पिछली सदी में खूबसूरत और प्रतिभाशाली अभिनेत्री साधना का सक्रिय कार्यकाल लगभग पंद्रह साल रहा। किन्तु उनके फ़िल्मों से संन्यास के लगभग चालीस वर्ष गुज़र जाने के बाद भी उनकी फ़िल्मों को भुलाया नहीं जा सका।
ये उनका अपना फैसला था कि वो दर्शकों के जेहन में अपनी युवावस्था की वही छवि बरक़रार रखेंगी जब वो फिल्मी दुनिया की चोटी की लोकप्रिय नायिका रहीं।
उन्होंने इस दृष्टि से एक लंबा गुमनाम जीवन बिताया और इस बीच वो सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी उपस्थित नहीं रहीं।
लेकिन ज़िन्दगी में पर्याप्त विश्राम कर लेने के बाद वो अपनी स्मृतियों से ऐसे वाकयात पूरी स्पष्टता और प्रामाणिकता से सुनाती थीं जिससे फ़िल्म जगत ही नहीं बल्कि जगत में भी पुरुष वादी मानसिकता की संकीर्णता उजागर हो जाए।
कहा जाता है कि महिलाओं में पुरुषों की तुलना में बौद्धिक क्षमता कम होती है, और मान्यता ये भी बताई जाती है कि सुन्दर महिलाओं में तो समझदारी का लेवल और भी कम होता है। किन्तु वे अपने फिल्मी जीवन का एक किस्सा सुनाती थीं कि किस तरह पुरुष श्रेष्ठता जताने के जतन करते हैं।
वो बतातीं - एक हीरो की बड़ी अजीब आदत थी। वो साथ में शॉट देते समय हमेशा ये कोशिश करता कि हमें कई टेक देने पड़ें। वह जान बूझ कर दृश्य बिगाड़ता रहता था और रीटेक पर रीटेक करवाता रहता। बाद में मैं जब तक थक कर ऊब जाती और ठीक से अपना सीन नहीं करती, तब वो जनाब सतर्क होकर शॉट देते और इस तरह मन ही मन मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करते।
ऐसे हज़ारों किस्से उनके हज़ारों फैंस दुनिया भर में लिए बैठे थे।
शायद साधना पर मीडिया में आख़िरी तोहफ़ा मार्च दो हजार तेरह में प्रसारित किया गया कार्यक्रम "तलाश" ही था जिसे इंडिया टीवी की टीम ने बड़ी मेहनत से तैयार किया था।
इसमें उन पर शुरू से आख़िर तक एक बहुरंगी पड़ताल की गई थी।
साधना को सिंधी समाज ने एक बार सम्मानित करके "सिंधी अप्सरा" का खिताब दिया था। उन पर सिंधी भाषा में एक जीवनी भी अशोक मनवानी ने "सुहिणी साधना" शीर्षक से प्रकाशित की थी जिसका तात्पर्य था " ख़ूबसूरत साधना"! एक भव्य समारोह में इस पुस्तक को जारी किया गया।
इसके बाद साधना के एक बेहद संजीदा प्रशंसक सतिंदर पाल सिंह ने साधना के हिंदी फिल्मों को अवदान को लेकर एक किताब अंग्रेज़ी में लिखी जिसका शीर्षक था "साधना - एंचंटिंगली एंचंटिंग एंचंट्रेस ऑफ हिंदी सिनेमा" ( हिंदी सिनेमा को मंत्रमुग्ध करती मंत्रमुग्धकारी मंत्रमुग्धा - साधना)।
इस पुस्तक की प्रति उन्होंने मुंबई में साधना के आवास पर सपरिवार खुद उपस्थित होकर उन्हें भेंट की। इस मौक़े पर साधना ने अपने ही बनाए उस नियम को तोड़ कर उनके परिवार के साथ तस्वीरें खिंचवाई कि वो अब अपना ताज़ा फोटो कभी नहीं खिंचवाएंगी। इस तस्वीर में साधना अपने मनपसंद शफ़्फाक सफेद उस लिबास में आखिरी बार देखी गईं जो उन्होंने "मेरा मन याद करता है" गीत में फ़िल्म आरज़ू में पहना था और जिस परिधान की धवल सफेदी तमाम रंगीनियों पर भारी पड़ी थी।
इंडिया टीवी द्वारा प्रस्तुत "तलाश" कार्यक्रम में साधना के साथ काम कर चुके कई लोगों और उनके अनगिनत प्रशंसकों ने भाग लिया और हिंदी सिनेमा की उस महान अदाकारा के ख़ूबसूरत अतीत की खुशबू को वर्तमान से बांटा।
कहते हैं, इंसान दुनिया में आने के बाद खाता, सोता, घूमता, गाता, कमाता, लुटाता ही तो है फ़िर इस फानी दुनिया में कलेंडरों की अहमियत ही क्या? हम तारीखें क्यों देखें!
लेकिन लोग ये कैसे भूल सकते थे कि फ़िल्म "मेरे मेहबूब" से दुनिया को अपने हुस्न का जलवा दिखाने वाली हुस्ना की छवि ने पूरी आधी सदी पार कर ली थी। 1963 अब 2013 था।
लोगों ने वो लम्हे याद किए।
मनोज कुमार ने कहा- मैंने साधना को पहली बार खार से अंधेरी जाते हुए एक लोकल ट्रेन में खिड़की के सहारे बैठे हुए देखा था, उनके माथे की लटें हवा से उड़ रही थीं। मैंने मन में सोचा, ऐसी बेमिसाल ख़ूबसूरती को तो फ़िल्मों में होना चाहिए...चंद साल बीते कि वो हिंदी सिनेमा के शिखर पर थी।
विश्वजीत ने कहा - उसके चेहरे के क्लोज़-अप शहर भर की चर्चा के विषय बनते थे।
अरुणा ईरानी ने कहा- क्या सूरत थी, लोग तो पागल हो गए।
धीरज कुमार ने बताया- उसे सब चाहते थे, उसका जादू राजेश खन्ना से कम नहीं था।
डांस डायरेक्टर सरोज खान बोलीं- वो ? क्या इंसान थी बाबा! "झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में" गाने की शूटिंग के बाद उसने मुझे लटकने वाले बेहद ख़ूबसूरत झुमके तोहफ़े में दिए।
अभिनेत्री सीमा देव ने कहा- कितना प्यारा चेहरा था, किसने नज़र लगा दी जो ऐसे मुखड़े पर थायरॉइड ने हमला कर दिया, ओह, बाद में वो लड़की कैमरे से डरने लगी!
पंडरी जुकर (साधना की मेकअप आर्टिस्ट) भी बोलीं- उन्हें मेकअप की ज़रूरत कहां थी? वो तो वैसे ही दमकती थीं।
निर्माता निर्देशक मोहन कुमार ने कहा- उन्होंने पति की मृत्यु के बाद अवसाद को साहस से झेला, अब अकेली हैं !
ये एक फ़िल्म का दृश्य था :
लड़की: आपके कमरे में औरत जात की तस्वीर नहीं?
पुरुष : औरत धोखे और छल की गठरी होती है!
लड़की : आपने सीता मैया, सती अनुसूया, सावित्री का नाम नहीं सुना?
पुरुष : ये सब पिछले युग की औरतें हैं, आजकल नहीं होती।
लड़की : पर बाबूजी, पिछले युग के मर्द भी अब कहां दिखते हैं? न राम, न लक्ष्मण, न अर्जुन, न भीम !
पुरुष: .....!
ये दृश्य शम्मी कपूर और साधना पर फिल्माया गया था।
कई संवाद लेखक बताते हैं कि साधना कई बार ऐसे दृश्य लेखक को खुद सुझाती थीं ( पाठक अपनी जिज्ञासाओं का समाधान कर सकते हैं कि दिलीप कुमार ने उनके साथ कोई फ़िल्म क्यों नहीं की? राजकपूर ने केवल एक फ़िल्म के बाद उनसे दूरी क्यों बनाली? देवानंद अपनी फ़िल्म को रंगीन बनाने के प्रीमियर में उन्हें बुलाना क्यों भूल गए? राजकुमार के साथ उनकी फ़िल्म दो दशक में जाकर क्यों पूरी हो सकी)
उनकी आख़िरी फ़िल्म महफ़िल का एक दृश्य!
वो जिस कोठे पर नाचती है उसी पर एक रात उसके पिता (अशोक कुमार) चले आए।
लड़की: मैंने अपने जन्म की भीख तो नहीं मांगी थी, फ़िर ये जहन्नुम मुझे क्यों दे दिया?
पिता: बेटी मुझे माफ़ कर दे...ले ..ले ये रुपया सब तेरा है, जितना चाहे ले ले!
लड़की : ये ? ये तो यहां हर रात मेरी ठोकर पर बरसता है हुज़ूर! ये क्या मेरा उजड़ा बचपन लौटा सकता है? ... जाइए जाइए... शर्म नहीं आती बेटी से सौदा करते?
और फ़िर आया 2014
साधना की फ़िल्म "वो कौन थी" के पचास बरस पूरे हुए।
मई 2014 में मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम में "कैंसर और एड्स पीड़ितों" की सहायता के लिए तिहत्तर वर्षीय साधना एक बार फ़िर रैंप पर आने के लिए तैयार हो गईं। सुनहरी गुलाबी साड़ी में सजी साधना तीन दशक का एकांतवास छोड़ कर अभिनेता रणबीर कपूर के साथ दर्शकों से मुखातिब होने मंच पर चली आईं।
तालियां बजाते, किलकारियां भरते उन्मादी दर्शकों के बीच गर्दन को ज़रा खम देकर जो उन्होंने महीन पल्ला गिराया तो पार्श्व से बज उठा- लग जा गले कि फ़िर ये हसीं रात हो न हो !
शहर के इस भव्य फ़ैशन शो के दर्शक पुकार उठे- कि दिल अभी भरा नहीं!
और फ़िर आया 2015
यानी फ़िल्म "आरज़ू" और "वक़्त" का पचासवां स्वर्ण जयंती साल!
अख़बार, पत्रिकाएं और टी वी चैनल अब साधना की खबरें छाप रहे थे। उत्सव धर्मी लोग जश्नों की संभावनाएं खोज रहे थे।
लेकिन मिस्ट्री गर्ल की फितरत कुछ और कह रही थी।
कैलेण्डर क्या केवल सुखों के होते हैं? दुखों के नहीं होते?
यही तो वो साल था जब पचास साल पहले वर्षांत तक साधना की शादी की सुगबुगाहट शुरू हुई। यही वो साल था जब आधी सदी पहले साधना के शरीर पर थायरॉइड की हल्की दस्तक शुरू हुई।
उस सब को याद करते, उसकी आशंका की चिंता करते हुए साधना की तबीयत गिरने लगी। वर्षों से अकेलापन झेलती साधना ज़बरदस्त तनाव में आ गईं।
डॉक्टरों ने बताया कि आंखों की बीमारी और थायरॉइड ने मिल कर उनके मुंह के एक हिस्से पर भी असर डाला है और यदि जल्दी ही ऑपरेशन नहीं हुआ तो मुंह में कैंसर विकसित हो जाने के भी संकेत हैं।
ऐसे समय जब इस खबर पर घर के सारे सदस्य चारों ओर खड़े हो जाते हैं और देश दुनिया से रिश्तेदार देखने आने लग जाते हैं, साधना अकेली थीं। उन्हें लगता साथ में कोई है तो बस, मेरा साया।
कहने को शहर में एक बहन थी। समर्थ, सक्षम और समृद्ध!
लेकिन वो न जाने किस बात का इंतकाम ले रही थी? देखने तक न आई।
जब अपना ही वक़्त साथ न दे तो कोई क्या करे! जग की सच्चाई यही तो है। दिल दौलत दुनिया सब साथ छोड़ जाते हैं।
खबर छपी कि साधना के मुंह का एक ऑपरेशन किया गया है किन्तु वो पूरी तरह ठीक नहीं हैं। इधर स्वास्थ्य और उधर मकान को लेकर कोर्ट कचहरी के चक्कर और झमेले।
कुछ महीने इसी तरह निकले, कभी घर में तो कभी हस्पताल में।
और एक दिन लोगों ने ये भी सुना और पढ़ा कि उनकी तबीयत ज़्यादा बिगड़ी है और उन्हें मुंबई के रहेजा हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया है।
उनका घर वीरान पड़ा था। वहां लोग आते ज़रूर थे, किन्तु उन्हें सहारा देने नहीं, बल्कि खबर जानने ताकि वो दुनिया को बता सकें कि वक़्त है फूलों की सेज, वक़्त है कांटों का ताज।
बड़े लोगों की बातें बड़ी।
बड़ा दिन ! 25 दिसंबर 2015 को सुबह लोगों ने ये खबर सुनी कि साधना इस दुनिया में नहीं रहीं। सुबह सात बजे हस्पताल में उनका निधन हो गया।
खबर सुन कर जहां मीडिया के तमाम फोटोग्राफर्स और रिपोर्टर्स ने उनके घर का रुख किया, वहीं कुछ गिनी चुनी फ़िल्म हस्तियों ने भी उनके घर का रुख किया।
जो भी गाड़ी आकर वहां रुकती छायाकार ये जानने और चित्र लेने पहुंचते कि कौन आया।
युवा पीढ़ी के लोग तो अब ये जानते भी नहीं थे कि साधना की फ़िल्मों में अपने ज़माने में हैसियत क्या थी।
जब तबस्सुम वहां पहुंचीं तो उन्होंने भरे गले और भीगी आंखों से लोगों को याद दिलाया कि वो कौन थी।
अपने ज़माने में तबस्सुम ने एक बार अपने कार्यक्रम "फूल खिले हैं गुलशन गुलशन" में साधना पर बहुत अच्छी जानकारी भी लोगों को दी थी।
साधना की मौत की खबर पर वहां पहुंचने वालों में रजा मुराद, अन्नू कपूर, पूनम (श्रीमती शत्रुघ्न सिन्हा) तबस्सुम ,वहीदा रहमान, हेलेन, दीप्ति नवल आदि थे।
साधना की एक मित्र ने प्रेस के लिए एक छोटी सी ब्रीफिंग की कि साधना को कैंसर नहीं था, कृपया ऐसी खबर न छापें। उन्हें तेज़ बुखार के बाद हस्पताल में भर्ती किया गया था। सुबह उन्होंने चाय भी पी और उसके बाद उनका निधन हो गया।
कुछ लोग वहां ये भी कहते देखे गए कि साधना पिछले कुछ समय से बहुत परेशान और अकेली थीं। किन्तु इस बात का खंडन पूनम ने ये कह कर किया कि ऐसा नहीं था वो कुछ दिन पहले काफ़ी खुश देखी गई थीं।
पूनम सिन्हा मूल रूप से एक सिंधी महिला होने के नाते शादी से पहले से ही साधना से अच्छा परिचय रखती रही थीं।
अगले दिन सांताक्रुज मोक्षधाम में साधना का अंतिम संस्कार कर दिया गया, वो संस्कार, जिससे खुद साधना बहुत डरती थीं।
लेकिन इस दुनिया से उस दुनिया की गाड़ी वहीं से तो लेनी होती है, आग की लपटों पर सवार होकर दहकते शरारे उड़ाते हुए!
आसमान में जा बसना तो साधना के लिए सहज ही रहा होगा क्योंकि अपने जीवन के अठारहवें वसंत में ही सितारों सी हैसियत तो वो पा ही चुकी थीं।
फ़िर महायात्रा के इस सफ़र में ये आस भी उन्हें बंधी रही होगी कि उस लोक में शायद उनके प्रेमी पति हमसफ़र रम्मी भी उन्हें कहीं दिख जाएं जिनके लिए उन्होंने छोटी सी उमर में अपने माता पिता को छोड़ा।
उनकी सुनहरी राहों के तमाम हमसफ़र राजेन्द्र कुमार,सुनील दत्त, शम्मी कपूर, देवानंद, राजकपूर भी तो सब उस दुनिया के वाशिंदे ही बन चुके थे। अपने दुनियावी अकेलेपन से वहां निजात क्यों न मिलेगी?
और जिस मौत के रस्मो रिवाज से वो डरा करती थीं, वो भी तो दोबारा किसी को नहीं आती!
जाने में फ़िर कैसा डर ???