राजेन्द्र कुमार ने "निस्बत" की जो कहानी पसंद की थी, उसकी सबसे विशेष बात ये थी कि इसमें उस महिला का पात्र, जिससे पहले राजेन्द्र कुमार प्यार करते हैं, और बाद में उनका बेटा कुमार गौरव, साधना के लिए ही ख़ासतौर पर लिखा गया था। राजेन्द्र कुमार को वो इंटरव्यू भी दिखा दिया गया था जिसमें साधना ने अपने लायक कोई भूमिका होने पर फ़िल्मों में वापसी की बात कही थी। कुमार गौरव की प्रेमिका के रूप में वो माधुरी दीक्षित को लेना चाहते थे, जिन्हें अपनी फ़िल्म "फूल" के दौरान ही वो साइन कर चुके थे।
लेकिन इस फ़िल्म से साधना के सितारे जुड़ते, इससे पहले ही इस फिल्म की कहानी का हश्र वही हो गया जो बीमारी के बाद से उनकी लगभग हर फ़िल्म का हुआ। राजेन्द्र कुमार स्वयं भी बीमार हो गए। पटकथा उनके बांद्रा स्थित ऑफिस में किन्हीं फाइलों के बीच दबी रह गई।
इससे पहले कि साधना के फिल्मी कैरियर का पूरी तरह से पटाक्षेप होने की राम कहानी खत्म हो, पाठकों को एक वाकया और जान लेना चाहिए।
सन उन्नीस सौ उन्हत्तर में इंतकाम और एक फूल दो माली के कामयाब होने के बाद के दिनों में एक महत्वाकांक्षी फ़िल्म निर्माता ने राजकुमार, साधना और वहीदा रहमान को एक साथ साइन कर लिया था। फ़िल्म का नाम था "उल्फत"।
राजकुमार ने साधना के साथ महा कामयाब फ़िल्म वक़्त की थी और वहीदा रहमान ने उसी समय नीलकमल में राजकुमार के साथ काम किया था। निर्माता को लगा कि दशक के बीतते - बीतते इस त्रिकोण का एक साथ आना एक बड़ा शाहकार सिद्ध होगा।
1970 में फ़िल्म की रिलीज़ डेट्स घोषित कर के तमाम पोस्टर्स तक लगा दिए गए थे। फ़िल्म का संगीत भी बिकना शुरू हो गया था। अख़बारों में खबर थी कि संगीत के रिकॉर्ड्स धड़ाधड़ बिक रहे हैं।
लेकिन तभी न जाने क्या हुआ कि फ़िल्म के पूरी होने से पहले ही बंद हो जाने की खबरें छपी। योग- संयोग इतने नहीं हो सकते, कभी - कभी लगता है कि कोई कॉकस ज़रूर काम कर रहा था। जिस तरह मल्टी नेशनल कंपनियां कोई प्रॉडक्ट लॉन्च करने से पहले बाज़ार के मौजूदा उत्पाद को झूठे सच्चे विज्ञापन से आउट करने की कोशिश करती हैं, शायद इसी तरह कलाकारों की नई खेप के आने के पहले कुछ खुराफ़ाती तत्वों द्वारा कोई गुल खिलाए जा रहे थे।
बहरहाल, फ़िल्म बंद होते ही राजकुमार ने इस फ़िल्म को निर्माताओं से ख़रीद लिया ताकि इसे पूरा करके रिलीज़ किया जा सके।
साधना और आशा पारेख अपने कैरियर में लगभग शुरू से ही साथ रहीं और दोनों में गहरी मित्रता भी थी, किन्तु एक काम आशा पारेख ने ऐसा किया, जिस पर साधना ने कभी ध्यान नहीं दिया। आशा पारेख खुद फ़िल्म वितरण के क्षेत्र में भी आ गई थीं और इस तरह उनकी आय उनके मेहनताने के अलावा भी होती रही।
इस बात की परवाह करने की साधना को कभी ज़रूरत भी नहीं रही। एक तो लगातार हिट होती फ़िल्मों के कारण शानदार पारिश्रमिक और फ़िर पति का फ़िल्म डायरेक्टर होना। कभी ऐसी ज़रूरत ही नहीं पड़ी कि पैसे को लेकर हिसाब किताब देखा जाए।
राजकुमार ने फ़िल्म "उल्फत" खरीद तो ली, किन्तु उसे पूरा करने के लिए लंबे समय तक संसाधन नहीं जुटा पाए।
राजकुमार भी उन्हीं महत्वाकांक्षी कलाकारों में थे जो भविष्य में अपनी संतान को अपनी जगह देने की आकांक्षा रखते थे, और अपने बेटे पुरू को फ़िल्मों में लाना चाहते थे। इसलिए फ़िल्म निर्माण व वितरण की गतिविधियों से जुड़े रहने की उनकी दिली इच्छा तो थी, पर अनुभव और वो व्यवहार कुशलता नहीं थी जो एक फ़िल्म निर्माता के लिए जरूरी होती है।
कहा जाता है कि फ़िल्म निर्माण भी एक तराजू में ज़िंदा मेंढ़कों को तौलने जैसा ही काम है जिसमें जब तक आप एक को संभालें तब तक दूसरा फुदक जाता है। बहुत धैर्य और कौशल चाहिए।
साधना के पति आर के नय्यर जब कभी उनकी तबीयत ज़रा ढीली होती तो साधना से कहते थे कि अगर मुझे कुछ हो गया, तो तुम अकेली कैसे रहोगी? तुमने तो ज़िन्दगी में मेरे अलावा और किसी पर कभी ध्यान ही नहीं दिया।
ये बहुत गहरी बात थी और ये साधना को अपने पति की ओर से मिला सबसे बड़ा कॉम्प्लीमेंट था।
इसके उत्तर में साधना उनसे कहती थीं कि मैं आपसे पहले चली जाऊंगी।
इस पर राम कृष्ण नय्यर, जिन्हें प्यार से साधना रम्मी कहती थीं, कहते- अगर ऐसा हुआ तो दो अर्थियां घर से एक साथ उठेंगी। मैं तुम्हारे बिना नहीं जियूंगा !
उनकी ये नोक - झोंक न जाने किस बात का पूर्व संकेत थी।
उल्फत फ़िल्म के मुहूर्त के पूरे पच्चीस साल बीत जाने के बाद एक दिन राजकुमार का फोन आया कि वो उल्फत को पूरा करके रिलीज़ करना चाहते हैं और उन्होंने वहीदा रहमान से शूटिंग की तारीखें भी ले ली हैं, अब साधना जी भी शूटिंग के लिए समय निकालें और बचे हुए काम को पूरा करें।
साधना हैरान रह गईं। उन्हें लगा - ये किन दिनों की बात है, तुम कौन हो, मैं कौन हूं, जाना कहां है हमसफ़र!
लेकिन उन्होंने फ़ौरन संभल कर राजकुमार से इतना कहा- मेरे दस लाख रुपए का भुगतान बाक़ी है, पहले वो भिजवा दीजिए, फ़िर देखते हैं।
ये वही राजकुमार और वही साधना थे, जिन्होंने कभी "वक़्त" फ़िल्म में एक दूसरे को देखकर गाया था- कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी, दिल के सोये हुए तारों में खनक जाग उठी!
लेकिन उस बात को पूरे तीस साल बीत चुके थे।
उसी फ़िल्म में दोनों ने ये भी तो सुना था कि आगे भी जाने ना तू, पीछे भी जाने ना तू, जो भी है बस यही एक पल है!
राजकुमार का जवाब आया कि वो फ़िल्म को साधना की "डुप्लिकेट" लेकर पूरा करेंगे!
फ़िल्म का नाम बदल कर अब "उल्फत की नई मंजिलें" हो गया।
साधना ने बीस दिन दे दिए।
लेकिन राजकुमार तो ठहरे राजकुमार! उन्हें नखरे करना तो ख़ूब आता था, पर नखरे उठाना उन्होंने कभी सीखा नहीं था।
पूरे बीस दिन तक कश्मीर में डायरेक्टर के साथ साधना और वहीदा रहमान शूटिंग करती रहीं, और जब वापस लौटने के लिए होटल में अपना सामान पैक कर रही थीं तब राजकुमार साहब वहां पहुंचे।
लेकिन उन्हें यही सुनने को मिला- जानी, अगर तुम राजकुमार हो, तो हम भी साधना और वहीदा रहमान हैं!
अगली फ्लाइट से दोनों मुंबई लौट आईं। राजकुमार वहां निर्देशक के साथ डुप्लीकेटों की मदद से पैच वर्क कराते रहे और शायद मन ही मन गुनगुनाते रहे- इतने युगों तक इतने दुखों को कोई सह न सकेगा!
आख़िर उन्नीस सौ चौरानबे में ये फ़िल्म केवल दो प्रिंट्स के सहारे इने- गिने सिनेमा घरों में किसी तरह प्रदर्शित की गई जहां इसे इन नामों के सहारे पहुंच कर गिने चुने दर्शकों ने ही देखा।
जिस साधना को कभी देश भर की पब्लिक ने देख कर ये कहा कि वो कौन थी? उसी को देखकर दर्शकों ने कहा- ये कौन है? राजकुमार के संवाद जो कभी दर्शकों को गुदगुदाया करते थे, अब केवल उनका उपहास करने के काम आए।
संपादन का हाल ये था कि एक ही गीत में कलाकार कभी युवा तो कभी बूढ़े दिखते। आधा संवाद स्टार बोलते तो आधा उनके डुप्लीकेट।
तात्पर्य ये कि फ़िल्म अपने समय के तीन महान कलाकारों के जलवों का खंडहर बन कर रह गई।
इसके अगले ही साल साधना ने अपने जीवन का सबसे बड़ा आघात झेला, जब उनके पति आर के नय्यर दिवंगत हो गए।
साधना विधवा हो गईं।
नय्यर साहब के समय के कर्ज चुकाना मुश्किल हो गया। लोग अब ये चाहते थे कि उनका बकाया पैसा लौटाया जाए।
साधना ने उनके ऑफिस को बंद करने का निर्णय लिया। भीगी आंखों से उनके स्टाफ को अलविदा कहा। अपने कार्टर रोड वाले फ्लैट को भी निकालना पड़ा।
सदी बीतते- बीतते अकेली साधना का सफर एक बार फिर उसी मुकाम पर आ खड़ा हुआ जहां से वो शुरू हुआ।
नई सदी में वो एक इतिहास की तरह दाख़िल हुईं। एक सुनहरा इतिहास!
उनके इर्द- गिर्द इन तमाम सालों में जो कुछ एहसास, अनुभव और अंजाम की शक्ल में इकट्ठा हुआ था, उसी को असबाब की तरह समेट कर फ़िल्म जगत की ये "ग्रेटा गार्बो" अपने अकेलेपन की वीरान दुनिया में चली आई।
साधना अब सांताक्रुज वाले दो मंजिले बंगले "संगीता" में नीचे की मंज़िल पर रहती थीं। ये बंगला मूल रूप से आशा भोंसले के पति का बंगला था। किन्तु बाद में आशा भोंसले का अपने पति से तलाक हो गया था इसलिए उनका आना जाना यहां नहीं होता था। आशा जी अपने पेडर रोड स्थित आवास में रहती थीं। यहीं उनकी बड़ी बहन लता मंगेशकर का आवास भी था।
साधना के पति क्योंकि खाने- पीने के बहुत शौक़ीन थे और उनके रहते साधना देशी- विदेशी हर तरह के खाने की अभ्यस्त थीं, इसलिए साधना के मित्रों की मंडली कभी - कभी यहां जमती थी। साधना के मित्रों में नंदा, वहीदा रहमान, आशा पारेख, हेलेन आदि अपने समय की नामचीन अभिनेत्रियां शामिल थीं।
साधना फ़िल्में देखने की शौक़ीन ज़रूर थीं पर वो कभी अपनी खुद की फ़िल्में नहीं देखती थीं। उनके पास बेहतरीन देशी - विदेशी फ़िल्मों का संग्रह मौजूद था, जो उनके अकेलेपन का भी साथी था, और उनकी मित्र महफिलों का भी।
साधना को कभी कुत्ते पालने का शौक़ हुआ करता था, और अपना मनपसंद कुत्ता अब भी वो अपने साथ में रखती थीं।
उन्होंने अपने निजी स्टाफ को अब छुट्टी दे दी थी किन्तु उनकी एक सहायक अब भी उनके साथ हमेशा रहती थी।
कहा जाता है कि इसी सहायक की पुत्री को साधना ने अपनी पुत्री मान लिया था और इसका सारा खर्च वही उठाती थीं। उसकी पढ़ाई, शादी आदि की तमाम व्यवस्था साधना ने ही करवाई थी।
हालांकि अपनी इस दत्तक पुत्री को गोद लेने की कोई कानूनी औपचारिकता उन्होंने पूरी नहीं की थी।
यही युवती जब कभी साधना के साथ उनके कक्षों की सफ़ाई के दौरान फाइलों में दबी पड़ी उन फ़िल्मों की पटकथाओं को देखती जिन पर फ़िल्में कभी बन ही नहीं पाईं तो उनमें खो जाती थी। साधना के कहने पर भी उसने उन्हें फेंका नहीं था। वो उन्हें साफ़ करके जस का तस रख देती थी।
इन फिल्मों में गुरुदत्त के साथ "पिकनिक", राजेश खन्ना के साथ "प्रायश्चित", राजकुमार और विश्वजीत के साथ "तेरी आरज़ू", राजेन्द्र कुमार के साथ "इंतजार" और दिलीप कुमार के साथ "पुरस्कार" शामिल थीं।
फिल्मी चमक- दमक से दूर अकेली रहतीं साधना का इंटरव्यू लेने टी वी या अख़बार वाले अब भी, जब - तब पहुंचते रहते थे। वे बातचीत करतीं, हर बात का जवाब देती थीं और तब फ़िल्म पत्र- पत्रिकाएं एक बार फ़िर उनकी चर्चा छेड़ देते थे।
सबसे बड़ी चर्चा इस बात को लेकर होती थी कि साधना को कभी भी फ़िल्मफेयर का बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड नहीं दिया गया।
आश्चर्य की बात ये थी कि कई बार देखने वालों ने उनके साथ हुए इस अन्याय को साफ़ भांप लिया, जब बेहद मामूली या नामालूम सी भूमिकाओं के लिए साधारण अभिनेत्रियों को भी ये दे दिए गए।
लेकिन इंटरनेशनल इंडियन फिल्म अकेडमी ( आई आई एफ ए) द्वारा दिया जाने वाला लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड सन दो हज़ार दो में साधना को दिया गया। उनके साथ ये पुरस्कार यश चोपड़ा को भी मिला जो कभी वक़्त फ़िल्म में उनके निर्देशक रहे थे।
उदास मन से साधना ये पुरस्कार ले तो आईं पर इसकी खबर वो अपने पति नय्यर साहब को कभी नहीं दे पाईं जो सात साल पहले ही इस दुनिया से कूच कर गए थे। नय्यर साहब ये आस अपने मन में ही लिए हुए चले गए कि ज़िन्दगी ने उनकी झोली में एक नायाब हीरा डाला था, मगर फिल्मी दुनिया ने उसकी क़दर उनके जीते जी नहीं जानी।
साधना को ताश खेलने का भी बहुत शौक़ था और अब अकेले रह जाने के बाद सप्ताह में तीन चार दिन दोपहर के समय मित्रों के साथ ताश खेलना उनका शगल बन गया, जिसमें उनका साथ उन्हीं की तरह अकेलेपन से गुज़र रही अभिनेत्रियां आशा पारेख, नंदा, वहीदा रहमान और हेलेन दिया करती थीं।
वैसे देखा जाए तो आशा पारेख ने अपने अकेलेपन के बावजूद अपने को कहीं अधिक फिट और व्यस्त रखा था, वो फ़िल्मों का वितरण संभालने के साथ सामाजिक कार्यक्रमों में भी बढ़ - चढ़ कर हिस्सा लेती रही थीं और बीच में एक टर्म के लिए फ़िल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष भी बनीं।
साधना और आशा पारेख की व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता भी जग जाहिर थी। इन दोनों की फ़िल्मों के नाम तक क्लैश करते थे। साधना की मेरे मेहबूब तो आशा की मेरे सनम, साधना की मेरा साया तो आशा की मेरा गांव मेरा देश, साधना की आप आए बहार आई तो आशा की आए दिन बाहर के, साधना की लव इन शिमला तो आशा की लव इन टोक्यो आदि इसके उदाहरण हैं।
कहते हैं कि इंसान कभी - कभी एक और एक ग्यारह भी बन जाता है तो कभी एक बटा एक बराबर एक भी! रिश्ता ऐसा ही तो होता है।