के प्रशंसकों और शुभचिंतकों को ये बिल्कुल समझ में नहीं आया कि "वक़्त" और "आरज़ू" की भूमिका और अभिनय के सामने गुलशन नंदा का ये पात्र किस तरह श्रेष्ठ या महान था। लेकिन साधना ने ऐसी बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया। वो तो उल्टे अपने को "अंडर एस्टीमेट" करने वाली लड़की थी। खुद के पांच को चार बताती थी। जबकि यहां इस उद्योग में अपने तीन को तेरह कहने वालों का बोलबाला था।
इन्हीं दिनों कभी तन्हाई के क्षणों में साधना को ये भी खयाल आने लगा कि वो नय्यर साहब से अब भी प्रेम करती है, और आर के नय्यर भी अपने दिल की कोमल भावनाएं बहुत पहले ही उसके सामने जता चुके हैं।
साधना को ये याद था कि छः साल पहले उसने नय्यर को प्रेम जताने पर ये कह दिया था कि उस पर अपने परिवार की आर्थिक मदद की ज़िम्मेदारी है, इसलिए वो अभी शादी नहीं कर सकती।
किन्तु आश्चर्य जनक सत्य ये था कि इन बीच के पांच सालों में जॉय मुखर्जी, शशि कपूर, राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त,देवानंद, शम्मी कपूर, किशोर कुमार जैसे नायकों के साथ काम करते हुए कभी साधना का नाम किसी के साथ नहीं जुड़ा था, न ही किसी गॉसिपबाज़ कलम ने उसका रिश्ता कभी फ़िल्मों से इतर किसी शख्सियत से जोड़ा था और न ही कभी कहीं किसी के साथ उसकी डेटिंग की ख़बरें चटखारे लेकर सुनी पढ़ी गईं!
ये सब क्या था?
साधना के मन ने कहा, अब क्या समस्या है? अब आर्थिक स्थिति इतनी सुधर चुकी है कि मां - बाप चाहें तो पीढ़ियों तक बैठे- बैठे खा सकते हैं। फ़िर ये दिन हमेशा तो रहने वाले नहीं!
उम्र भी तेईस - चौबीस साल को छूने लगी है, ये कोई भला अकेले दिन गुजारने की उम्र है?
हमेशा ये दिल नहीं रहेगा, हमेशा ये दिन नहीं रहेंगे!
और कहावत है कि शिद्दत से कुछ चाहो तो कायनात पूरे जोशोखरोश से उसे आपको देने के लिए बेचैन हो उठती है। एक दिन नय्यर साहब का फोन आ गया कि आख़िर क्या इरादा है हुज़ूर का?
दिन जी उठे।
घरवालों को अपनी मंशा बताने की ठानी गई।
उधर इस साल की उसकी ज़बरदस्त सफलता से अभिभूत होकर उसके पास एक से बढ़ कर एक प्रस्ताव आने लगे थे।
उसको जेहन में रख कर पटकथाएं लिखी जाने लगीं।
हर बड़ा निर्माता अपनी अगली फ़िल्म में साधना को लेने का मंसूबा बांध कर अपने वित्तीय संसाधन आंकने लगा।
देश -विदेश के फिल्मी रिसाले साधना की कहानियों और ख़बरों से रंगे जाने लगे, टी वी और रेडियो पर साधना पर फिल्माए गए सुरीले गीत बजने लगे।
ऐ नर्गिसे मस्ताना, फूलों की रानी बहारों की मलिका, छलके तेरी आंखों से शराब और ज़्यादा, हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए, कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी, चेहरे पे खुशी छा जाती है, आंखों में सुरूर आ जाता है... गली- गली, घर- घर गूंजने लगे।
अपनी सफल फ़िल्मों में साधना ने हिंदी और उर्दू के मेल से उपजी एक ऐसी तहज़ीब का माहौल बनाया जिसे अपने बोलने- चालने, पहनने- ओढ़ने में नई पीढ़ी दिल से अपनाने लगी। एक ऐसा फ़लसफ़ा, जिसमें नफ़रत के लिए कोई गुंजाइश न हो। जहां खलनायकी की कोई जगह न हो।
मानवीय भावनाएं प्रेम, छल, कपट, ईर्ष्या, करुणा, क्रोध, सहानुभूति, सुंदरता, वासना...सब हों लेकिन हिंसा,नफरत, लड़ाई - झगड़ा आदि फ़िल्म के पर्दे पर जगह न पाएं।
आख़िर लोग यहां दिल बहलाने के लिए आते हैं, अपनी कमाई से टिकट खरीद कर आते हैं, आपको क्या हक है कि आप उन्हें जीवन विरोधी कथानक परोसें और उनके सपनों को नेस्तनाबूद करके अपनी तिज़ोरी भरें।
वक़्त और आरज़ू में ऐसी नकारात्मकता का एक भी दृश्य न होने पर भी बॉक्स ऑफिस पर दोनों फ़िल्मों का धमाल काबिले गौर था।
एक पत्रिका में दिए गए अपने इंटरव्यू में साधना ने एक बार कहा भी कि एक एक्टर और एक अच्छे एक्टर में बहुत मामूली सा अंतर ही होता है।
ये अंतर केवल इतना सा है कि अच्छा एक्टर अपने जेहन और अभिव्यक्ति में कुछ "एक्स्ट्रा" रखता है, जिसे वो अपने लिए लिखे हुए निर्देशित सीन में अनजाने में ही जोड़ देता है। एक ही लेखक के लिखे हुए एक से दृश्य को दो अलग अलग कलाकार अलग अलग ढंग से निभा ले जाते हैं। कई नामचीन सितारे तो अपने किरदार के संवाद तक बदलवा लेते हैं। निर्देशक इसके लिए सहर्ष तैयार भी हो जाता है क्योंकि उसे ये भरोसा होता है कि अच्छा कलाकार कोई न कोई मैजिक ही जोड़ेगा अपने किरदार में।
और दर्शक कह उठते हैं कि ये काम तो इसी के बस का था, "ही ओर शी डिड द रोल ही/शी वाज़ बॉर्न टू प्ले!"


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रचनाएँ
ज़बाने यार मन तुर्की (अभिनेत्री साधना की कहानी)
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