मुंबई की कलानिकेतन साड़ीशॉप उस समय महानगर की सबसे बड़ी और लोकप्रिय दुकान थी।
एक दोपहरी, न जाने क्या हुआ कि आसपास से सब लोग इस शोरूम के सामने इकट्ठे होने लगे। जिसे देखो, वही कलानिकेतन की ओर देखता हुआ उधर बढ़ने लगा।
देखते- देखते लगभग पांच हजार लोगों की भीड़ वहां इकट्ठी हो गई। भीड़ में युवक भी थे, बूढ़े और महिलाएं भी, और बच्चे भी। धक्का - मुक्की शुरू हो गई। शोरूम के मालिक ने भीतर से जब ये मंज़र देखा तो उसका माथा ठनका। उसकी समझ में नहीं आया कि ये जलजला क्यों उठा।
ये संभव नहीं था कि दरवाज़े से बाहर निकल कर भीड़ के बीच किसी से इस भीड़ के इकट्ठे होने का कारण पूछा जा सके। शोरूम के कीमती शीशे फूट जाने का अंदेशा था। शोरूम का गार्ड भी दरवाज़े से सटा भीड़ के आगे बेबस नज़र आ रहा था।
आख़िर किसी ने पुलिस को फोन कर दिया। शोरूम का मालिक मायूसी से सड़क की ओर देखता पुलिस का इंतजार करने लगा।
चंद पलों में सायरन दनदनाती पुलिस की गाड़ी आ खड़ी हुई। भगदड़ सी मच गई।
आनन- फानन में पुलिस भीड़ को तितर- बितर करती भीतर चली आई।
और तब जाकर शोरूम के मालिक और बाक़ी लोगों को भी सारा माजरा समझ में आया।
फ़िल्म "मेरे मेहबूब" की हीरोइन साधना अपनी मां लाली शिवदासानी के साथ शोरूम में साड़ियां खरीदने आई हुई थी, और वहां बैठी हुई साड़ियां पसंद कर रही थी।
ये भीड़ उसकी एक झलक पाने को बेताब थी।
सब हक्के - बक्के रह गए। खुद साधना भी ये देख कर हैरान रह गई कि ये सारी भीड़ उसकी झलक देखने को जुटी है। पुलिस ने साधना को तत्काल घेरे में लेकर शोरूम के पिछले दरवाजे से बाहर निकाला और अपनी पुलिस कार में बैठा कर उसकी गाड़ी तक पहुंचाया।
लंबी सी पीली सुनहरी गाड़ी में जल्दी- जल्दी दोनों महिलाओं की शॉपिंग के पैकेट्स को उनके ड्राइवर के साथ डिक्की में रखवाते- रखवाते भी एक युवा पुलिसवाला तो साधना के ऑटोग्राफ लेने में भी कामयाब हो गया।
गाड़ी के जाते ही भीड़ छंट तो गई, किन्तु फिज़ाओं में कोई रागिनी सी गूंजती रही... मैंने एकबार तेरी एक झलक देखी है, मेरी हसरत है कि मैं फ़िर तेरा दीदार करूं...!
साधना की एक फ़िल्म किशोर कुमार के साथ भी आई। उसका नाम था - मन मौजी। ये एक हल्की - फुल्की हास्य फ़िल्म थी। इसने दर्शकों पर तो जो असर छोड़ा, वो छोड़ा ही, पर हृषिकेष मुखर्जी जैसे निर्देशक के मुंह से ये ज़रूर कहलवा दिया- नूतन, मीना कुमारी या माला सिन्हा ये नहीं कर सकतीं।
शायद यही कारण था कि तब की फ़िल्म पत्रिकाओं- माधुरी, फिल्मफेयर, स्टार एंड स्टाइल आदि ने साधना को वर्सेटाइल एक्ट्रेस कहते हुए एक दिन इस तथ्य का खुलासा भी प्रमुखता से कर दिया कि वो मौजूदा दौर की सबसे ज़्यादा पैसा लेने वाली हीरोइन है।
लगभग इन्हीं दिनों का एक और किस्सा सुनने को मिलता है जिसे कई अख़बारों ने छापा।
मुंबई में एक "चोर बाज़ार" है। यहां पर कई बार विदेशी आयातित चीज़ें अच्छी और सस्ती मिल जाती हैं। लेकिन ऐसा तभी संभव हो पाता था जब कोई चीज़ों का पारखी हो और उनकी असलियत की पहचान रखता हो।
साधना एक दिन अपनी एक सहेली के साथ इसी बाज़ार में चली गई। सहेली मुस्लिम थी और बुर्का पहने हुए थी। साधना ने भी उसकी तरह बुर्का ही पहन लिया ताकि शांति से अपना काम करके आ सके और भीड़ भाड़ उसे तंग न करे। बुर्का पहनने का सलीका तो मेरे मेहबूब फ़िल्म में हुस्ना का रोल करते समय उसने निर्देशक की देख रेख़ में अच्छी तरह से सीख ही रखा था। बेफिक्र होकर गाड़ी में ड्राइवर के साथ बैठ कर दोनों चल पड़ीं।
चोर बाज़ार की एक छोटी सी दुकान में दोनों कोई चीज़ उलट -पलट कर देख ही रही थीं कि दुकानदार लड़कों में कुछ खुसर फुसर सुनाई दी। साधना के कान खड़े हो गए और वो चौकन्नी होकर इधर - उधर देखने लगी।
फ़िर एकाएक उसने अपनी सहेली का हाथ पकड़ा और लगभग घसीटती हुई उसे लेकर झटपट कार में जा बैठी।
लड़के उसी तरफ देखते हुए इकट्ठे हो गए। उनमें से एक युवक ने कहा- देख, देख मैंने कहा था न, ये साधना है!
कार तो जल्दी से फुर्र हो गई। पर सब लड़के उस युवक से पूछने लगे, तूने कैसे पहचाना?
युवक बताने लगा - मुझे उसकी आवाज़ से पहले थोड़ा शक हुआ, फ़िर मैंने उसकी चप्पल को देखा... यार, मैंने इक्कीस बार देखी थी मेरे मेहबूब। हुस्ना ने जब सड़क पर गिरी किताबें उठाई थीं तो उसकी पैर की अंगुली दिखी थी। उसकी एक अंगुली दूसरी अंगुली पर चढ़ी हुई है। मैं उसका पैर यहां देखते ही पहचान गया।
जब तक उसकी बात पूरी हुई तब तक तो साधना की कार छूमंतर होकर मीलों दूर पहुंच चुकी थी। परन्तु कार में बैठते ही साधना ने हड़बड़ा कर बुर्का उठाते हुए अपनी सहेली को जब सारा वाकया सुनाया तो देखने वालों को एक पल के लिए तो दीदार हो ही गए।
वास्तव में देश भर से मेरे मेहबूब के असर की कहानियां आती ही रहीं।
साधना युवाओं के फैशन आदर्श की तरह स्थापित हो गई। आज भी जब कोई शादी होती है तो आती हुई बारात के सामने जिस तरह "बहारो फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है" और विदा होकर जाती हुई बारात के सामने "बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले" गाया बजाया जाता है, उसी तरह बारात और घरात के तैयार होते समय साधना के चलाए गए फैशन घर घर प्रचलित हो गए।
लड़कियां घर में तैयार हों या ब्यूटी पार्लर जाकर, बालों का स्टाइल साधना कट ही होने लगा।
बाथरूम में लोग जोड़े से घुसने लगे। लड़कियां चुस्त चूड़ीदार पायजामा पहनने में मदद लेने के लिए अपनी सहेली को अपने साथ बाथरूम में लेकर घुसती थीं। लड़कों की अपनी टांगों से डेढ़ गुना लंबा टाइट चूड़ीदार पायजामा कंधे पर होता और दोस्त साथ में होता। उधर एक दोस्त पायजामा जांघों पर चढ़ा कर हाथों में उसका नाड़ा पकड़े बैठा है और दूसरा दोस्त उकडूं होकर उसकी टांगों पर पायजामे की चूड़ियां चढ़ा रहा है। पर फैशन तो फैशन है, क्या किया जा सकता है।
इस फैशन का आलम देश में ये था कि इतने चुस्त कपड़े तन पर पहने जाते थे, अगर बसों में, कॉलेजों में कुर्ते पर कोई ब्लेड से ज़रा सा कट लगा दे, तो कपड़ा चर्र से चिरता हुआ चला जाए।
एक और फैशन साधना के नाम है। बालों में तरह- तरह के डिजाइनर क्लिप्स, पिंस, ब्रोचेज़ इस्तेमाल करना भी लड़कियों को साधना ने ही सिखाया।
उन्नीस सौ चौंसठ का साल भी साधना के लिए बड़ी हिट फ़िल्मों का पैग़ाम लेकर आया।
एक और विचित्र बात साधना के कैरियर में देखने को मिलती है। ये अब तक तय नहीं हो सका कि इसे साधना की खूबी माना जाए या फ़िर इसे उनकी कमी करार दिया जाए।
जिस तरह हीरो सीनियर होते चले जाने के बाद अपने से छोटी युवा और नई लड़कियों के साथ काम करना पसंद करते हैं, ताकि वे युवा नज़र आ सकें, साधना ने इसके उलट पहले युवा लड़कों के साथ काम किया और बाद में अपने से काफी बड़े पुरुषों के साथ आती रहीं।
ये उनकी स्वाभाविक समझदारी ही कही जानी चाहिए कि वे अपनी आयु के अनुसार जोड़े बनाने में रुचि लेती रहीं।
देवानंद मधुबाला से शुरू होकर आशा पारेख, मुमताज़, ज़ीनत अमान और तब्बू तक जोड़ी बनाते आए।
धर्मेंद्र भी मीना कुमारी, वैजयंती माला, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी से लेकर अनीता राज तक आए।
लेकिन साधना ने पहले शशि कपूर के साथ काम किया, फ़िर शम्मी कपूर के साथ और फिर राजकपूर के साथ। पहले छोटे भाई संजय खान के साथ जोड़ी बनाई और बाद में बड़े भाई फिरोज़ खान के साथ।
इस साल सुपरहिट फिल्म वो कौन थी के बाद साधना और शम्मी कपूर की "राजकुमार" आई। इसने भी एक तरह से पुराने राजे रजवाड़ों के षडयंत्र को उजागर करने वाली फ़िल्मों का चलन शुरू कर दिया। इसी साल राजकपूर और साधना की फ़िल्म "दूल्हा दुल्हन" भी आई जिसमें साधना का डबल रोल था।
ये एक ऐसा समय था जब वैजयंती माला, माला सिन्हा,वहीदा रहमान,आशा पारेख, नंदा की फिल्में भी लगातार ही अा रही थीं और हीरोइनों के बीच कांटे की टक्कर दिखाई दे रही थी। ये सुरीले संगीत का दौर था, अच्छे गीतकार असरदार गीतों की रचना भी लगातार कर रहे थे।
इसे वस्तुतः फ़िल्मों का गोल्डन पीरियड भी कहा जा रहा था और कड़ी मेहनत व स्पर्धा से नए कलाकार भी आ रहे थे, नए फिल्मकार भी। ये सिंगल स्क्रीन थिएटर्स का युग था और युवाओं के शिक्षण केंद्रों के सामने ये बड़ी चुनौती थी कि वो टीन एजर्स को दोपहर के मैटनी शो में स्कूल - कॉलेजों से भाग कर सिनेमा हॉल में जा बैठने से रोकें।
ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों का दौर खत्म हो चुका था। बेहतरीन साउंड सिस्टम, ज़ीरो डिग्री प्रोजेक्शन के सिनेमास्कोप स्क्रीन्स, ईस्टमेन कलर, टेक्नीकलर, गेवा कलर आदि की तकनीकी रंगीनियत फ़िल्मों व फ़िल्मस्टारों को और भी ग्लैमरस बना रही थी।
कुछ फिल्मी खानदानों का दबदबा भी फ़िल्मजगत में कायम होने लगा था। फ़िल्मों के लिए, और फ़िल्मों से, पैसा बरस रहा था। कई बड़े और प्रतिष्ठित पुरस्कार भी फिल्मी लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू हो गए थे। फ़िल्म पत्रिकाओं का रुतबा अख़बारों, राजनैतिक पत्रिकाओं या साहित्यिक पत्रिकाओं से कहीं ज़्यादा असरदार होने लगा था।
एक और बात उस दौर के सिनेमाई लोगों के बारे में दिखाई देती थी। वो फ़िल्म के अलावा अन्य किसी व्यावसायिक दृष्टिकोण की गिरफ्त में नहीं होते थे। उनकी आय प्रायः वही आय होती थी जो उन्हें फ़िल्मों से होती थी। उनकी वही प्रतिष्ठा होती थी जो उन्हें फ़िल्मों से प्राप्त थी।
ऐसा नहीं होता था कि उसके भूमिगत या प्रच्छन्न अन्य कोई कार्य हों, वो कहने को तो फ़िल्म कलाकार हो पर उसकी फ़िल्में न चलने पर भी अपने अन्य कारोबारों से सिने जगत में प्रतिष्ठा पा रहा हो। सिने कलाकारों का एक आत्मीय सम्मान होता था जो उन्हें विश्वसनीय बनाता था। वे जो कहते थे उसका अर्थ होता या माना जाता था। वे विज्ञापन या राजनीति आदि भी नहीं करते थे।
कभी कभी तो स्थिति बड़ी विकट या दारुण हो जाती थी, कि अगर फ़िल्म न चले तो फिल्मकार निर्धन या दिवालिया तक हो जाता था।
ये सरलता जहां सितारों का मान सम्मान बढ़ाती थी वहीं उनके जीवन में एक अस्थिरता भी पैदा करती थी।
दशक के आरंभ में मुंशी प्रेमचंद के जिस कथानक पर फ़िल्म बना कर फिल्मकार उसमें साधना से अभिनय करवाना चाहता था, उस फ़िल्म की शुरुआत अब तक नहीं हो सकी थी।
फिल्मालय का करार पूरा हो जाने, और जॉय मुखर्जी के साथ उसकी केमिस्ट्री आगे न बढ़ने के चलते साधना का संबंध एस मुखर्जी की फ़िल्म कंपनी से अब औपचारिक ही रह गया था, और वहां उसके लिए कोई विशेष स्कोप नहीं बचा था।
जबकि आशा पारेख अब भी मुखर्जी साहब की पसंदीदा अभिनेत्री बनी हुई थी। जॉय मुखर्जी के साथ आशा पारेख की फ़िल्म "लव इन टोक्यो" भी काफी सफल रही।
साधना की बड़ी व्यावसायिक सफलता के बाद बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशक भी अब उदासीन होकर साधना के विषय में ये सोचने लगे थे कि अब पंछी उनके बूते का नहीं रहा। साधना बड़े और व्यावसायिक घरानों के साथ बेशुमार कमाई वाली एक से एक हिट फ़िल्में दे रही थी।
साधना ने लगभग सोलह साल की उम्र में फ़िल्म जगत में कदम रख दिया था। लगभग यही उम्र उनकी चचेरी बहन बबीता की भी हो चुकी थी। फ़िल्मों के प्रति अपने रुझान को भी बबीता दर्शा ही चुकी थी।
बबीता का फ़िल्मों में आना एक बड़ी घटना हो सकती थी। इस घटना का प्रभाव कमोवेश साधना पर भी पड़ने वाला था। जहां दोनों को एक दूसरी की उपस्थिति का लाभ मिल सकता था, वहीं एक दूसरी की उपस्थिति के तनाव भी मिलने की पूरी संभावना थी।
एक सबसे बड़ी मनोवैज्ञानिक बात तो ये थी कि यदि किसी एक ही घर से दो कलाकार फ़िल्मों में होते हैं तो दूसरे को इसके हानि लाभ दोनों होते हैं।
एक लाभ तो ये होता है कि पहले से बने - बनाए संपर्क होते हैं, जो परखे हुए भी होते हैं और विश्वसनीयता की दृष्टि से प्रामाणिक भी।
दूसरा लाभ ये होता है कि जो प्रस्ताव आते हैं वो एक के लिए उपयुक्त न होने पर दूसरे के लिए काम आ जाते हैं।
लेकिन हानि ये भी होती है कि पहले दिन से बाद में आने वाले पर एक दबाव रहता है अपने को श्रेष्ठ या समकक्ष सिद्ध करने का।
पर यहां तो ये तनाव इससे कहीं ज़्यादा जटिल थे।