साधना का परिवार पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आया था। वो सिंधी थी। देश के विभाजन के बाद ज़्यादातर फिल्मी लोग पाकिस्तान से आए कलाकारों को फिल्मों में काम दे रहे थे। इसके कई कारण थे। वहां से आने वाले ज़्यादातर लोग चेहरे- मोहरे और कद- काठी में कश्मीरी लोगों की तरह खूबसूरत तो होते ही थे, जलावतन होने की कशिश ने उन्हें जज़बाती भी बना छोड़ा था। ये इमोशंस को चेहरे पर लाने में माहिर माने जाते थे। अपने ज़र - ज़मीन को खो देने के बाद फ़िर मुकाम ढूंढने की मुहिम इन्हें जीवंत बनाती थी।
निर्माता- निर्देशकों और नायकों में भी पंजाब के लोगों का बोलबाला था, जिसका आधा भाग पाकिस्तान में ही था, और बाकी आधा पाकिस्तान की सरहद से लगा हुआ था।
देखने में ही नहीं, बल्कि अपनी मेहनत, जुझारूपन और मुकाम पाने के ज़ुनून को शिद्दत से कायम रखने का जज़्बा भी अपने मुल्क से बेदखल हुए इन खानाबदोशों सरीखे लोगों में ज्यादा था। पूर्वी पाकिस्तान के बंगाल से आए कई खानदान भी फ़िल्म जगत में अच्छे - खासे पनपे। बंगाल के कुछ परिवारों का यहां दबदबा था।
उम्र के सोलहवें साल में कदम रखती साधना का नाटकों में काम करना, फ़िल्मों में भूमिका पाने का प्रयास करना और डांस सीखने का अभ्यास करना जारी रहा।
वो श्री चार सौ बीस के कोरस "मुड़ मुड़ के ना देख, मुड़ मुड़ के..." के बाद अपनी सखी - सहेलियों के बीच और भी लोकप्रिय हो गई। सायन के अपने घर के आसपास की बस्ती में, अपने मोहल्ले में अपने मीठे और मिलनसार स्वभाव के कारण साधना की छवि और निखरती गई। आते - जाते हुए लोग उसे देख कर मन ही मन भरोसा करने लग जाते कि ये लड़की एक दिन ज़रूर कुछ बड़ा करेगी।
तभी एक सिंधी निर्माता ने मुंबई में एक सिंधी फ़िल्म बनाने का इरादा किया। फ़िल्म का नाम था "अबाना"। ये फ़िल्म देश के बंटवारे की त्रासदी पर आधारित थी। अबाना पुश्तैनी मकान या ठिकाने को कहते हैं।
पता लगते ही साधना ने अपने कुछ फोटोग्राफ उस फ़िल्म के लिए भेज दिए। कलाकारों का चयन शुरू हुआ। साधना को पूरी उम्मीद थी कि उसके फोटो को देख कर उसे किसी न किसी भूमिका के लिए बुलावा ज़रूर आयेगा।
ऐसा ही हुआ, अबाना के प्रोड्यूसर को फोटो तो पसंद था ही, जब ये पता चला कि लड़की सिंधी परिवार से ही है, तो बात बन गई। वैसे भी कहानी का जो मर्म था, वो तो साधना के परिवार ने स्वयं झेला था।
साधना को हीरोइन की छोटी बहन की वजनदार भूमिका के लिए चुन लिया। फ़िल्म की कहानी की मांग के मुताबिक़ सोलह साल की लड़की को नायिका के रोल के लिए नहीं चुना जा सकता था, लिहाज़ा बहन के सेकंड लीड किरदार के लिए उसे चुन लिया गया।
वैसे तो फिल्मी दुनिया में ये परंपरा कभी नहीं रही कि किसी भूमिका के लिए किरदार की कहानी के अनुसार वांछित आयु के कलाकारों को ही चुना जाए। यहां कई बड़ी उम्र के स्टारों ने छोटी उम्र की भूमिकाएं की हैं,और इसी तरह कलाकारों ने अपनी आयु से अधिक के किरदार मेकअप के सहारे निभाए हैं। किन्तु अबाना एक छोटे बजट की प्रादेशिक फ़िल्म थी, इसलिए इसमें ज़्यादा प्रयोग शीलता की गुंजाइश नहीं थी।
शीला रमानी इस फ़िल्म की हीरोइन थी। आमतौर पर खूबसूरत अभिनेत्री को कॉम्प्लीमेंट्स लड़कों या पुरुषों की ओर से मिलते हैं पर यहां साधना को देख कर शीला रमानी ने टिप्पणी की, कि ये लड़की फ़िल्म आकाश में बहुत ऊंचाई तक चमकेगी।
यहां तक कि साधना ने अपनी नायिका से एक अवसर पर सेट पर जब ऑटोग्राफ मांगे तो शीला रमानी ने ये कहते हुए साधना को अपने ऑटोग्राफ दिए - तुम मुझसे क्या हस्ताक्षर मांग रही हो, तुम्हारे ऑटोग्राफ तो खुद एक दिन ज़माना झूम कर लेगा।
संकोची स्वभाव की साधना शरमा कर रह गई।
अबाना के बजट का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है इस फ़िल्म के लिए साधना को निर्माता की ओर से टोकन मनी के रूप में एक रुपया दिया गया।
शायद निर्माता का सोचना ये था कि कोई सिंधी लड़की किसी सिंधी फ़िल्म में काम तो अपनी इच्छा से करेगी और एक तरह से इसे अपने समाज के लिए सेवा कार्य मानेगी। वहां रुपए पैसे की बात आ ही नहीं सकती।
पर फ़िल्म जगत के जानकारों का मानना था कि इस तरह से फिल्मकार कलाकारों को इमोशनल दबाव बनाकर काम करा ले जाते हैं।
जो भी था, फ़िल्म काफी सफ़ल रही और साधना अपने स्वप्न की ओर एक कदम और आगे बढ़ गई।
इस फ़िल्म की चर्चा रही और सिने पत्रिका "स्क्रीन" में साधना का एक फोटो छपा जिस पर पड़ी एक निगाह ने इस उगते सूरज के तेज़ से आसमान रंग दिया।
ये निगाह थी फिल्मालय स्टूडियो के मालिक शषधर मुखर्जी की, जिनकी बड़ी और प्रख्यात फ़िल्म निर्माण संस्था तब सुर्खियों में थी।
इन्होंने साधना को अपनी फ़िल्म कंपनी से जुड़ जाने का प्रस्ताव दिया। साधना को इसके लिए साढ़े सात सौ रुपए मासिक वेतन का प्रस्ताव दिया गया, जो उस समय को देखते हुए एक बड़ी रकम थी।
साधना वैसे भी एक समझदार और ज़िम्मेदार बेटी की तरह अपने परिवार की चिंता करती थी, और उसके खर्चों में हाथ बंटाना चाहती थी, इस प्रस्ताव ने उसके लिए कोई लॉटरी लग जाने जैसा काम किया।
वे अन्य कई मशहूर कलाकारों की तरह फिल्मालय से जुड़ गईं।
कंपनी की ओर से एक फ़िल्म के निर्माण की घोषणा हुई जिसके निर्देशक नासिर हुसैन थे। इसके तुरंत बाद ही कंपनी ने दूसरी फ़िल्म "लव इन शिमला" की घोषणा की। इस फ़िल्म का निर्देशन आर के नय्यर को सौंपा गया।
शषधर मुखर्जी जो फिल्मी हल्कों में एस मुखर्जी के नाम से विख्यात थे, चाहते थे कि इस फ़िल्म से साधना को हिंदी फ़िल्म हीरोइन के रूप में ब्रेक दिया जाय।
ये पड़ाव साधना की ज़िन्दगी में एक बेहद महत्वपूर्ण मुकाम होने जा रहा था। इस पड़ाव की पटकथा और किसी ने नहीं, बल्कि विधाता ने शायद खुद लिखी थी। इस पड़ाव की धूप, इस पड़ाव की छांव ताजिंदगी साधना के जीवन पर पड़ी।
ऊपर वाले की लिखी इस पटकथा में ज़बरदस्त ढंग से उलझे हुए पेंचोखम थे।
इस फ़िल्म के माध्यम से एस मुखर्जी पहली बार अपने लाड़ले पुत्र जॉय मुखर्जी को हीरो के तौर पर लॉन्च करने जा रहे थे। छः फुट ऊंचाई वाले बेहद स्मार्ट और प्रशिक्षित इस गोरे चिट्ठे नौजवान के साथ नायिका के तौर पर पांच फुट साढ़े छह इंच लंबी, अप्सरा सी ख़ूबसूरत साधना को उन्होंने राम जाने क्या सोच कर पसंद किया था,किन्तु ये फ़िल्म उनके लिए जीवन का एक बड़ा और महत्वाकांक्षी सपना बन गई।
न पैसे की कोई कमी थी, न उत्साह की, न इरादों की।
उनकी कंपनी का नासिर हुसैन के निर्देशन में शम्मी कपूर के साथ आशा पारेख को लॉन्च करने का ख़्वाब भी मनमाफिक परवान चढ़ा था, इसलिए इरादे और वांछना बुलंदियों पर थी और एक भव्य सुनहरा आगाज़ भविष्य के गर्भ में था।
इधर एक और लहर "लव इन शिमला" के युवा निर्देशक आर के नय्यर के दिल में किसी ज्वार की तरह उठ रही थी और वो अपनी नायिका सर्वांग सुंदरी रूपवती साधना के आकर्षण में अपने को बंधा पा रहे थे। वे जवान होने के साथ साथ पर्याप्त हैंडसम भी थे। वे साधना के प्रेम में पड़ चुके थे।
एक निर्देशक की पैनी - चौकन्नी निगाह से उन्होंने ये भी भांप लिया था कि मुखर्जी परिवार के चश्मे - चिराग़ को फिल्माकाश में चमकाने के ये प्रयास साधना को भी मुखर्जी परिवार का नयनतारा बनाए हुए हैं। उसकी लॉन्चिंग की भव्य तैयारी हो रही थी।
ऐसे में उन्होंने अपनी जागीर बचाने के ख़्याल से बेज़ार होकर एक पांसा फेंका। उन्होंने एस मुखर्जी के सामने प्रस्ताव रखा कि लव इन शिमला फ़िल्म में साधना के अपोज़िट नए आए अभिनेता संजीव कुमार को अवसर देना अच्छा रहेगा।
लेकिन मुखर्जी साहब ने ये कहकर उनका प्रस्ताव दरकिनार कर दिया कि वो संजीव कुमार को जल्दी ही कोई और चांस देंगे। उनके खयालों में तो जॉय मुखर्जी और साधना की करामाती, रब ने बनाई जोड़ी छाई हुई थी।
"लव इन शिमला" शुरू हो गई। उस ज़माने में कलाकारों के अलग अलग एंगल्स से ढेरों स्क्रीन टेस्ट होते थे, वॉइस टेस्ट होते थे। साधना को भी इस सब से गुजरना पड़ा। उनके कई प्रशिक्षण हुए। छायाकारों को लगा कि साधना का रंग एक तो वैसे ही संगमरमरी सफ़ेद है, उस पर चौड़ा माथा और भी उन्हें इस तरह उभारता है कि स्क्रीन शेयरिंग के समय नायक का व्यक्तित्व उनके सामने दब कर रह जाता है।
उनके बालों को लेकर काफ़ी सोच विचार के बाद एक नया प्रयोग करने की ठानी गई। मशहूर हॉलीवुड अभिनेत्री ऑड्रे हेपबर्न के बालों की तरह उनके बालों को बीच से दो भागों में बांट कर, कुछ ट्रिमिंग के साथ माथे पर छितराया गया।
देखने वालों ने दांतों तले अंगुली दबा ली।
इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान निर्देशक आर के नय्यर के मन में साधना के लिए कोमल भावनाएं धीरे धीरे गहरे प्यार में बदलने लगीं और फ़िल्म को मिली बड़ी सफ़लता से अभिभूत साधना ने उल्लास में जो कृतज्ञता प्रकट की उसे प्रथम दृष्टया साधना का नय्यर के लिए प्रेम ही माना गया।
वस्तुस्थिति ये थी कि साधना अपने ख़्वाब के इश्क़ में थी उन दिनों।
लव इन शिमला जैसी हल्की- फुल्की प्रेम कहानी में भी बिमल रॉय जैसे रचनात्मक फिल्मकार ने साधना के अभिनय की चिंगारियों की तपिश देख ली और तत्काल उसके साथ अपनी फ़िल्म "परख" शुरू कर दी।
एक सीधी सादी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी परख एक असरदार फ़िल्म थी। साधना से काम कराते समय बिमल रॉय हमेशा साधना को चेहरे के भाव भंगिमा निरूपण के लिए नूतन का उदाहरण दिया करते थे। नूतन ने सुजाता, बंदिनी जैसी फ़िल्मों में अभिनय के नए प्रतिमान गढ़े भी थे।
नतीज़ा ये हुआ कि नूतन साधना की पसंदीदा अभिनेत्री बन गईं। साधना अभिनय में उन्हें अपना आदर्श मानने लगी।
लव इन शिमला की कामयाबी के बाद मुखर्जी साहब ने ये भांप लिया कि साधना को लेकर अपने बेटे जॉय के जिस भविष्य के वो सपने देख रहे थे, वो भावनाएं परवान नहीं चढ़ सकीं।
मंद -मंद बहती हवा में बहते किसी परिंदे के कोमल पर की तरह ही बहता हुआ साधना के भविष्य का एक संभावित "गॉड फादर" धीरे- धीरे दृश्य से ओझल हो गया।
बिमल रॉय जैसे निर्देशक का भरोसा इतनी छोटी उम्र में हासिल कर लेना साधना के लिए एक बहुत बड़ी बात थी। परख एक मूल्य प्रधान फ़िल्म थी। जिसके लिए साधना जैसी खूबसूरत और ग्लैमरस अभिनेत्री को बिमल रॉय ने चुना तो सिर्फ़ इसलिए कि रॉय को साधना में एक नई और ताज़गी भरी नूतन दिखाई दी। साधना के अभिनय में वो सब था जो नूतन ने अब तक अपनी फ़िल्मों में प्रदर्शित करके दर्शकों का दिल जीता, लेकिन उसके साथ- साथ साधना के पास सांचे में ढला चुंबकीय व्यक्तित्व भी था जो बिमल रॉय की विलक्षण समझ को एक पूर्णता गढ़ने का आश्वासन देता प्रतीत होता था।
परख में साधना का चयन एक संयोग मात्र नहीं था। बल्कि अपने हेयर स्टाइल से युवाओं का आदर्श बन चुकी साधना के ग्लैमर को इस सादगीपूर्ण फ़िल्म में काबू में रखना बिमल रॉय के लिए एक चुनौती थी। साधना के लोकप्रिय हेयर स्टाइल को इसमें क्लिप्स के सहारे नियंत्रित करके उसके चेहरे पर ग्रामीण सादगी उभारी गई। इस फ़िल्म में साधना के काम को काफ़ी सराहना मिली। इसका क्लासिकल गीत "ओ सजना, बरखा बहार आई" उसकी चुलबुली और गहरी आंखों के शीशे में उतरी जुंबिश में डबडबा कर बहुत लोकप्रिय हुआ।
बिमल रॉय ने अपनी अगली फिल्म "प्रेमपत्र" में फ़िर से साधना को ही चुना। इसमें वो शशि कपूर के साथ कास्ट की गई।
लव इन शिमला,परख और प्रेमपत्र तीनों अलग प्रकार की फ़िल्में थीं। बल्कि फ़िल्मों के जानकार तो यहां तक कहते हैं कि ये तीन फ़िल्में अभिनय के तीन अलग अलग स्कूलों का प्रोडक्शन थीं, जिनका कथानक, प्रस्तुति और प्रभाव तीनों बिल्कुल अलग अलग था। एक ही अभिनेत्री का इन तीनों फ़िल्मों में काम कर लेना, वास्तव में एक अद्भुत घटना थी।
ऐसा सिर्फ इसलिए हो पाया, क्योंकि साधना की अभिनय रेंज ज़बरदस्त ढंग से विस्तृत थी। नूतन और नरगिस की भाव प्रवणता साधना के यहां मानो मधुबाला और वैजयंती माला के सौंदर्य से मिल कर एकाकार हो गई थी।
फिल्मालय की व्यावसायिकता, बिमल रॉय की मध्यम वर्गीय सिनेमा की अवधारणा से एकाकार हो गई थी।
इन तीन शुरुआती फ़िल्मों से सिद्ध हो गया कि साधना के पास एक अभिनेत्री के रूप में असीमित कैनवस, भूमिकाओं को चुनने की आधुनिक परिपक्व सोच और पर्दे पर अपनी छवि को मनचाही सीमा तक बदल पाने की अद्भुत क्षमता है।
फ़िल्मों को नई नाटकीय भूमिकाओं के लिए एक उच्च कोटि की नायिका मिल गई।