दौड़ ख़त्म हो गई थी।
दुनिया के लिए नहीं, साधना के लिए।
लेकिन दुनिया के मेले यूं आहिस्ता से छोड़ जाने के लिए भी तो दिल नहीं मानता। हर कोई चाहता है, अच्छा बस एक मौक़ा और!
उन्नीस सौ सत्तर आ जाने के बाद यही कुछ खयालात साधना शिवदासानी, जो अब साधना नय्यर थीं, उनके दिलो दिमाग में भी आए।
पिछले दशक की एक सुपरहिट फिल्म "राजकुमार" की टीम एक बार फिर से जुटी। डायरेक्टर के शंकर, संगीत निर्देशक शंकर जयकिशन को साथ में लेकर साधना और शम्मी कपूर के पास एक प्रस्ताव ले आए। उनके पास दक्षिण की एक सफ़ल फ़िल्म के रीमेक की पटकथा तैयार थी।
इस बीच गंगा से बेशुमार पानी बह कर सागर में मिल चुका था। चीज़ें वो नहीं रही थीं, जो कभी हुआ करती थीं।
दक्षिण में के शंकर का सिंहासन हिल गया था। शंकर जयकिशन का काम, दाम और नाम अब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ले जाने लगे थे।
साधना का जादू उतर चुका था। शम्मी कपूर अब शशि कपूर ही नहीं, बल्कि रणधीर कपूर और ऋषि कपूर तक को काम पर जाते देख रहे थे।
लेकिन फ़िर भी, एक बार कोशिश करने में हर्ज क्या था?
साधना जब पहली बार लव इन शिमला में लॉन्च की जा रही थीं तब पहले हीरो के तौर पर संजीव कुमार को लेने की गुज़ारिश निर्देशक ने की थी। लेकिन उस समय जॉय मुखर्जी को लेकर फ़िल्म परवान चढ़ गई थी।
अब तक संजीव कुमार भी एक छवि बना चुके थे, और बड़ा नाम थे। उन्हें भी लिया गया, और शम्मी कपूर के साथ दो नायकों वाली फ़िल्म की भूमिका तैयार हुई।
कहते हैं कि उनका चढ़ता बाज़ार देख कर फिल्मकार ने इस फ़िल्म में भी शंकर जयकिशन की जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को लेने का विचार बनाया था पर शंकर जयकिशन ने बहुत भावुक होकर निर्माता को समझाया कि दिन बदलते हैं, हुनर नहीं। हमें मौक़ा देकर देखिए।
जब हम ज़िन्दगी में युवावस्था के तमाम उत्सव मना रहे होते हैं तब नाच -गाना -खाना - पीना सब भाता है, लेकिन जब जीवन के ढलान पर हम कीर्तन में मन रमा रहे होते हैं तो अच्छी बातें ही लुभाती हैं।
फ़िल्म की पटकथा कुछ इस तरह थी कि शम्मी कपूर और संजीव कुमार कॉलेज में पढ़ने वाले दोस्त हैं। शम्मी कपूर कुछ शरारती, शैतान तबीयत और अपराधिक गतिविधियों को पसंद करने वाले हैं और संजीव कुमार सीधे , सच्चे और ईमान की राह के राही।
एक दिन दोनों कॉलेज छोड़ते समय महात्मा गांधी की मूर्ति के नीचे खड़े होकर तय करते हैं कि वो दोनों तीन साल बाद एक दिन यहीं मिलेंगे और तब देखेंगे कि अपने अपने रास्ते चलते हुए ज़िन्दगी ने उन्हें क्या दिया,क्या छीना!
इस बीच शम्मी कपूर को नायिका साधना मिल गईं और वो उनकी सोहबत में अच्छे इंसान बन गए। उधर संजीव कुमार को उनके रास्ते से डिगा कर परिस्थितियों ने डाकू बना डाला।
अब जब दोनों यार मिले तो मंज़र बदला हुआ तो था ही, शम्मी कपूर पर ही संजीव कुमार को पकड़ने की ज़िम्मेदारी भी। नायक ने फ़र्ज़ के लिए दोस्त के सामने बंदूक तान देने में देर नहीं की।
पर विडम्बना देखिए, दोस्त संजीव डाकू हो तो हो, वो जोरू का भाई भी है। अब?
जिस साधना के साथ कभी संजीव कुमार को लेकर एक डायरेक्टर ने हसीन, खूबसूरत और दिलकश साधना के साथ उनके लिए रंगीनियां बिछाने की पेशकश की थी, वहीं दूसरे डायरेक्टर ने संजीव कुमार की कलाई पर साधना के हाथ से राखी बंधवा दी।
फ़िल्म नए दौर में मिसफिट मानी गई। और इस टीम के सामने ये सच्चाई आ गई कि गए दिन लौटते नहीं।
और हां, फ़िल्म का नाम था "सच्चाई"।
सन उन्नीस सौ सत्तर में साधना की एक फ़िल्म और रिलीज़ हुई, जिसका टाइटल एक मशहूर शेर की पंक्ति को बनाया गया था- "इश्क़ पर ज़ोर नहीं"।
वैसे तो इसका नाम पहले "बैरागी भंवरा" रखा गया था पर फ़िल्म बनते बनते इसका नाम बदल गया। इस तरह फ़िल्म का एक गीत "सच कहती है दुनिया, इश्क़ पर ज़ोर नहीं" इसका टाइटल सॉन्ग भी बन गया।
फ़िल्म का बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड तो बहुत अच्छा नहीं था पर कलात्मक मानदंडों पर फ़िल्म में कई खूबियां थीं। देखने वालों का कहना था कि यही फ़िल्म अगर दो- चार साल पहले रिलीज़ हुई होती तो पूरी संभावना थी कि फ़िल्म ब्लॉकबस्टर साबित होती। इस फ़िल्म को देखने वालों ने ' बेहतरीन चाय जो ठंडी हो गई' के अंदाज़ में सिप किया।
फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी ये थी कि इसमें धर्मेन्द्र और विश्वजीत जैसे दो हीरो पहली बार साधना के साथ कास्ट किए गए। फ़िर रमेश सैगल ने बतौर निर्देशक इसे बनाया जो बेहद सफ़ल निर्देशक कहे जाते थे।
दर्शकों को साधना की फ़िल्मों में जो बेहद सुरीला जादू भरा संगीत मिलता रहा था, यहां पहली बार एस डी बर्मन ने उसका ज़िम्मा संभाला।
इसमें फोटोग्राफी का कमाल इतना ज़बरदस्त था कि दर्शकों को लगा, साधना के कुछ दृश्य उनकी बीमारी के पहले शूट किए गए पुराने हैं, जबकि असलियत ये थी कि साधना ने थायराइड का इलाज करा कर बॉस्टन से लौटने के बाद ही इसे साइन किया था। छायाकार ने खूबसूरत लोकेशन्स को फिल्माने का कमाल साधना के चेहरे को फिल्माने में भी दिखाया।
दोनों नायकों के साथ नायिका का प्रेम त्रिकोण था, इस तरह कहानी तो साधारण सी थी।
पिछले दशक के बड़े नामों ने मिलकर दर्शक खींचे।
सिनेमा के ट्रेड पंडितों ने बड़ी बारीकी से कुछ निष्कर्ष और भी निकाले।
लोग कहते थे कि साधना का व्यक्तित्व इतना फ़ैलाव लिए हुए था कि अधिकांश फ़िल्मों में उनके साथ दो नायक दिखाई देते थे। एक ही नायक वाली कई फिल्मों में उनके डबल रोल कर दिए जाते ताकि उनकी पर्सनैलिटी बंट जाए।
जिन लोगों ने साधना को वक़्त में राजकुमार और सुनील दत्त, आरज़ू में राजेन्द्र कुमार और फिरोज़ खान, एक फूल दो माली में संजय खान और बलराज साहनी, सच्चाई में शम्मी कपूर और संजीव कुमार, इश्क़ पर ज़ोर नहीं में धर्मेन्द्र और विश्वजीत, गीता मेरा नाम में सुनील दत्त और फिरोज़ खान के साथ देखा है वो ट्रेड पंडितों की इस बात से कुछ इत्तेफ़ाक ज़रूर रखते होंगे।
कुछ लोग तो बात को यहां तक खींच ले गए कि इसी कारण दिलीप कुमार ने कभी साधना के साथ काम नहीं किया।
फ़िल्म समीक्षक ये भी कभी नहीं भूल पाते कि वैजयंती माला ने तो अपनी सहायक अभिनेत्री तक की भूमिका में साधना को लेना स्वीकार नहीं किया।
प्रतिभाशाली अभिनेत्री शर्मिला टैगोर और सदाबहार आशा पारेख के कैरियर ने भी गति तभी पकड़ी जब बीमारी ने साधना को स्पर्धा से हटा दिया।
साधना की अनुपस्थिति में बबीता के साथ लगभग उन सभी नायकों ने काम किया जो कभी साधना के हीरो रहे थे। उनकी फिल्में सफल भी हुईं किन्तु दर्शक सिनेमा हॉल में बबीता के चेहरे में साधना की कशिश को ही ढूंढ़ते थे। राजेन्द्र कुमार की अनजाना, मनोज कुमार की पहचान और बेईमान,शम्मी कपूर की तुमसेअच्छा कौन है, शशि कपूर की एक श्रीमान एक श्रीमती और हसीना मान जाएगी आदि इसकी मिसाल हैं।
फिल्मी लोग कहते थे - आपने कभी अपनी दादी - नानी नुमा पुरानी महिला को रसोई में काम करते देखा है?वो सब्ज़ी काटते वक़्त बहू के लाए तरह - तरह के कटर, छुरी आदि को झुंझला कर फेंक देती है, और फिर अपना पुराना चाकू उठा लाती है। अब उसे सब्ज़ी काटने में मज़ा आने लगता है।
सत्तर का दशक आते ही निर्माता- निर्देशक मोहन कुमार को भी इसी तरह नए कलाकारों से ऊब हुई और वो मेरे मेहबूब, आरज़ू जैसी फ़िल्मों का जादू फ़िर से रचने के ख़्याल से राजेन्द्र कुमार और साधना को एक बार और आजमाने चले आए। छायांकन के लिए कैमरामैन भी वही, और लोकेशन्स भी वही।
दौर में तहलका मचा रहे संगीतकार और गीतकार भी उन्होंने तलाश कर लिए।
फ़िल्म थी "आप आए बहार आई"।
कहानी तो साधारण थी पर उन्होंने निर्माण की भव्यता में कोई कमी नहीं छोड़ी।
शालीमार और निशात बाग़ की खूबसूरती के साथ साथ कैमरा मैन ने साधना की खूबसूरती और उनकी राजेन्द्र कुमार के साथ केमिस्ट्री को भी पकड़ने में पूरा ज़ोर लगा दिया। लेकिन गए दिनों की गंध उन्हें कहीं नहीं मिली और उन्नीस सौ इकत्तर में रिलीज़ फ़िल्म भी बस साधना की एक और फ़िल्म ही साबित हुई।
दर्शक न इसके गम में रोए और न इसके उन्माद में मुस्कराए। कहीं कोई बहार नहीं आई।
एक बार फ़िर सिद्ध हुआ कि आदमी की काबिलियत ही नहीं, बल्कि उसका वक़्त लाता है बहारें, वक़्त ही लाता है खिजां।
कुछ समय पहले जब फ़िल्म पत्रिका माधुरी ने जनता की राय से हर साल " माधुरी नवरत्न" चुनने का फ़ैसला किया था तो पहले ही साल देशभर की जनता ने राजेश खन्ना और साधना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और अभिनेत्री के तौर पर चुना था।
सहसा आल इंडिया पिक्चर्स के पी एन अरोड़ा का ध्यान इस बात पर चला गया कि राजेश खन्ना और साधना ने अब तक किसी भी फ़िल्म में एक साथ काम नहीं किया है। ये वास्तव में बड़े आश्चर्य की बात थी।
उधर राजेश खन्ना कुछ ही समय पहले राज़, डोली और आराधना जैसी फ़िल्में कर चुके थे, और साधना ने भी बीमारी के बावजूद इंतकाम और एक फूल दो माली जैसी हिट, और इश्क़ पर ज़ोर नहीं जैसी सफल फ़िल्म दी थी।
झटपट आल इंडिया पिक्चर्स स्टोरी डिपार्टमेंट ने एक सफल हॉलीवुड फिल्म "इट हैपेंड ऑन फिफ्थ एवेन्यू" को आधार बना कर एक शानदार पटकथा तैयार कर दी। इस कहानी को बहुत पहले उन्नीस सौ अड़तालिस में "पगड़ी" शीर्षक से भी बनाया गया था और ये सफल रही थी।
इस बार इस कहानी का नाम रखा गया "दिल दौलत दुनिया"।
ज़माना बदल चुका था। हेमा मालिनी,रेखा, ज़ीनत अमान जैसी हीरोइनें नई पीढ़ी के युवा दर्शकों के दिल पर राज करने लगी थीं।
लेकिन उत्साही निर्माता को अब भी लगता था कि पुराने चावल आखिर पुराने ही होते हैं। इनकी खुशबू लोग आसानी से नहीं भूलते।
उन्होंने राजेश खन्ना और साधना को लेकर दिल दौलत दुनिया शुरू कर दी। सहायक कलाकारों में भी अशोक कुमार, ओम प्रकाश, हेलेन,जगदीप, सुलोचना जैसे जमे हुए आर्टिस्ट्स लिए गए। शंकर जयकिशन का संगीत था और हसरत जयपुरी, वर्मा मलिक, शैली शैलेन्द्र के गीत।
फ़िल्म की कहानी दिलचस्प थी। हल्की- फुल्की कॉमेडी के साथ ज़बरदस्त संदेश था।
एक करोड़पति सेठ साल के छः महीने मुंबई में और छः महीने मसूरी में रहता है। बाक़ी समय उसका लम्बा- चौड़ा बंगला ख़ाली पड़ा रहता है।
इस बात का फायदा उठा कर एक बूढ़ा उस मकान को अपना छः महीने रहने का ठिकाना बना लेता है और पीछे के चोर दरवाज़े से आना- जाना करता हुआ उसमें रखे सामान व राशन का उपभोग करता रहता है।
इतना ही नहीं, बल्कि वो रास्ते चलते मिल गए कुछ साथियों को भी पनाह देता हुआ अपने साथ रहने की जगह देता जाता है। इस तरह बंगले में बेरोजगार नायक का भी आगमन हो जाता है।
एक दिन करोड़पति सेठ की बेटी अकस्मात वहां आ जाती है पर सारा माजरा भांपने के लिए उन्हें अपनी असलियत नहीं बताती और एक स्कूल टीचर के रूप में वो भी उनके साथ ही चोरी से वहां रहने का नाटक करने लगती है।
बेटी उन बेरोजगारों और घर विहीनों की ज़िन्दगी से इतनी प्रभावित होती है कि एक दिन अपने माता- पिता को भी उनकी पहचान छिपा कर वहां रहने ले आती हैं।
बंगले का मालिक करोड़पति सेठ सपत्नीक अपनी बेटी की ज़िद पर वहां बावर्ची के रूप में आकर रहने लगता है।
और फिर अमीर लोग देखते हैं कि ज़रूरत से ज़्यादा इकट्ठा करने के लोभ में वो जीवन में क्या खो देते हैं,जिसका आनंद निर्धन उठाते हैं।
इस कहानी में न तो युनाइटेड टैलेंट हंट जीत कर फ़िल्मों में आए हीरो राजेश खन्ना के लिए कोई बड़ी चुनौती थी और न ही राजरानी सी खूबसूरत ग्लैमरस साधना के लिए।
लेकिन फ़िर भी फ़िल्म में ताज़गी थी। कहानी अच्छी थी। गीत संगीत ठीक- ठीक था। पर फ़िल्म केवल ये उम्मीद लेकर बनाई गई थी कि शायद राजेश खन्ना और साधना को एक साथ देख कर दर्शकों को रोमांच होगा।
फ़िल्म नहीं चली। जो राजेश खन्ना सुपरहिट आराधना देने के बाद अब मुमताज़ के साथ दो रास्ते, दुश्मन जैसी फिल्म दे रहा था, जया भादुड़ी के साथ बावर्ची, हेमा मालिनी के साथ प्रेमनगर और मेहबूबा, ज़ीनत अमान के साथ अजनबी, बबीता के साथ राज़ और डोली जैसी फ़िल्में दे रहा था, उसे साधना के साथ नोटिस नहीं लिया गया और वो भी इस बीते दशक की हसीना से उदासीन ही रहा।
साधना को भी शायद शिद्दत से ये महसूस हो गया था कि अब हीरोइनों की नई लहर में उनके जलवे बिखेरने का कोई मोल नहीं रहने वाला।
उन्हें भी आगे पीछे नूतन, माला सिन्हा, वहीदा रहमान, नंदा और आशा पारेख की तरह सीनियर भूमिकाओं के लिए अपने को तैयार करना होगा जिसके लिए उनका ज़मीर गवाही नहीं दे रहा था।
रंगमंच का कायदा यही है कि नाचो, नहीं तो हटो!